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विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस और मैं

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kanak tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

आज 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है. आज ही के दिन मेरा एक लेख एक ऐसे समाचार पत्र में नहीं छपा, जहां मेरा काॅलम हर सप्ताह छपता है, अब उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया है. मेरा लेख इस मुद्दे पर था कि मध्यप्रदेश, दिल्ली एवं अन्य प्रदेशों में सरकारें बुलडोजर का आतंक पैदा करके नियमों के विरुद्ध और अपनी हेकड़ी में गरीबों तक की झोपड़ियां और दूकानें जमींदोज़ कर रही हैं. सुप्रीम कोर्ट तक को बार-बार सरकारों के खिलाफ स्थगन देना पड़ रहा है, फिर भी सरकारों की मोटी चमड़ी पर कोई असर पड़ ही नहीं रहा है.

काॅलेज की प्राध्यापकी 1971 में छोड़ने के बाद मैंने वकालत के साथ साथ पत्रकारिता जमीनी स्तर पर शुरू की. सीखना और अनुभव करना चाहता था कि जीवन क्या है. आज जो उन्हीं अखबारों के संबधित पत्रकार हैं, उनसे नए संदर्भों में सीखना पड़ता है कि मालिक और हुक्काम की गुलामी करके रोबदार पत्रकार कैसे बनते हैं. हमने तो कमबख्त यही नहीं सीखा था. बीस रुपये महीने में ‘पीटीआई’ जैसी समाचार एजेंसी के संवाददाता बने.

सौ रुपये महीने में ‘नवभारत’ के, पचास रुपये महीने में ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘नागपुर टाइम्स’ के और इतने में ही संघ-जनसंघ के मुख्य पत्र अंगरेज़ी ‘मदरलैंड’ के. समाजवादी जाॅर्ज फर्नांडीस के अखबार पाक्षिक ‘प्रतिपक्ष’ के बिना किसी फीस के. इसके अतिरक्त इंदौर के ‘स्वदेश’ और अंगरेजी के ‘फ्री प्रेस’ में भी लगातार डिस्पैच भेजते छपते रहे. बाद में भी ‘जनसत्ता’ में कई लेख छपे और कई अखबारों में भी मांगकर या उलाहना भी देकर.

तब इतनी बदहाली, बदगुमानी या बदनीयती के दिन नहीं थे. ‘हरिभूमि’ में मैं बारह साल से ज्यादा समय से लगातार काॅलम में छप रहा हूं. वहां भी मोदी और भाजपा के खिलाफ कई लेख प्रकाशित हुए. ‘जनसत्ता’ में प्रभाष जोशी और ओम थानवी के वक्त पूरी आज़ादी रही. पत्रकारिता की शुरुआत रायपुर के ‘नवभारत’ से की है लेकिन आज वहां इतनी बदहाली है कि वह अखबार नीचे की तरफ उसी तरह मुखातिब है, जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने करम के कारण. साहित्यिक पत्रकारिता भी काफी की है. अंगरेजी में भी कलाओं पर टिप्पणियां की हैं. बाजार का सबसे तेज अखबार हिन्दी की हत्या कर रहा है, इसके बाद भी उसकी मूंछों पर ताव देखा जा सकता है.

पूरा मीडिया बिक गया है. निजाम के चरणों में बिछ गया है. जब कोई अकड़ से आकर मिलता है कि मैं पत्रकार हूं, मीडिया मैन हूं, तो उसकी खस्ता हालत देखकर कहने को मन होता ‘भाई, कितने भी चिकने चुपडे़ हो, तुम्हारी आत्मा को तो दीमक ने खा लिया है. वह दीमक केन्द्रीय निजाम से गलबहियां करते देश को खोखला कर रहा है. तुम तो खुद उसकी एक छोटी सी दीमक हो.’

