बनारस, काशी अथवा वाराणसी के दो प्रसिद्ध स्थल इस वर्ष बड़े प्रसिद्ध रहे हैं – एक काशी विश्वनाथ और दूसरी ज्ञानवापी मस्जिद. ज्ञानवापी मस्जिद पर उसके मूल स्वरूप हेतु सर्वे की बात की जाय तो एक बड़ा वर्ग खुश हो जाता है लेकिन काशी विश्वनाथ के मूल स्वरूप हेतु सर्वे पर वही वर्ग भौंहे तान लेता है, ऐसा क्यों ?
वैसे तो मुझे मन्दिर, मस्जिद की इस लड़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन यदि बात आये न्याय, हक, अधिकार, समता पक्ष और निष्पक्षता की तो कहना पसन्द करूंगा कि मुझे जितनी संदिग्धता कई मस्जिदों पर उनके मूल ढांचे को लेकर है उतनी ही संदिग्धता असंख्य मन्दिरों के मूल वजूद को लेकर भी है. क्या यह संदिग्धता दूर नहीं होनी चाहिए ?
मेरे कुलदेव अथवा आराध्य देवता महासू हैं. उनके लिए किताबों में असंख्य लेखकों ने असंख्य मत प्रकट किए लेकिन जिस पर सभी एकमत है वह यह कि महासू देवता कश्मीर से यहां आए हैं. इतना मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं लेकिन इससे आगे किसी को जानकारी भी नहीं है. यदि कोई मत प्रकट करे तो उससे असहमत रहते हैं.
स्थानीय लोग बताते हैं कि मन्दिर पांडवों ने बनाया है, जबकि पुरातत्व विभाग ने शिलपट्ट टांगा है कि नौंवी शताब्दी में मन्दिर बना है. यानि इतना तो तय है कि पांडव आठवीं, नौंवी शताब्दी तक बिल्कुल नहीं रहे होंगे ? तब तक तो ईसाई, इस्लाम धर्म तक अस्तित्व में आ चुके थे. यानी बात कुछ और ही है जिसके प्रमाण स्पष्ट नहीं है.
महासू कथानुसार लिखा गया कि महासू देवता के कश्मीर से आने से पहले हनोल मन्दिर में विष्णु महाराज रहते थे जिनकी पत्नी का नाम रानी चतरानी था. महासू देवता के आने से उनको वहां से भाग जाना पड़ा. बाक़ी यह स्पष्ट नहीं कि विष्णुदेव महाराज कौन थे और भागकर कहां गए. रानी चातरा के जंगलों में चली गयी, यह बताया है. बहरहाल ! अब लौटते हैं तथ्यों पर.
तथ्य असंख्य है पर हिमाचल के मंडी से एक स्कॉलर रहे श्री ओसी हांडा अथवा ओमी चंद हांडा जी जिनका एक रिसर्च पेपर था ‘नागा कल्ट एंड ट्रेडिशन्स इन द वेस्टर्न हिमालय’, जिसमें उन्होंने कहा कि महासू देवता के थान हनोल में बुद्ध की अर्धखंडित मूर्ति स्थापित है जिसे स्थानीय लोग महासू समझकर पूजते आये हैं.
पहले यह स्पष्ट कर दूं ओसी हांडा जी ने बुद्धिस्ट आर्कियोलॉजी में पीएचडी की है, उन्हें अपनी थीसिस के लिए अवार्ड मिला है. उन्होंने दो दर्जनों से अधिक किताबें लिखी हैं, हिमाचल के मन्दिर, कल्चर, आर्केटेक्चर पर उन्होंने जिलेवार किताबें लिखी है. उत्तराखंड, हिमालय रीजन पर भी उनकी गज़ब पकड़ है.
सवाल है कि ओसी हांडा जी ने वर्षों पहले जो निष्कर्ष दिए उनको तवज्जो क्यों नहीं मिली ? यदि उनकी बात कभी सत्य साबित हुई तो लोगों की उस भावना का क्या जो वर्षों तक गफ़लत में थी ? यदि उनकी बात गलत हुई तो इतनी किताबें और लेखन को मान्यता क्यों दी गई ? और भावनाओं से बाहर निकलकर यह सब क्रॉस चैक कैसे हो सकेगा ?
त्रुटिपूर्ण मान्यताओं पर मेरी आलोचना और असहमति इसलिए रहती है क्योंकि मेरा इरादा किसी को कमतर आंकना नहीं बल्कि झूठे अभिमान को बताना होता है और ऐसा करते समय मेरे पास कारण भी होते हैं. जैसे हमें बताया, पढ़ाया, सिखाया जाता है कि भारतीय संस्कृति महान थी और पश्चिमी संस्कृति व्यर्थ तो सवाल है कि हमारी संस्कृति में सभ्यता क्यों नजर नहीं आती है ?
