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राजद्रोह कानून स्वतंत्रता को कुचलने की धाराओं में राजकुमार की तरह – गांधी

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चीफ जस्टिस साहब ! सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही पर मेरी नज़र है. आपने वादा किया है कि 5 मई को संविधान पीठ राजद्रोह को हटाने के मामले में अंतिम बहस सुनेगी. पेशी नहीं देगी सरकार को. बहुत-बहुत अग्रिम शुभकामनाएं अगर ऐसा हो गया. हमारी नज़र सुप्रीम कोर्ट पर रहना चाहिए जहां 5 मई को चीफ जस्टिस के अनुसार राजद्रोह के मामले में अंतिम सुनवाई होगी. पेशी नहीं दी जाएगी सरकार को. देखें क्या होता है.

राजद्रोह कानून स्वतंत्रता को कुचलने की धाराओं में राजकुमार की तरह - गांधी
राजद्रोह कानून स्वतंत्रता को कुचलने की धाराओं में राजकुमार की तरह – गांधी
kanak tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकल रहा है. देशद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्द तो भारतीय दंड संहिता में हैं ही नहीं. धारा 124-क के अनुसार-जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का, प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा. स्पष्टीकरण 1-अप्रीति पद के अंतर्गत अभक्ति और शत्रुता की समस्त भावनाएं आती हैं.

1850 में ब्रिटिश संसद में रचित भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया. राजद्रोह 1870 में संशोधित भी हुआ. लोकमान्य तिलक पर 1897 में राजद्रोह का मुकदमा चला. परिभाषा के कच्चेपन के कारण 1898 में उन्हें छोड़ दिया गया. 1898 में परिभाषा संशोधित हुई. तिलक को 1908 में राजद्रोह के लिए 6 वर्ष काला पानी की सजा दी गई.

स्वतंत्रता को कुचलने की धाराओं में राजकुमार की तरह

1922 में राजद्रोह का अपराध चलाने पर गांधी ने व्यंग्य में जज से कहा – यह अंगरेजी कानून जनता की स्वतंत्रता को कुचलने की धाराओं में राजकुमार की तरह है. गांधी को भी छह वर्ष की सजा दी गई थी. संविधान सभा के ड्राफ्ट में अभिव्यक्ति की आजादी पर राजद्रोह का प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया गया. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने तर्कपूर्ण भाषण में राजद्रोह शब्द रखने का कड़ा विरोध किया.

डेढ़ सौ वर्ष पहले इंग्लैंड में सभा करना या जुलूस निकालना तक राजद्रोह समझा जाता था. ब्रिटिश काल में भारत में एक कलेक्टर की आलोचना करने पर राजद्रोह का अपराध बनाया गया. महबूबअली बेगसाहब बहादुर ने कहा इसी कारण हिटलर जर्मनी के विधानमंडल द्वारा बनाए हुए कानूनों के अधीन बिना मुकदमा चलाए हुए जर्मनों को बंदी शिविरों में रख सकता था. सेठ गोविन्ददास ने राजद्रोह को संविधान से उखाड़ फेंकने की मांग की.

रोहिणी कुमार चौधरी ने कहा यह अभागा शब्द देश में कई परेशानियों का सबब रहा है. इसके कारण आज़ादी मिलने में भी देर हुई. टी.टी. कृष्णमाचारी ने बताया अमेरिका में कुछ समय के लिए इस तरह के प्रावधान थे लेकिन इसके प्रति विश्वव्यापी घृणा फैल गई. 1951 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस शब्द को हटाने की पुरजोर दलील दी, फिर भी यह भारतीय दंड संहिता में कायम रह गया.

राजद्रोह कानून आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे

2010 में कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट को कश्मीरी असंतोष को प्रश्न पत्र में शामिल करने, टाइम्स आफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई को पुलिस तथा माफिया की सांठगांठ का आरोप लगाने, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले को कथित माओवादी से कम्प्यूटर प्राप्त करने, डाॅक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, उड़ीसा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको द्वारा यह कहने कि श्रीलंका में युद्ध नहीं रुका तो भारत एक नहीं रह पाएगा और पर्यावरणविद पीयूष सेठिया द्वारा तमिलनाडु में सलवा जुडूम का विरोध करने वाले परचे बांटने जैसे कारणों से राजद्रोह का अपराध चस्पा किया गया.

उच्चतम न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में सिद्धांत स्थिर किया कि किसी कानून में इतनी अस्पष्टता हो कि निर्दोष लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सके तो ऐसा कानून असंवैधानिक है. राजद्रोह के लिए मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है. इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस कानून की उपयोगिता नहीं है. राजद्रोह को आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे के रूप में रखे जाने का संवैधानिक औचित्य भी नहीं है.

धरती पर क्यों आए हुजूर ?

