कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
इंसानी नागरिकता के लिहाज से भारत इतिहास के सबसे सड़ांध भरे दौर में घसीटा जा रहा है. कम से कम दो हजार वर्षों से पूरी दुनिया उम्मीद भरी नज़रें भारत पर ही टिकाए रही है. भारत में सभी प्रमुख धर्म हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, लाओत्से, कन्फ्युशियस और न जाने और कितने मजहबी विश्वास पनाह पाते रहे. मनुष्य को आत्मा के साथ जीने का शऊर सीखते रहे हैं. अलबत्ता हिन्दुस्तान युद्ध, मिलिटरी, हिंसा और साम्राज्यवादी फैलाव के वहशी इरादों से बेरुख रहा. इस कमज़ोरी के कारण उस पर दुनिया की सभी सभ्यताओं और देशों ने लगातार हमलावर होकर हुकूमत भी की.
मुगल, पठान, तुर्क, हूण, पुर्तगाली, अंगरेज, फ्रांसीसी (और अब अमेरिकी) हिन्दुस्तान की छाती पर एक के बाद एक मूंग दलते रहे. शायद मुगल वंश पहला और अकेला हो जो हमलावर होकर आया लेकिन न तो वापस चला गया, न तिजारतजदां रहा और न उसने खुद को पर्यटक विदेशी समझा. उसने भारत के समाज, संस्कृति, सोच, दर्शन, इतिहास और अहसास को अपने अस्तित्व में उसके बरक्स जज्ब कर लिया. नज़ला होने के बावजूद कुछ लोगों को केवल दुर्गंध सूंघते रहने की हविश कम नहीं होती इसलिए ऐसे लोग आज मरी हुई घटनाओं, परम्पराओं, दकियानूसियों, रूढ़ियों से चिपटे हुए समाज की धड़कनों का आक्सीजन लेवल घटाते रहते हैं.
इसमें विवाद नहीं कि औसत दुनिया की हिन्दू अपनी सोच, समझ और व्यवहार में धार्मिक आचरण का होता है. नेहरू और अंबेडकर दो सबसे बडे़ संविधान नियंता हैं. उन्होंने पश्चिमी नस्ल के ‘सेक्युलरिज़्म‘ को संविधानोत्तर भारत के समाज का शऊर बनाने समीकरण रचे. शऊर तो दिमाग से उपजता है. सामाजिक व्यवहार में लेकिन सियासी नहीं रूहानी नस्ल का तेवर मुखर रहा है. ईश्वर से मुक्त हो जाकर पश्चिमी परिभाषा वाला सेेक्युलर होना औसत बुद्धि के भारतीय के लिए मुफीद नहीं होता.
इसी तरह विवेकानन्द ने यह बात कही थी कि निजी जीवन में धार्मिक रहो और साामजिक जीवन में सेक्युलर हो, अर्थात् आस्तिक सेक्युलर बनो. पंडितों, पुरोहितों, मुल्लाओं, पादरियों की षड़यंत्रकारी बुद्धि ने उसके बरक्स धर्म को बाजारू चलन का उत्पाद बना दिया है इसलिए धर्म के आचरण तक का मोल भाव होता है. लोक संस्कृति लेकिन सामाजिक आदतों और तहजीब के आयाम में धार्मिक अस्तित्व में रच बसकर ढल गई है.
ऐसी सामाजिक और ऐतिहासिक कथाएं मसलन राम के चरित्र से उनके अवतारवादी ईश्वरीय अंश को अलग कर उनमें लोकतंत्रीय सुगंध और अनुगूंज ढूंढ़ती है. धरती पुत्र राम को इस बात का श्रेय हासिल है कि हर हिन्दू की आखिरी यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ का ही समवेत समर्थन गूंजता रहता है. इसी तरह हनुमान का चरित्र नपुंसकता, कमजो़री, पराजय और भय के बदले वीरता या साहस भरने का प्रतीक या प्रवक्ता है. हालिया ‘जयश्रीराम’ का नारा कमज़ोर के खिलाफ बलवान की, दलितों के खिलाफ सवर्ण की, गरीबों के खिलाफ श्रीमंतों की हिंसा का हथियार बनाया जा रहा है और फिर अन्य धर्मों के खिलाफ भी उसे लाउडस्पीकर की धमनियों में भरा जा रहा है.
