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एंटी मुसलिम कॉमनसेंस में जीने वाले लोग संविधान के शासन को नहीं मानते

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एंटी मुसलिम कॉमनसेंस में जीने वाले लोग संविधान के शासन को नहीं मानते
एंटी मुसलिम कॉमनसेंस में जीने वाले लोग संविधान के शासन को नहीं मानते
जगदीश्वर चतुर्वेदी

सारे देश में एंटी मुसलिम प्रचार अभियान का वर्चस्व छाया हुआ है. एंटी मुसलिम प्रचार अभियान में लगे संगठन खुलकर शासकों के एजेण्डे के अंग के रुप में काम कर रहे हैं, इसके समानांतर एंटी मुसलिम प्रचारकों के ख़िलाफ़ भी नफरत भरी बातें हो रही हैं. साधारण-सामान्य विमर्श का माहौल एकदम नष्ट कर दिया गया है.इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय कॉमनसेंस एकसिरे से ग़ायब हो गया है. एंटी मुसलिम कॉमनसेंस का सिरा मुसलमानों और इस्लाम के ख़िलाफ़ झूठ से भरा हुआ है तो वहीं इसने मुसलमानों के ख़िलाफ़ ‘हिंसा करो और आनंद लो’, यह मनोदशा निर्मित की है.

इस काम में संगठित तौर पर मीडिया समूह-साइबर प्रचारक मंडलियां काम कर रही हैं. एंटी मुसलिम प्रचारकों का दल असल में ‘घृणा प्रचारक संघ’ है. यह समूह किसी भी तरह अपने एंटी मुसलिम एजेण्डे से हटना नहीं चाहता. सबसे दु:खद पक्ष यह है कि इस तरह के प्रचारकों के ख़िलाफ़ देश में कहीं पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई है. उलटे उनको विभिन्न रूपों में संवैधानिक संस्थान और उनके संचालक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संरक्षण और समर्थन दे रहे हैं.

एंटी मुसलिम प्रचार अभियान के दो महत्वपूर्ण उपकरण हैं, पहला,  भाषणबाजी, दूसरा, इंटरनेट संदेश, टिप्पणियां और मीडिया प्रचार. ये लोग इतिहास की अनसुलझी समस्याओं को निर्दोष मुसलमानों के सिर थोपकर उन्माद पैदा कर रहे हैं. वे देश की सभी समस्याओं के लिए मध्यकालीन मुसलिम शासकों और मुसलमानों को दोषी ठहराकर वर्तमान धर्मनिरपेक्ष भारत की अस्मिता को नष्ट करने और आपसी भाईचारा बिगाड़ने में लगे हैं.

इनके आक्रामक प्रचार अभियान का असर यह भी हुआ है कि आम नागरिकों में संविधान, धर्मनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, विवेकवाद, कानून के शासन, राष्ट्र-राज्य की धारणा और बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ गहरी नफ़रत के बीज बो दिए गए हैं. भारत के इतिहास में समाज इस तरह की नफ़रत में किसी भी दौर में नहीं रहा, जिस तरह की नफ़रत इन दिनों नज़र आ रही है.

एंटी मुसलिम प्रचारकों ने यह धारणा आम लोगों के मन में बिठा दी कि हिंदू कॉमनसेंस और हिन्दुत्व की राजनीति के ज़रिए ही संविधान, धर्मनिरपेक्षता, इस्लाम और मुसलमान आदि से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है. सामान्य नागरिक उनके प्रचार पर विश्वास करने लगा है और यही वह ख़तरनाक बिन्दु है जहां पर भारत की साझा मिश्रित संस्कृति और बहुलतावाद क्षत-विक्षत नज़र आ रहे हैं.

इसका असर यह है कि एंटी मुसलिम कॉमनसेंस में जीने वाले लोग क़ानून के शासन को ठेंगा दिखा रहे हैं या फिर वे क़ानून के शासन को नहीं मानते. एंटी मुसलिम कॉमनसेंस का दूसरा असर यह हुआ है इसने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र-राज्य की नौकरशाही को व्यापक स्तर पर वैचारिक तौर पर प्रभावित किया है. इससे प्रशासन, न्याय और सामाजिक सद्भाव बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ है.