मशहूर पत्रकार विनोद दुआ को इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर उनके एक प्रसारण के लिए हिमाचल प्रदेश की पुलिस ने किसी भाजपा कार्यकर्ता की शिकायत पर प्रथम सूचना पत्र दायर कर अपराध अंतर्गत धारा 124 (क), 268, 505 और 501 भारतीय दंड संहिता के तहत दर्ज कर लिया है. इसके कुछ पहले दिल्ली पुलिस ने भी एक दूसरे प्रसारण को लेकर एक दूसरे भाजपा कार्यकर्ता की शिकायत पर विनोद दुआ के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज किया था. उस पर दिल्ली हाईकोर्ट ने आगे की कार्यवाही पर कुछ प्रतिकूल मौखिक टिप्पणी करते हुए भी पुलिसिया अग्रिम कार्यवाही पर स्थगन दे दिया है.

विनोद दुआ के खिलाफ नवीन कुमार नामक भाजपा कार्यकर्ता ने दिल्ली में एक कथित अपराधिक नाम पर पुलिस थाने में प्रथम सूचना पत्र दर्ज कराया. विनोद दुआ एक अरसे से पत्रकारिता करते रहे हैं. वे उस तरह के पत्रकार रहे हैं, कुछ और लोगों के साथ, जो एडमंड बर्क की परिभाषा के अनुसार संविधान की हुकूमत में चौथा खंबा हैं. रवीश कुमार, पुण्यप्रसून बाजपेयी, अभिसार शर्मा, सिद्धार्थ वर्धराजन, अजीत अंजुुम, टेलीग्राफ अखबार और इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू अखबार संकुल, प्रणंजय ठाकुर गुहार्त आदि कई नाम हैं. उनको पढ़ने, सुनने, बूझने में लोकतंत्र की समझ को अच्छा लगता है.

फौजदारी कानून में सरकार शिकायत कुनिंदा है और पूरे का पूरा अवाम पहले आरोपी, फिर अभियुक्त, फिर सजायाफ्ता, फिर अपीलार्थी, फिर बाइज्ज़त बरी, फिर एक हताश अनुभवी और वैराग्य प्राप्त नागरिक. हिन्दुस्तानी फौजदारी कानून की धाराएं मकड़ी का जाल हैं. उनमें जनता को मक्खी समझकर गिरफ्त में लिया जाता है. अंगरेज चले गए. कई औलादें छोड़ गए. उनके जाने के बाद असम, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और कई प्रदेशों में जनअधिकारों को कुचलने के लिए कई विधायन बना दिए गए. हजारों मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने कहा होगा कि शुरुआती मजिस्ट्रेट तो पोस्टमैन की तरह आचरण मत करें. देंखें भी तो पुलिसिया छानबीन की अक्ल से दुश्मनी तो नहीं है.

इंग्लैंड में जन्मे, तिलक तक पहुंचे

राजद्रोह के अपराध का गर्भगृह इंग्लैंड का ‘द ट्रेजन फेलोनी एक्ट‘ काॅमन लाॅ में रहा अपमानजनक लेख वगैरह रहे हैं. भारत में यह अपराध 1892 में ‘बंगबाशी‘ पत्रिका के संपादक जोगेन्द्र चंदर बोस एवं अन्य के खिलाफ अदालती विचारण में आया. उन्होंने अंगरेज़ी हुकूमत के एक विधेयक की आलोचना करते हुए लिखा था कि भारतीयों का जबरन यूरोपीयकरण किया जा रहा है. साथ ही भारतीयों पर कटाक्ष भी किए कि हिन्दू तो विद्रोह करने के काबिल ही नहीं होते इसलिए यह माना गया कि लेख जनविद्रोह भड़काने के उद्देष्य से घुमावदार भाषा में लिखा गया है.

इसे अप्रत्यक्ष संकेत मानते हुए देशद्रोह के अपराध के मामले में चीफ जस्टिस पेथेरम ने अपने फैसले में कहा कि आरोपी की सरकार के खिलाफ अप्रीति या मनमुटाव की भावना साफ झलकती है. यह तो हो सकता है कि कोई किसी दूसरे के कार्य या आचरण को नामंजूर या खारिज करे लेकिन यदि वह ऐसा करते हुए दूसरों के दिमाग और मनोवृृत्ति में सरकार की अथाॅरिटी के खिलाफ हुक्मउदूली या प्रतिरोध या सरकार उलट देने की भावना पैदा करे. इस मक्सद से भी करे कि मौका पड़ने पर अपराध भी हो जाए तो उसका ऐसा फकत इरादा प्रकट करना ही उसे राजद्रोह का अपराधी बना देता है. भले ही उसके बहकावे के कारण कोई जनविद्रोह कारगर या भौतिक रूप में नहीं भी हुआ हो.