शहर, नगर, कस्बे, गांव, आम जगहों और पर्यटन स्थल को छोड़ो, तीर्थस्थल जैसे चार धाम यात्रा जैसी धार्मिक और पवित्र मानी जाने वाली यात्रा पर भी भारतीय लोग, विदेशियों की तुलना में ज्यादा असभ्य, अव्यवस्थित और अशिष्ट मिलेंगे. ऐसा नहीं कि विदेशी गंदगी नहीं फैलाते हैं लेकिन जब देशभक्त, धार्मिक समर्थक और अपने नागरिक ही असभ्य हों तो बाहरी पर रोष क्या ? अथवा रोष क्यों ?
धार्मिक स्थल के आसपास ही इतना कूड़ा, कचरा इतना फैला मिलेगा कि आप निश्चय ही नहीं कर पाएंगे कि ये वाकई धार्मिक प्रवृत्ति के सुसंस्कृत लोग रहे होंगे. आधुनिक समय में हिमालय पर्यटन हेतु बकायदा सरकार की गाइडलाइंस है. संस्कृति विभाग एवं पुलिस के दिशा निर्देशों के बाद भी आपको हर जगह कूड़े के ढेर पड़े मिलेंगे. कौन लेकर जाता है इस कूड़े, करकट को हिमालय की चोटी तक ? जाहिर सी बात देश के नागरिक, देश के दुकानदार ?
कुछ जगहों पर यात्रियों के सामान की गिनती हो रही है और आपको खाली रैपर वापस आकर जमा करने के निर्देश हैं अन्यथा आपको जुर्माना भरना होगा, बावजूद इसके लोग जुर्माना भरने को तैयार है. जाहिर सी बात है अकल पैसों से तो नहीं खरीदी जा सकती है. क्योंकि सच्चाई यही है कि भारत में साफ-सफाई भी एक जाति के जिम्मे है. बात पुरानी है, बात कड़वी भी है पर बात सच भी तो है ?
जो सफाई अभियान चलाते भी हैं वे समूह, संगठन के तले होता है, व्यक्तिगत में फिर वही सब रिपीट. आप देखेंगे कि अधिकांश विदेशी पर्यटक ज्यादा संवेदनशील होते हैं. वे अपना ही नहीं बल्कि दूसरों के द्वारा फैलाया कूड़ा करकट तक वापस बिन कर लाते हैं. बिखरा कूड़ा एकत्रित करेंगे जबकि वे जानते हैं कि इससे न उन्हें लाभ है, न उनकी कोई खबर अखबार में आएगी, न उन्हें कोई खर्चों में छूट मिलेगी और न उन्हें ऐसा करने की जरूरत है. उन्हें आखिर अपने देश वापस जाना है मगर प्रकृति प्रेम, सभ्य संस्कार तथा महत्वपूर्ण शिक्षा उन्हें उनकी जिम्मेदारी याद दिलाती है.
भारत में यदि ट्रैफिक लगा हो और गलत साइड से गलत तरीके से जो गाड़ी चलाये, वह खुद को ज्यादा होनहार समझता है. किसी भी अस्पताल, बैंक या अन्य जगहों की लम्बी कतारों में यदि हम लाईन तोड़कर या अपनी जानपहचान निकालकर अपना काम निकलवा लेते हैं तो हमारे रुतबे को हम खुद भी बड़ी तोप मानते हैं. नेता से जब गलत काम कराते हैं तो लोगों द्वारा भी दाद मिलेगी जबकि होनी निंदा चाहिए थी.
चलती गाड़ी से टॉफी, चिप्स के रैपर, फलों के छिलके या फिर अन्य कूड़ा करकट फेंकते हुए भी लोग अपनी शान समझते हैं. जगह जगह पान, जर्दा, तम्बाकू की पीकें, दीवारों पर कलाकारी एवं तोड़फोड़ हमें सभ्य नहीं बनाते हैं. पढ़े,लिखे तथा धनवान लोग जब नियम तोड़कर रौब झाड़कर आगे निकलते हैं उन्हें ग्लानि नहीं होती बल्कि गर्व महसूस होता है.
