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ये किस्सा मध्ययुग का नहीं, उसी दौर का है जिसमें आप जी रहे हैं

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ये किस्सा मध्ययुग का नहीं, उसी दौर का है जिसमें आप जी रहे हैं

कृष्ण कांत

जुल्म का ये किस्सा मध्ययुग का नहीं, उसी दौर का है जिसमें आप जी रहे हैं. कानपुर देहात का एक मजदूर संतोष कुमार सुबह मजदूरी करने गया था. पत्नी रूबी सामान बेचने बाजार गई थी. घर में बच्चे और एक बूढ़ी मां थी. रूबी का सामान नहीं बिका तो वापस लौट आई. घर पहुंची तो देखा कि उनका घर जमींदोज हो चुका है.

वहां पर कुल तीन मजदूर परिवार 50 सालों से रह रहे थे. घर के नाम पर झोपड़ी थी. सारी झोपड़ियां साफ कर दी गईं. परिवार घर पर नहीं था तो उनके सामान का क्या हुआ ? जिंदगी भर की कमाई करके दस पांच हजार की टूटी फूटी गृहस्थी बसाई होगी, सब बंटाधार हो गया. उनका आरोप है कि कोई नोटिस नहीं दिया, न पहले से बताया. संतोष कुमार की एक बुजुर्ग मां और एक विकलांग बेटा है. अब ये परिवार खुले आसमान की नीचे रहेंगे.

नेता तो अपनी मां के साथ सुविधानुसार फोटो खिंचवा कर रिलीज कर देते हैं, लेकिन संतोष कुमार को यह राजरोग हासिल नहीं है. वह तो गरीबी काट रहा है. उसे तो अपनी मां को छत और रोटी देने की ललक रही होगी. जो था उसे छीन लिया गया और यह क्रूरतापूर्ण काम सरकार ने किया.

मुख्यमंत्री कह चुके हैं कि किसी गरीब को नहीं सताया जाएगा. लेकिन उनके कहने से क्या होता है ? जब आपने तय कर लिया है कि प्रदेश कानून के शासन से नहीं, बुलडोजर से चलेगा तो अधिकारियों को मानव विवेक की चिंता क्यों होने लगी ? अगर 50 साल की झोपड़ी अतिक्रमण है तो भी वे यह काम थोड़ी मानवीयता से कर सकते थे, लेकिन नहीं किया. एक गरीब के घर पर बुलडोजर चलवा दिया.

क्या किसी अमीर के साथ ऐसा होगा कि काम ढूंढने जाए और रात को घर लौटे तो घर तबाह मिले ? नहीं होगा. सुना है कि दिल्ली में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने भी सरकारी जमीन कब्जा कर रखी है, उन पर तो बुलडोजर नहीं चला.

संतोष कुमार ने पूछा है कि मेरी बूढ़ी मां और विकलांग बेटा कहां रहेंगे ? सरकार हमें घर दे नहीं तो हम आत्महत्या कर लेंगे. अगर मैं होता तो संतोष कुमार को समझाता कि बहुत से युवा रोजगार न मिलने से निराश होकर आत्महत्या कर चुके हैं. यह सरकार मौतों से नहीं पसीजती. तुम इनके लिए नहीं मर सकते. तुम अगर मर भी गए तो ये साबित कर देंगे कि तुम प्राकृतिक मौत मर गए. जो लोग 47 लाख मौतें छुपा गए और झूठ बोलते रहे, अपनी तारीफ करते रहे, वे मौतों से विचलित नहीं होते. प्रशासक अगर क्रूर हो जाए तो जनता को एकजुट होकर उसे उखाड़कर फेंकना पड़ता है.

आज बुलडोजर के जरिये मीडिया फुटेज और हेडलाइन बटोरने के चक्कर में गरीब जनता को रौंदा जा रहा है. आजादी के बाद ऐसा जुल्म कभी सुनने में नहीं आया था. आप अमीर हों या गरीब, किसी तंत्र में अगर कानून का शासन खतम हो गया तो कोई सुरक्षित नहीं है. किसी दिन संतोष कुमार की तरह आप भी आंख में आंसू भरे अपने घर का मलबा निहार रहे होंगे.

दिल्ली में बार-बार करते दंगाइयों को पहचानिए

‘जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के अनधिकृत जुलूस को रोकने में दिल्ली पुलिस पूरी तरह नाकाम रही. ऐसा लगता है कि स्थानीय पुलिस शुरुआत में ही इस अवैध जुलूस को रोकने तथा भीड़ को तितर-बितर करने के बजाय उसके साथ रही. बाद में दो समुदायों के बीच दंगे हुए. राज्य का यह स्वीकार करना सही है कि गुजर रहा अंतिम जुलूस गैरकानूनी था (जिस दौरान दंगे हुए) और इसके लिए पुलिस से पूर्व अनुमति नहीं ली गयी थी.