एंटी मुसलिम कॉमनसेंस कार्य-कारण संबंध के आधार पर असर पैदा नहीं कर रहा बल्कि इसका बुनियादी आधार है आक्रामक-संगठित असत्य प्रौपेगैंडा. इसे सत्तातंत्र का खुला समर्थन हासिल है. एंटी मुसलिम प्रौपेगैंडा को हिन्दू राष्ट्रवाद और हिन्दूचेतना के लक्ष्य से जोड़ दिया गया है. इसकी आड़ में नफ़रत, हिंसा (वाचिक-कायिक), उत्पीड़न को जायज़ और वैध ठहराया जा रहा है. इसने भारत में लंबे संघर्ष के बाद निर्मित साम्राज्यवाद विरोध, लोकतांत्रिक चेतना और परंपरागत राष्ट्रवाद को अपदस्थ कर दिया है.

एंटी मुसलिम कॉमनसेंस के प्रचारक सत्ता के अपराध, उत्पीड़न, आतंक, भ्रष्टाचार आदि की अनदेखी करके सरेआम उन ताक़तों को अपने हमले के निशाने पर ले आए हैं, जो इन सब मसलों को उठा रहे हैं. एंटी मुसलिम प्रचारकों, मीडिया और भाजपा के बीच की गहरी सांठगांठ हैं. फलतःविपक्ष की बातें कोई नहीं सुन रहा.सत्ता के नाजायज कामों का कहीं पर भी व्यापक स्तर पर विरोध नहीं हो रहा बल्कि विभिन्न तरीक़ों से हिन्दू चेतना के राजनीतिक दोहन की जुगत निकालने में विभिन्न राजनीतिक दल लगे हुए हैं. राष्ट्र-राज्य और धर्म निरपेक्षता के लिए इसके कारण और भी मुश्किलें पैदा हुई हैं. राजनीतिक विकल्प तय करने में परेशानी आ रही है.

एंटी मुसलिम प्रचार अभियान के निशाने पर एक तरफ़ मुसलमान हैं तो दूसरी ओर विपक्षी राजनीतिक दल हैं. ये लोग प्रचार कर रहे हैं कि विपक्षी दलों से नफ़रत करो. मुसलमानों और विपक्ष के दमन से प्रेम करो. सब भ्रष्ट हैं, मोदी और भाजपा परम पवित्र और दूध के धुले हैं. एंटी मुसलिम प्रचारकों और मोदी सरकार में अनेक मसलों पर साम्य है, मसलन् मोदी सरकार-भाजपा-आरएसएस आदि का विपक्षी दलों के बारे में जो प्रचार अभियान है, वही प्रचार अभियान एंटी मुसलिम प्रचारकों का है.

वे बार-बार सत्ता के ज़ुल्म, उत्पीड़न और नीतिगत असफलता के लिए किसी न किसी बहाने ध्यान हटाने की रणनीति और प्रचार का इस्तेमाल करते हैं. एंटी मुसलिम प्रचारकों ने सिर्फ़ प्रचारक समूह ही नहीं बनाए हैं, उन्होंने हर शहर में क्रिमिनल लोगों के गिरोह भी संगठित किए हुए हैं जो उनके इशारे पर आए दिन एंटी मुसलिम हिंसाचार करते हैं.

अन्य नागरिकों की तरह मुसलमानों की मुश्किलें बहुआयामी हैं. एक तरफ़ आजीविका के लिए दैनंदिन संघर्ष करना पड़ता है तो वहीं दूसरी ओर जो खा-कमा रहे हैं, उसे किस तरह बचाया जाय. साथ ही मीडिया और राजनीतिक संगठनों के द्वारा जो घृणा अभियान चल रहा है, उससे कैसे मन को संतुलित रखा जाय. इसके अलावा मुसलमानों के प्रति संदेह और नफ़रत का जो वातावरण बना है, उसका मित्रता, प्रेम और सभ्य आचरण के ज़रिए किस तरह प्रत्युत्तर दिया जाय.

आम तौर पर नफ़रत का असर अधिक नज़र आ रहा है. इससे मुसलमानों के साथ अन्य तबकों, खासकर हिन्दुओं के एक तबके की सामाजिक-सांस्कृतिक दूरियां बढ़ी हैं. इस सामाजिक अलगाव को हिन्दुत्ववादी ताक़तें अपने प्रौपेगैंडा के ज़रिए भरने की कोशिश कर रही हैं. मुसलमान और इस्लाम विरोधी स्टीरियोटाइप प्रौपेगैंडा अपील करने लगा है. पूर्वाग्रह और मिथ्या कहानियां सच लगने लगी हैं. उल्लेखनीय है हमारा समाज मुसलमानों के बारे में पहले ही कम जानता था, विगत 75 सालों में मुसलमानों और इस्लाम के बारे में अज्ञानता और बढ़ी है।. मुसलमानों के बारे सचेतनता का ह्रास हुआ है.