मित्र विनोद दुआ पिछले साल चले गए. युवा मित्र रवीश कुमार सजग हैं. अजीत अंजुम भी. उर्मिलेश भी. अभिसार शर्मा भी. पुण्य प्रसून वाजपेयी भी. सिद्धार्थ वर्दराजन भी. करण थापर भी. आरफा खानम रवानी भी. राणा अयूब भी. अभय कुमार दुबे भी. कलकत्ता का ‘टेलीग्राफ’ भी. चेन्नई मुख्यालय से निकलता बहुसंस्करणीय ‘हिन्दू’ भी और भी बहुत कुछ.

आज के कलमवीरों को यह जानना ज़रूरी है कि 26 मई 1950 को सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले दो महत्वपूर्ण फैसले उनके पक्ष में अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर किए हैं. पहला रमेश थापर की याचिका पर जब तत्कालीन मद्रास सरकार उनके पत्र ‘क्राॅसरोड’ को राज्य में आने से रोक रही थी. दूसरी याचिका ‘आर्गनाइज़र’ के संपादक के. आर. मलकानी ने की जिसमें ‘आर्गनाइज़र’ के लेखों को प्री सेंसर के बाद ही छापने के सरकार के आदेश थे. आज के डरे हुए और सरकारपरस्त मीडियाकर्मी अपने पूर्वजों का इतिहास अगर पढ़ेंगे तो उन्हें बहुत तकलीफ होगी.

भारतीय मीडिया आईना देखो !

हाल के वर्षों में मीडिया में बेहद गिरावट आई है. संवाददाता के स्तर पर कम, मालिकों और सम्पादन के स्तर पर बहुत ज़्यादा. पहले विज्ञापन लेना और अनुकूल समाचार छापना गणित का पारस्परिक समीकरण था. अब संवाददाता और संपादक की विज्ञापनकबाड़ू इच्छाधारी भूमिका ही नहीं रही. महाप्रबंधक सीधे चुनावी उम्मीदवारों, उद्योगपतियों और नौकरशाहों वगैरह से थोक डील करते हैं. टाइप किए बल्कि बताए गए समाचार संवाददाताओं के मत्थे कलंक की तरह मढ़ दिए जाते हैं.

जिन पार्टियों और उम्मीदवारों के जीतने की गारंटीशुदा भविष्यवाणियां की जाती हैं, वे औंधे मुंह या चारों खाने चित भी होते हैं. संबंधित मीडिया अपनी मिथ्या रिपोर्टिंग के लिए खेद तक प्रकट नहीं करता. अगले दिन से ही वैकल्पिक विजयी पार्टियों और उम्मीदवारों का खैरख्वाह बन जाता है. अखबार या टेलीविजन चैनल चलाने की आड़ में खदानों की लीज और कारखानों के अनुबंध बांट जोहते हैं. मुख्य काम तिजारत है. ब्याज के रूप में मीडिया का उद्योग भी हो जाता है.

उद्योग दिनदूनी रात चौगनी गति से आगे बढ़ते हैं. सरकारी विभाग उन पर हाथ नहीं डाल सकते. काजल की कोठरी में सब कुछ काला होता है. सी.बी.आई, इन्कम टैक्स, सेन्ट्रल एक्साइज, प्रवर्तन निदेशालय और पुलिस वगैरह दांत और विष निकालकर ताकतवर प्रेस के सामने खींसे निपोरते हैं.

अब तो पैकेज डील होता है. कुछ मुख्यमंत्री देश में अपनी ही तिकड़म से प्रेस में नंबर एक बना दिए जाते हैं. सच्चे आलोचकों और अन्य व्यक्तियों की चरित्र हत्या या चरित्र दुर्घटना कराई जाती है. अमेरिका और यूरोप की शोषक संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है. इलेक्ट्राॅनिक मीडिया स्टंट फिल्मों की नस्ल के समाचार ज्यादा दिखाता है. मीडिया में त्रासदी, हास्य प्रहसन और धारावाहिक सड़ी गली खबरों का एक साथ मलखंब होता रहता है.