भारत में पहली बार जनता के प्रतिनिधियों ने एक साथ बैठकर 300 हस्ताक्षरों में भविष्य के लिए संविधान लिखा. अपने आईन में मजहब, संस्कृति, मनुष्यता, पंथनिरपेक्षता और सामासिक समाज की व्याख्या तय की. यह धरती पर लेकिन पहला अजूबा हुआ कि देश के 80 प्रतिशत बहुसंख्यक दूसरे मजहब के फकत 15 प्रतिशत से डरने का सामूहिक ऐलान हमलावर मुद्रा में करते हैं फिर ऐसी विचारधारा को सरकार में चुनते हैं, जो ऐसा डर सरकारी हिंसा से सम्पृक्त कर देश के भविष्य को विकृत करे.
संविधान समझाता है तो उसका मजा़क उड़ाते हैं. उसकी हेठी तक करने लगते हैं. महान हिन्दू कौम ने दुनिया को इंसानियत, रूहानियत, सद्भाव और सहिष्णुता के मानक पाठ सबसे पहले और सबसे ज्यादा पढ़ाए हैं. कुछ लोग हिन्दू होने का नकाब अपने चेहरे पर चस्पा कर महान जनवादी राम को अपने वोट बैंक का प्रचारक बनाते हैं. हनुमान की सेवा भावना और वीरता को कमजोर को डराने शगल करते हैं.
यह भी सिक्के के दूसरे पहलू का सच है कि जो 15 प्रतिशत हैं. उन अल्पसंख्यकों में भी अपराधी नस्ल के कूढ़मगज हैं, कठमुल्ला तत्व हैं. वे स्त्रियों को बांदी बनाकर रखने को मर्दानगी कहते हैं. तीन तलाक को खुदा की इबादत समझाते हैं. मदरसों तक में बच्चों में जहर और जिहाद भरते हैं. इंसानी जिंदगी जीने देने में भी उन्हें कोफ़्त होती रहती है. उन्हें इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि पंद्रह सोलह प्रतिशत की आबादी वालों के कितने संसद और विधानसभाओं में हैं ? कितने आईएएस और आईपीएस जैसी नौकरियों में हैं ? कितने उद्योगपति हैं ? राष्ट्रीय जीवन में कला, संगीत, फिल्म, दस्तकारी, खानपान वगैरह में नायाब प्रतिभागिता के बावजूद सामासिक संस्कृति के बनाने में उनसे भी कुछ हुल्लड़बाजों के कारण चूक क्यों हो रही है ?
ऐसा संकट भरा भारत बहुत दिनों तक अपने अतीत का सर्वकालिक फलसफा कैसे बांचेगा जिसका संदेश पूरी दुनिया पढ़कर उसे अपने सरमाथे लगाते रही है ? भारत जैसा पतन इतिहास में किस देश का हुआ है ? महंगाई के कारण जीना मुश्किल हो रहा है. करोड़ों नौजवान बेरोजगार होकर निठल्ले घूमते व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में पढ़ते अश्लील, कुंठित, अपराधी हरकतें कर रहे हैं. गरीब घरों के अधपढ़े या डिक्रीधारी नौजवान बच्चों का खून पाखंडी नेता उन्हें बेरोजगार बनाकर चूस रहे हैं. उसके बदले उनकी देह में हिंसा, नफरत, लफंगई और गुंडई का तेजाब भर रहे हैं.
नेताओं के बच्चे तो आक्सफोर्ड, हारवर्ड या कम से कम आईआईटी, आईआईएम वगैरह में दाखिल हैं. भारतीय निम्न मध्य वर्ग के युवजन बददिमागी की हालत में धकेले जाकर उन्हें मनुष्य से पशु बनाए जाने का खतरनाक अमानवीकृत अभियान चलाया जा रहा है. सरकारें लोगों को तबाह कर रही हैं. सरगना प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, अफसरों, काॅरपोरेटियों की चेहरे की चाशनी बढ़ रही है, लेकिन शरीर का नमक घट रहा है.
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