यही स्थिति क़ुरान और मसजिदों के इतिहास के बारे में कह सकते हैं. हम इनके बारे में भी बहुत कम जानते हैं. एंटी मुसलिम प्रचार में वे लोग लगे हैं जो कभी किसी मुसलमान के मित्र नहीं बने, किसी मुसलमान के घर नहीं गए. उनके लिए तो मुसलमान सिर्फ़ नफ़रत के प्रचार की सामग्री है. इस सबका परिणाम यह हुआ है कि मुसलमानों की राजनीतिक-सामाजिक समस्याएँ कभी सामने नहीं आ पाई हैं.

भारत का संचालन संविधान और संसद द्वारा पारित क़ानूनों के ज़रिए होता है. इसके अलावा भारतीय दंड संहिता का विभिन्न अपराधों के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है. यहां शरीयत या इस्लाम या मनुस्मृति संचालक शक्ति नहीं है. राष्ट्र के निर्माण में संविधान की केन्द्रीय भूमिका है. कौन आतंकी है, कौन साम्प्रदायिक है इसके बारे में भी क़ानूनी प्रावधान हैं. इन सबकी अवहेलना करते हुए निहित स्वार्थी राजनीति और बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिक राजनीति हितों से प्रेरित होकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ अहर्निश घृणा का प्रचार अभियान जारी है, इसे केन्द्र और राज्य सरकारें रोकने में एकदम नाकाम रही हैं.

‘मुसलमान देश के शत्रु हैं, इस्लाम शत्रु धर्म है’ – इस धुन पर किया गया प्रचार अभियान कभी भी राष्ट्र निर्माण में मदद नहीं करता, उलटे इससे राष्ट्र-राज्य कमजोर होते हैं. इसी तरह मुसलमानों की आस्थाओं का मज़ाक़ उड़ाना, उनकी जीवन शैली, खान-पान पर हमले करना, उनको शैतान, आतंकवादी, उग्रवादी और देशद्रोही के रुप में चित्रित करना क़ानून के शासन और संविधान का अपमान है. हकीकत यह है अधिकांश मुसलमान संविधान में आस्था रखते हैं और लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता से जुड़े जीवन मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में कायाकल्प करने में सफल रहे हैं.

वे कभी राजनीति और इस्लाम के अन्तस्संबंध पर जोर नहीं देते. वे कभी सार्वजनिक मंचों से इस्लाम के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी या ध्रुवीकरण नहीं करते. साथ ही सांस्कृतिक बहुलतावाद, धार्मिक बहुलतावाद में उनकी आस्थाएं बड़ी गहरी हैं. उनके लिए इस्लाम शुद्ध निजी उपासना की चीज है. मुसलमानों में सभी मुसलमान एक जैसे नहीं हैं, उनमें भी भेद हैं. आर्थिक-सामाजिक ऊंच-नीच है.

उनके चरित्र और स्वभाव के निर्माण में जातीय भाषा और जातीय संस्कृति से जुड़े मूल्यों का गहरा असर है. उनमें स्वाधीनता संग्राम की उदार-क्रांतिकारी परंपराओं और मूल्यों के असर के साथ मुसलिम समाज में चले अलीगढ़ आंदोलन और देवबंद का भी गहरा असर है. उनमें अहमदिया और बोहरा सम्प्रदाय के के मानने वाले भी है, सूफी परंपरा के मानने वाले भी हैं, साथ ही उनमें नस्लीय या धार्मिक श्रेष्ठता या धार्मिक प्रतिस्पर्धा की भावना तक़रीबन नहीं है.

यही वजह है कि भारत के मुसलमान तमाम क़िस्म के वैचारिक वैविध्य के मानने वाले मिलते हैं, उनमें शिया हैं तो सुन्नी भी हैं. इन सभी रुपों के साथ उनमें भारतीय और भारतवासी की भावना गहरे जड़ें जमाए हुए है. इस सबसे भी बड़ी चीज यह है कि उनमें आधुनिक मूल्यों, आधुनिक शिक्षा और आधुनिक कारोबार करने की व्यापकतम स्तर पर मनोदशा तैयार हुई है. इसने उनमें बड़ी संख्या में मध्यवर्ग, उच्च मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग को जन्म दिया है. यह वह मुसलमान है जो लोकतंत्र में पला और बढ़ा है.

