स्पार्टकस के शहीद होने के बाद
जब लटकाया जा रहा था लैम्पपोस्टों पर
गुलाम विद्रोहियों को
तो आखिरी हिचकी से पहले पूछा था डेविड ने
‘स्पार्टकस हम हार क्यों गए?’
तब से आज तक
वारीनिया ने कई स्पार्टकस को जन्म दिया
उन्हें ‘स्पार्टकस’ की कहानियां सुनाई
ये सभी स्पार्टकस,
इतिहास का रथ आगे ढकेलते हुए
डेविड के प्रश्न का उत्तर भी तलाश रहे थे.
शायद उन्होंने उत्तर खोज भी लिया है…
लेकिन इसी बीच
हम फिर से उसी रोम की तरफ बढ़ रहे हैं
जहां राजा गुलामों को जलाकर
उसकी रोशनी में पार्टियां किया करता था
जिसमें शामिल होते थे
कवि कलाकार सेनापति और कुछ दार्शनिक भी.
स्पार्टकस क्या तुम्हें नहीं लगता
कि अब तुम्हें किताबों से बाहर आ जाना चाहिए ?
डेविड के सवालों का जवाब देना चाहिए ?
यह वक़्त नायकों को
किताब के पन्नों से बाहर लाने का है.
किताबों में उनकी सांस घुट रही है.
इधर समाज में हमारी सांसें घुट रही हैं.
घुटन बढ़ रही है.
और तूफ़ान का कहीं आता पता नहीं है…
पावेल क्या तुम्हारी सांस भी
गोर्की के उपन्यास में अब घुटने लगी है ?
क्या तुम बाहर आना नहीं चाहते ?
आज हम फिर से वहीं पहुंच गए हैं,
जहां ज़ार की पुलिस
कुत्तों की तरह विद्रोहियों के पीछे पड़ी थी.
माफ़ करना मुझे तुम्हारी मां का नाम याद नहीं
लेकिन ज़रूरत तो उनकी भी है
टोकरी में छिपाकर गुप्त पर्चे
मजदूर विद्रोहियों तक कौन पहुंचायेगा ?
आना तो मां को भी साथ लाना.
भगत सिंह क्या तुम्हें नहीं लगता
कि उस वक़्त तुमने अपने को
गिरफ़्तार करवाकर गलती की ?
अब यह गलती मत करना.
अब तुम उस तरह अदालत का
इस्तेमाल नहीं कर पाओगे.
यह आज़ाद भारत है
यहां तुम्हारा ‘इनकाउंटर’ कर दिया जाएगा,
गिरफ़्तारी से पहले ही.
आज़ाद भारत में भी तुम्हें भूमिगत ही रहना पड़ेगा.
हम तुम सबका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.
लेकिन तुम्हारा इंतज़ार हम इसलिए नहीं कर रहे
कि हमारे पास
स्पार्टकस
पावेल
पावेल की मां
या भगतसिंह नहीं हैं.
हम तुम्हारा इंतज़ार इसलिए कर रहे हैं
क्योंकि हमें करनी है गुफ्तगू तुम्हारे साथ,
तुम्हारे सपनों को अपने सपनों में देना है विस्तार.
तुम्हारे कंधे से अपना कंधा रगड़ना है
और उस तूफ़ान का निर्माण करना है
जिसका सपना कभी तुमने देखा था
और जिसके लिए ही तुम्हें लैम्पपोस्टों पर लटकाया गया था…
- मनीष आज़ाद
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