किसानों, पीड़ित महिलाओं, शोषित बच्चों, बहादुर सैनिकों, चरित्रवान वरिष्ठ नागरिकों, निस्वार्थ स्वयंसेवी संस्थाओं और प्रचार तथा निंदा से विरत समाजसेवकों को प्रकाशन के लायक नहीं समझा जाता. समाचार पत्रों को पढ़ने और दूरदर्शन के चैनलों को देखने पर चटखारे लेकर चाट खाने का मजा भी आता है. वह अब समाज का सुपाच्य और विटामिनयुक्त भोजन नहीं रहा.

सत्रहवीं सदी के इंग्लैंड से लेकर बीसवीं सदी के मध्य काल के भारत में साहित्य और पत्रकारिता की धूमिल दूरियां खत्म हो गई थीं. अज्ञेय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, नरेश मेहता, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, विष्णु खरे, हरिवंश, मंगलेश डबराल जैसे बीसियों लेखकों की रोजी रोटी पत्रकारिता से भी चली आती रही है. उन्होंने नैतिकता के नमक का महत्व समझा है. चेलापति राव, फ्रैंक मोरेस, खुशवंत सिंह, कुलदीप नैय्यर, एन.जे. नानपोरिया, बी.जी. वर्गीस, शामलाल वगैरह का जमाना लद गया है.

तो भी ये पत्रकारिता इसलिए समाज इसलिए समय के आसमान पर सितारों की तरह टंके रहेंगे. मीडिया परिवार बहरों की तरह भी आचरण कर लेता है जिनके कानों पर सुनने की मशीन बिना बैटरी की लगी होती है. वे दूसरों को बहरा समझ कर इलेक्ट्रानिक चैनलों पर जोर-जोर से बोलते हैं. लोग उनके बहरेपन तथा वाचालता के भोंडेपन पर अलबत्ता मुस्कराते हैं.

मीडिया का नैतिक जीवन अधमरा से भी बुरा है. उसकी पीठ पर कारपोरेटियों का हाथ और ज़मीर में उनकी गुलामी की शमशीर घुसी है. मीडिया लहुलुहान है. उसे बदनामी के जंगलों में छोड़ दिया गया है. घना अंधेरा होने पर आत्मालोकित कुछ जुगनू कभी कभार उसकी सोच में दमकते हैं. उतने से ही कुछ लोग रास्ता ढूंढ़ रहे हैं. पत्रकारिता ने अंगरेजों के जुल्म सहे, संपादक, संवाददाता, प्रकाशक, हाॅकर भी जेल गए, अखबार बंद हुए, संपत्तियां बिकीं लेकिन चरित्र के चक्रवृद्धि ब्याज से पत्रकारिता फिर भी उजली और साहसी होती रही.

आज़ादी के बाद दुुनिया बाजार बना दी गई है. राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, बुद्धिजीवी, युवा, मध्यवर्ग सब आतुर होकर एक साथ बिक रह़े हैं. बाजार से गुजरता काॅरपोरेटी देश की अर्थव्यवस्था और सियासत के बाद मीडिया का भी खरीदार है. मूंछों पर ताव देता, अट्टहास करता नैतिक मूल्यों का बलात्कार बेशर्मी से कर लेता है. गरीबों की जेब तक की डकैती कर रहा है. उसके खिलाफ जनविरोध तो क्या फरियाद करने की भी सरकारी इजाजत नहीं है. सुरक्षाबल तो अम्बानियों, अदानियों, टाटाओं, रुइयाओं, वेदांताओं, माल्याओं की दौलत के भी हिफाजतदार हैं. लोकतंत्र में मंत्री, अफसर, बैंक, पोलिस, जांच एजेंसियां आत्महीनता में हुक्म की तामील करने में हैं.