वास्तव में आज भी हमें विदेशियों से बहुत कुछ सीखने, समझने की आवश्यकता है. हमें खुद के द्वारा किये ऐसे कार्यों पर गर्व होता है, जबकि हमें पता है कि दूसरे ने किया होता तो हमें गुस्सा आ रहा होता. अपने देश पर सबको गर्व होता है और सब चाहते हैं वह अधिक तरक्की करे लेकिन उसकी व्यवस्था, सभ्यता जैसी चीजें भी हमसे ही बनती है. मगर हम केवल खोखले आदर्शों से खुश होते हैं जिसे किसी ने देखा ही नहीं और जो नग्न सत्य सामने हैं उसे कभी मानते नहीं. कोई हमें आईना दिखाए तो हम आहत हो जाते हैं.
बहरहाल, पिछले 7 वर्षों में भारत की लगभग 7 लाख कम्पनियां बन्द हुई. फिर रोजगार की बात आप खुद समझ लीजिए. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के तहत रजिस्टर्ड कुल 18,94,146 कंपनियों में से 36.07 फीसदी कंपनियां बंद हो चुकी हैं, इनमें से 3 हजार से अधिक विदेशी कम्पनियां भी बन्द हो चुकी है. यही नहीं हाल ही में यूजीसी ने 60 से भी अधिक देशों के राजदूतों से मिलकर भारत के साथ सहयोग मांगा था लेकिन ऑक्सफोर्ड जैसी 9 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय यूनिवर्सिटीज़ ने भारत में कैम्पस खोलने से ही सीधे इंकार कर दिया.
अचंभित है ? यह कोई साधारण बात नहीं है. जहां के विकास का ढोल पीटा जा रहा हो, उनके आंकड़े भी देखने जरूरी है. इधर मोटर कम्पनियों पर ही नजर डालें तो दशकों से यहां कारोबार कर रही बड़ी बड़ी मोटर कम्पनियों ने पिछले 7 वर्षों में भारत से कारोबार समेट लिया है, जिनमें मुख्यतः अमेरिका की GM यानि जनरल मोटर्स 2017 में बन्द हुई, साऊथ कोरिया की सॉन्ग-यॉन्ग मोटर कम्पनी 2018 में, अमेरिका की कन्विन्सलैंड 2019 में, इटली की फिएट 2019 में, अमेरिका की यूनाइटेड मोटर्स 2019 में बन्द हुई.
विश्व प्रसिद्ध कम्पनी हार्ले तक ने भारत से अपना कारोबार समेट लिया है. अमेरिका की हार्ले डेविडसन 2020 में भारत छोड़कर जा चुकी है, अमेरिका की फोर्ड 2021 में, जापान की डैटसन 2022 में भारत छोड़कर वापस चली गयी है. सोचिये क्या यही मेक इन इंडिया का नारा था जहां 3000 विदेशी कम्पनी देश छोड़कर भाग चली गयी ? और क्या यही स्टार्ट अप था जहां देश की ही 7 लाख कम्पनियों पर ताले लग गए ?
वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी वाले ज्ञान पर मत जाइए, ये वास्तविक आंकड़े देखिए जो सरकार के अपने ही आंकड़े हैं, जो उन्होंने संसद पर रखे हैं, इन्हें समझिए. मीडिया में डिबेट नहीं है क्योंकि इनसे कितने लोगों का रोजगार छीना उन्हें उसका आंकड़ा भी बताना पड़ेगा, इससे सरकार की छवि ख़राब होगी तो मीडिया को चाटुकारिता के पैसे कहां से मिलेंगे ? मीडिया ही तो वह सेक्टर है जिसमें एफडीआई को 100 प्रतिशत मंजूरी नहीं मिली. केवल 26 प्रतिशत है सोचिये आखिर ऐसा क्यों ?
बड़ी कम्पनियों के साथ पिछले 7 वर्षों में दर्जनों सरकारी कम्पनियां भी बन्द की गई, जिनके बारे में आप जानते ही होंगे ? तर्क दिया गया कि ये घाटे में चल रही थी. अभी भारत पर जितना कर्ज़ा आज तक के इतिहास में था पिछले 7 वर्षों में वही कर्ज़ा उसका दोगुने से अधिक हो गया, साथ ही कालाधन भी दोगुना, अमीरों की सम्पत्ति भी दोगुनी तथा गरीबों की संख्या भी दोगुनी हुई. अमीर-गरीब के बीच की खाई, हिन्दू-मुस्लिम के बीच की खाई, जाति-जाति के बीच की खाई कई गुना बड़ी. यही उपलब्धि है, यही विकास है, यही अच्छे दिन हैं पिछले 7 वर्षों के ?
- आर. पी. विशाल
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