जगदीश्वर चतुर्वेदी, प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता
गत 28 अप्रैल 2021 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ कोविड-19 महामारी पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर यह अजीब दावा किया कि कई कंपनियां चीन से बाहर जाएंगी और उनके निवेश को आकर्षित करने के लिए भारत को तैयार रहना चाहिए. उन्होंने कहा कि आखिर भारत के पास प्रचुर श्रमशक्ति, कौशल और बेहतर आधारभूत ढांचा है.
कुछ समय बाद ही केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक कारोबारी समाचार चैनल से कहा, ‘पूरी दुनिया में चीन और उसकी अर्थव्यवस्था के प्रति नफरत का भाव है. यह विपत्ति में वरदान जैसी स्थिति है. यह भारत और भारतीय निवेशकों, खासकर एमएसएमई क्षेत्र के लिए निवेश जुटाने का एक बढिय़ा अवसर है.’
उसके बाद आई एक समाचार रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि ‘भारत ने चीन से बाहर जाने की सोच रही कंपनियों से निवेश आकर्षित करने के लिए अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं.’ देश में वैश्विक निवेश के प्रोत्साहन एवं समर्थन के लिए गठित इकाई ‘इन्वेस्ट इंडिया’ ने निवेश की मंशा रखने वाली करीब 1,000 वैश्विक कंपनियों की सूची भी तैयार कर ली है.
इस समाचारपत्र में प्रकाशित एक और रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत चीन से बाहर निकल रही कंपनियों को लुभाने के लिए लक्जमबर्ग के दोगुने आकार का लैंड पूल तैयार करने में जुटा है. देश भर में 4.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की पहचान भी की जा चुकी है. असम सरकार ने कहा कि वह चीन से बाहर निकलने का इरादा रखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करने की योजना बना रही है ताकि वे राज्य में उत्पादन इकाइयां लगा सकें.
इस तरह चीन से कंपनियों के बाहर निकलने और उन्हें अपने यहां आकर्षित करने के सुर काफी तेज होने लगे हैं. अचानक ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शासन वाले राज्यों- उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने अधिकांश श्रम कानूनों को अगले तीन वर्षों के लिए निलंबित करने की घोषणा कर दी है. कारोबारी अक्सर कष्टदायक श्रम कानूनों की मौजूदगी और उनकी आड़ में इंस्पेक्टर राज होने की शिकायत करते रहे हैं. ऐसे में सरकार को लगता है कि श्रम कानूनों को निलंबित कर देने से अरबों डॉलर का निवेश आ जाएगा. क्या वाकई में ऐसा होगा ? मुझे तो ताज्जुब होगा अगर कोविड संकट के बाद चीन छोड़कर जाने वाले विदेशी निवेश के भारत आने में थोड़ी भी तेजी आती है. इस धारणा के पीछे मेरे ये कारण है –
1. क्या वाकई में कोई कंपनी चीन से जा रही है ?
अर्थशास्त्री एवं चीन मामलों के जानकार डॉ. सुब्रमण्यन स्वामी कहते हैं कि देशों की स्थिति किराना दुकानों जैसी नहीं होती है कि थोड़े कम भाव पर सामान बेचने से ग्राहक उनकी तरफ आने लगें. ये निर्णय किसी आवेग में नहीं लिए जाते हैं और न ही ये किसी घटना से प्रेरित होते हैं और बेहद जटिल होते हैं.
ऐसे में अचरज नहीं है कि अमेरिकन चैंबर ऑफ कॉमर्स इन चाइना के मार्च में किए गए एक सर्वे में यह पाया गया कि 70 फीसदी से अधिक कंपनियों की कोविड की वजह से अपना उत्पादन और आपूर्ति शृंखला परिचालन चीन से कहीं और जाने की कोई योजना नहीं है. यानी विदेशी कंपनियों के चीन से बाहर निकलने की पूरी सोच ही गलत है. इसकी वजह क्या है ?
विदेशी कंपनियां चीन की व्यापक आपूर्ति शृंखला क्षमताओं, श्रम उत्पादकता और विश्व-स्तरीय ढांचे की वजह से वहां गईं. इसके अलावा उन्हें वहां पर बड़ा घरेलू बाजार भी मिल रहा है. एक महामारी इन वजहों को नहीं बदल सकती है और इस पर असरदार तरीके से काबू पाकर चीन ने अपनी छवि को और पुख्ता भी कर लिया है.
एमचैम चाइना के अध्यक्ष एलेन बीबे कहते हैं, ‘चीन वैश्विक कोविड संक्रमण वक्र से आगे नजर आता है, खासकर महीनों के लॉकडाउन के बाद आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू करने के मामले में। यह बताता है कि कंपनियां चीन आना ही क्यों पसंद करती हैं ?’
अगला सवाल यह है कि चीन छोड़कर जाने वाली कंपनियां क्या भारत आने को लेकर उत्सुक हैं ? इसके पुख्ता सबूत नहीं हैं. असल में, ऑटो कंपनियों जैसे बड़े पैमाने पर अंतर्संबद्ध कारोबारों के लिए अपना काम समेटकर दूसरी जगह चले जाना नामुमकिन है और अगर कुछ कंपनियां चीन से चली भी जाती हैं तो फिर वे भारत क्यों आएंगी ?
2. विदेशी कंपनियों के लिए भारत आकर्षक नहीं
वर्ष 2018 में भारत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने वाले शीर्ष 10 देशों की सूची से बाहर चला गया. एटी कियर्नी एफडीआई विश्वसनीयता सूचकांक में भारत 2015 के बाद पहली बार शीर्ष 10 से बाहर गया था जबकि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में एफडीआई प्रवाह 11 फीसदी बढ़ा था.
भारत सरकार के उद्योग संवद्र्धन एवं आंतरिक व्यापार विभाग के पिछले साल जारी आंकड़े बताते हैं कि छह साल में पहली बार वर्ष 2018-19 में भारत में एफडीआई गिर गया. भारत विदेशियों के लिए आकर्षक नहीं है. इसके कई कारण हैं और सभी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है. बात केवल जमीन की उपलब्धता या सख्त श्रम कानूनों का मसला नहीं है. यह लालफीताशाही, फिरौती, पूर्व-प्रभावी सुधार, नियमों में अस्थिरता, कर आतंकवाद, खराब श्रम उत्पादकता, बंदरगाहों पर होने वाली देरी और सॉवरिन जोखिम का मामला है.
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘लोहे से बना कारखाना ही एकमात्र कारखाना नहीं है-विचारहीन नियम लोहे से भी अधिक कठोर हैं, यन्त्र से भी अधिक संकीर्ण है. जो बृहत व्यवस्था-प्रणाली निष्ठुर शासन का आतंक दिखाकर युग-युग तक कोटि-कोटि नर-नारी से मुक्तिहीन आचारों की पुनरावृत्ति कराती है, वह क्या किसी यन्त्र से कम है ? उसके जांते में क्या मनुष्यत्व नहीं पिसता ? बुद्धि की स्वाधीनता पर अविश्वास दिखाकर, विधि-निषेधों के इतने कठोर, चित्तशून्य कारखाने को भारत के अलावा और कहीं तैयार नहीं किया गया.’
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