‘पूरे घटनाक्रम, दंगे रोकने तथा कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने में स्थानीय प्रशासन की भूमिका की जांच किए जाने की आवश्यकता है. लगता है कि इस मुद्दे को वरिष्ठ अधिकारियों ने पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है. अगर पुलिसकर्मियों की मिलीभगत थी, तो इसकी जांच करके संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी कोई घटना न हो.’

रोहिणी कोर्ट की यह टिप्पणी बेहद गंभीर है. पुलिस दंगा रोकने की जगह दंगाइयों का साथ दे रही थी. इसके पहले जब दिल्ली में दंगा हुआ था, तब भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे थे. दिल्ली पुलिस को हर सुनवाई में डांट खानी पड़ी. अंतत: हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि जिसके भाषण के बाद यह दंगा हुआ, उस पर कार्रवाई की जाए तो जज का ट्रांसफर कर दिया गया.

यह मसला बेहद गंभीर इसलिए है ​क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है. दिल्ली की पुलिस बेहद पेशेवर और कुशल रही है. यह सीधे देश के गृहमंत्री के नियंत्रण में होती है. दो दो बार दंगों में पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में कैसे आई ? जाहिर है कि पुलिस पर कोई ऐसा करने का दबाव डालता होगा. गृहमंत्री के नियंत्रण वाली पुलिस पर कौन दबाव डाल सकता है ? कौन है जो इस देश की राजधानी को बार-बार दंगे की आग में झोंकना चाहता है ? ऐसे लोगों को पहचानिए और उनसे सतर्क रहिए. वे देश का भला नहीं चाहते. बहुत खतरनाक लोग हैं.

भाजपा के नफरत का कारोबार में मरते हिन्दू

गुजरात में लाउडस्पीकर पर माता का भजन चलाने के लिए पड़ोसियों ने एक व्यक्ति की जान ले ली. मामला मेहसाणा जिले का है. यहां के मुंदरडा निवासी अजीतजी ठाकोर अपने छोटे भाई जसवंतजी ठाकोर के साथ घर के कंपाउंड में बने मंदिर में दीया जला रहे थे. याद रखें कि वे अपने घर के मंदिर में थे. पूजा के बाद उन्होंने लाउडस्पीकर पर भजन चला दिए.

इतने में उनके पड़ोसी सदाजी ठाकोर वहां पहुंचा ​और उन्हें लाउडस्पीकर बजाने के लिए टोका. इस पर अजीतजी ने कहा कि भाई, शाम का समय है. दीया जलाया है, भजन तो बजेगा. थोड़ी कहा-सुनी के बाद सदाजी वहां से चला गया. कुछ देर बाद वह छह लोगों के साथ आया और दोनों भाइयों को रॉड और डंडों से पीटा. उनकी मां ने पुलिस बुलाई. पुलिस दोनों भाइयों के अस्पताल ले गई. अजीतजी ठाकोर बच गए. जसवंतजी ठाकोर नहीं बचे.

यहां दोनों पक्ष हिंदू हैं. दोनों पड़ोसी हैं. कोई सुबह शाम थोड़ी देर भजन बजा ले, इसमें क्या बुराई है, अगर कोई बीमार न हो, या किसी को कोई खास दिक्कत न हो ? यह सब तब से होता आया है जब से लाउडस्पीकर चलन में आया होगा. हम लोग मंदिरों में बजते भजन और मस्जिदों में अजान सुनकर बड़े हुए हैं. अगर कोई अतिरिक्त शोर शराबा न हो तो यह बुरा लगने वाली बात नहीं है, लेकिन अब इसके लिए लोग आपस में लड़ने लगे हैं.

सरकार चाहती है कि हिंदू और मुसलमान लड़ें लेकिन असल में ऐसा नहीं होगा जैसा सरकार चाहती है. समाज में रहने वाले इंसान कोई यंत्र नहीं हैं. हर विचार की तरह लोग नफरत को भी अपने अपने हिसाब से ग्रहण करते हैं. जिसे आप किसी एक से नफरत करना सिखाएंगे, वह हर किसी से नफरत ​करेगा. भाजपा की नफरत ने सिर्फ अजान नहीं बंद कराई, इससे पूजा, भजन, कीर्तन, जागरण और राम​चरित पाठ भी प्रभावित हुआ है.

यह पड़ोसी के घर में आग लगाने के लिए अपना घर फूंक देने जैसा परपीड़ा सुख है, जो मूलत: पागलपन है. अब्दुल को टाइट करने के चक्कर में हिंदुओं का तगड़ा चूतिया कट रहा है.

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