लोकतंत्र, धर्मनिरपेतक्षता और बहुलतावाद उसके जीवन की धुरी रही है, यही वजह है भारत के मुसलमानों की मध्यपूर्व के देशों में रहने वाले मुसलमानों से तुलना नहीं की जा सकती. वे न तो ईरानी मुसलमानों की तरह हैं और इराक़ी मुसलमानों की तरह है. वे आचरण और नज़रिए में सऊदी अरब और मिस्र के मुसलमानों से एकदम भिन्न हैं क्योंकि लोकतंत्र उनकी प्राणवायु है. भारत के मुसलमानों के पास कई अस्मिताएं हैं, वे मुसलिम अस्मिता के साथ जातीय भाषायी अस्मिता और राष्ट्रीय अस्मिता को एक साथ जीते हैं. वे इस्लामिक समाज की बजाय लोकतांत्रिक समाज के लिए वचनबद्ध हैं.

हकीकत यह है भारत में मुसलमानों ने कभी भी इस्लामिक समाज बनाने की कोशिश नहीं की. इस्लाम उनके लिए प्राइवेट चीज रहा है. बाह्य जीवन में उन्होंने लोकतंत्र और आधुनिकता से जुड़े जीवन मूल्यों का आचार, व्यवहार में कड़ाई से पालन किया है. यही वजह है कि उनको किसी भी क़िस्म मुसलिम स्टीरियोटाइप के ज़रिए समझना संभव नहीं है. वे अपने व्यवहार से मीडिया निर्मित स्टीरियोटाइप को निरंतर तोड़ते रहे हैं. इसके कारण अधिसंख्य मुसलमानों में आधुनिक जीवन मूल्यों को पाने और उनका विकास करने की परंपरा देखी जा सकती है. इस हक़ीक़त को अस्वीकार करके यदि एंटी मुसलिम प्रचार अभियान को कोई मानता है और मुसलमानों से नफरत करता है तो हम यही कहेंगे वह मुसलमानों को एकदम नहीं जानता.

इसी तरह के मुसलमानों को आतंकी कहना, उनकी तुलना अलक़ायदा या आईएसआईएस के साथ करना या उनको जेहादी के रुप में प्रचारित करना ग़लत है और संविधान विरोधी है. इस प्रसंग में इस्लाम धर्म के महान विचारक अब्दुल-रजाक को उद्धृत करना समीचीन होगा. उन्होंने ‘इस्लाम एंड रिसोर्स ऑफ पॉलिटिकल रूल’ (1925) में लिखा – ‘इस्लाम किसी शासन विशेष या सत्ता विशेष से परिभाषित नहीं होता और नहीं यह मुसलमानों पर कोई व्यवस्था थोपता है बल्कि वे अपनी सुविधा से जो उचित लगे उस व्यवस्था को मानने और उससे संचालित होने के लिए स्वतंत्र हैं. वह निजी तौर पर बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक अवस्था के अनुसार संगठित होने की स्वतंत्रता देता है. असल बात यह है कि सामाजिक विकास के लिए क्या ज़रूरी है ,वह देखें.’

भारत के मुसलमान बुनियादी तौर पर अन्य देशों के मुसलमानों की तुलना में भिन्न व्यवस्था और माहौल में रहते हैं. यहां लोकतंत्र के अनुरुप उन्होंने अपने चाल, चरित्र और संस्कारों को ढाला है. वे धर्मनिरपेक्षता को मानते हैं और उसका सम्मान करते हैं. लोकतांत्रिक संविधान में धर्म किस तरह आचरण करेगा, यह परिभाषित है और उसका वे पालन करते हैं. वे लोकतंत्र में लागू किए गए धार्मिक सुधारों का भी पालन करते हैं. लोकतंत्र की धुरी है न्याय और समानता का शासन, न कि शरीयत का शासन. इस अर्थ में शरीयत की व्यवस्थाएं मुसलमानों के लिए निजी या प्राइवेट हैं.

रीफा-ए-रफी अल-ताहतावी 19वीं सदी में फ़्रांस गया. उसने इस्लाम और मुसलिम समाज के बीच में बहुत मूल्यवान काम किया. वह मिस्र का महत्वपूर्ण विचारक है. 19वीं सदी में वह मिस्र के सैन्य प्रतिनिधिमंडल के साथ दुभाषिए के रुप में गया था. उसने पश्चिमी समाज के बारे में महत्वपूर्ण काम किया है और पश्चिमी समाज से मुसलमानों का परिचय कराया. बाद में वह मिस्र की सैन्य अकादमी का मुखिया बना. उसने अरबी के आधुनिक व्याकरण का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. उसने लिखा ‘मुसलिम समाज बहुलतावाद और लोकतंत्र का समर्थन करता है. लोकतंत्र की व्यवस्था मुसलमानों को सुरक्षित रखती है क्योंकि मुसलिम समाज में स्वतंत्रता नहीं है.’

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