झूठ, अफवाह, किवदंती, चरित्रहनन, खुशामदखोरी, ब्लैकआउट, पेड न्यूज, गिरोहबंदी, धड़ेबाजी वगैरह कारपोरेटी मीडिया के समयसिद्ध नये हथियार हैं. हाॅलीवुड और बाॅलीवुड जैसे ठनगन वाला मीडिया वैभव की दुनिया के चंडूलखाने में साकी बनने को मीडिया कर्म मानता है. मीडियाकर्मी के हाथ में कलम नहीं है बल्कि मालिक की स्याही उसके चरित्र के चेहरे पर मल दी गई है. कम्प्यूटर, इंटरनेट और गूगल से उगते विचार आज प्रकाशन में लीप देता है. कहीं जाता नहीं है, बैठे बैठे पूरी दुनिया मुट्ठी में करता रहता है.

खबरनवीस नहीं रहा, कैमरानवीस हो गया है. पहले कुरते पाजामे में लदा फंदा कंधे पर थैला लटकाए होता था. उसमें स्टेशनरी, डायरी और खाने-पीने का सामान भी हो सकता था. अब आलीशान एयरकंडीशन्ड न्यूजवैन में चलता है. साथ में कैमरामैन, लाइट साउंड के सहायक और कुछ बाहरी दलाल भी होते हैं. शराब, कबाब, माल असबाब, रुआब, आदाब जैसे शब्द उसका जीवन शादाब लिखते हैं.

महाभारत के संजय का अवतार लगता सत्ता के कौरव दरबार का गोदी मीडिया अपना चरित्र बेचता रहता है. देश में जिंदगियां दम तोड़ रही हों, किसान आत्महत्या कर रहे हों, बहुएं जलाई जा रही हों, कैंसर मरीज मर रहे हों, मजदूर लतियाए जा रहे हों. मीडियाकर्मी सात पांच, सितारा होटलों से ही नयनाभिराम दृश्य परोसता रहता है. इलेक्ट्राॅनिक मीडिया जनता को मृगतृष्णा में डुबोकर सेठिया हुक्मनामे की जी-हुजूरी करता चरित्रवान लोगों के खिलाफ मिर्च मसालेनुमा शब्दों का तड़का लगाकर खबर चटपटी और स्वादिष्ट बनाता है.

खबर जनता के ज़ेहन में पहुंचकर मिलावट और जहरखुरानी के कारण स्वास्थ्य बरबाद करती है. मीडिया पूरा काम बेशर्मी लादकर अभियुक्त चरित्र में करता है. फिर भी चेहरे पर शिकन नहीं पड़ती. जींस, टी शर्ट, बढ़ी हुई दाढ़ी, हवाई यात्रा, महंगे जूते, चुनिंदा शराब, सितारा होटल वगैरह यक्ष यक्षिणी होते हैं. पहले इतिहास में शायद विष कन्याएं और विष पुत्र पीढ़ी दर पीढ़ी होते थे. अब वे फीकी यादें नहीं पुनर्वासित हैं.

मीडिया झूठ लिखता है कि देश में तरक्की हो रही है. किताबी, अकादेमिक, फलसफाई, झूठी, हवाई, अनसुलझी, संशयग्रस्त, विवादास्पद नस्ल की तरक्कियां हो रही हैं. वक्त के कड़ाह में जनता उबल रही है. उसके उबलने पर भी उसकी मेहनत की मलाई काॅरपोरेटिये गड़प कर रहे हैं.

मीडिया के मुताबिक वही देश की तरक्की है. खुरचन के ग्राहक नेता, मीडिया और नौकरशाह होते हैं. छाछ बोतलों में बंद कर महंगी दरों पर जनता को ही बेची जाती है. धर्मप्राण जनता को पस्तहिम्मत बनाने मलाई का कुछ हिस्सा बाबाओं, संतों, मुल्लाओं, पादरियों, शंकराचार्यों, मौलवियों, साध्वियों और हिंदू मुस्लिम कुनबापरस्ती के दलालों को चढ़ाकर धर्म का घी बनाने आर्डर दिया जाता है.

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