अंग्रेजी शब्द ‘डिस्अफेक्षन’ का हिन्दी अर्थ अप्रीति, मनममुटाव, असंतोष या विरक्ति के अर्थ में होता रहता है. उसमें आज्ञा का उल्लंघन या हुक्मउदूली के संकेत स्वयमेव शामिल हो जाते हैं. भले ही उसे प्रकट तौर पर जनसमूह द्वारा प्रदर्षित नहीं किया जाए. बोलने या अभिव्यक्त करने वाले की नीयत सरकार के खिलाफ अप्रीति या मनमुटाव बल्कि नापसंदगी या निन्दा की भावना प्रकट लगती है तो उसे शुरुआत में ही मान लिया जाएगा कि अपराध तो हुआ. अपराध की ऐसी परिभाषा भारतीय अदालतों द्वारा राजद्रोह के मुकदमों में दुहराई जाती रही.

राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मुकदमों में एक के बाद एक तीन बार इस अपराध ने लोकमान्य तिलक को अपने नागपाश में बांधने की कोशिश की. 1859 में तिलक का पहला मामला उनके भाषण और भक्तिपूर्ण भजन गायन को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की स्मृति संबंधी आयोजन में दर्ज हुआ. तिलक ने सीधे शब्दों में किसी जनविद्रोह को भड़काने की बात बिल्कुल नहीं की थी. फिर भी उनकी राष्ट्रीय नस्ल की अभिव्यक्ति को जस्टिस स्टैची ने राजद्रोह की परिभाषा में बांध दिया. जज का यही कहना हुआ कि सरकार के खिलाफ कोई उत्तेजना नहीं भी फैलाई, लेकिन दुश्मनी की भावना को तो भड़काया.

एक अन्य मामले में भी बंबई हाईकोर्ट ने इसी तरह दूसरे व्यक्ति के लिए सजा का ऐलान किया. इस घटना के बाद 1898 में धारा 124 (क) को लागू करने के मकसद से परिभाषा में संशोधन कर उसमें ‘घृणा’ और ‘अवमानना’ शब्द भी जोड़ दिए गए तथा ‘अप्रीति’ शब्द की विस्तारित परिभाषा में अवज्ञा को भी पादबिन्दु में स्पष्टीकरण के जरिए शामिल किया गया. परिभाषा में ‘शत्रुता’ और ‘गैरनिष्ठावान’ होना भी शामिल किया गया.

इसी संशोधन के जरिए दंड संहिता में धारा 153 क और 505 को पहली बार शामिल किया गया. इन संशोधनों पर बहस में तिलक के मुकदमे में बचाव पक्ष के तर्कों पर भी विचार किया गया था. इन आततायी प्रावधानों के कारण अंगरेज सरकार ने राष्ट्रवादी अखबारों पर विशेष उत्साह में बंबई प्रदेश में अपना शिकंजा कसना जारी रखा.

तिलक पर दूसरा मुकदमा 1908 में फिर चस्पा किया गया. बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप मुजफ्फरपुर में अंगरेजी सत्ता के खिलाफ बम कांड हुआ. उस कारण ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए जा रहे अत्याचारों की तिलक ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ के लेखों के जरिए कड़ी आलोचना की. सरकार की दमनकारी हरकतों के कारण प्रतिक्रिया में जनता के साथ हिंसक झड़पें हो रही थी. जज दावर ने तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहराया. कहा कोई भी सरकार के खिलाफ बेईमानी या अनैतिक इरादों से लांछन नहीं लगा सकता. फैसले ने अस्वीकृति और मनमुटाव जैसी मानसिक स्थितियों को ही गड्डमगड्ड कर दिया.

यह राजद्रोह के अपराध का ब्रिटिश हथकंडा था कि उसने आज़ादी की लड़ाई के बड़े सिपहसालारों तिलक, गांधी और एनी बेसेन्ट तक को नहीं बख्शा. 1908 में हुए तिलक के अपराधिक प्रकरण में बचाव पक्ष के वकील मोहम्मद अली जिन्ना की जानदार तकरीर भी किसी काम नहीं आई. तिलक को छह वर्ष के लिए कालापानी की सजा दे ही दी गई. 1897 के तिलक प्रकरण में भी शिवाजी ने अफजल खां को मार दिया जैसे उल्लेख का निहितार्थ अंगरेज ने लगाया कि इन लेखों और भाषणों के कारण ही प्लेग कमिश्नर रैंड और दूसरे ब्रिटिष ऑफिसर लेफ्टिनेंट एहस्र्ट को एक सप्ताह बाद कत्ल कर दिया गया था.

तिलक को सजा हुई. एक वर्ष बाद अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान मैक्स वेबर के हस्तक्षेप के कारण इस शर्त पर छोड़ा गया कि वे सरकार के विरुद्ध घृणा या नफरत फैलाने जैसा कोई कृत्य नहीं करेंगे. हालांकि तिलक ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ राष्ट्रप्रेम की आग को बुझाने के बदले ज़्यादा तेजी से धधकाए रखा था. बंगाल विभाजन की विभीषिका के कारण अंगरेज़ों ने ‘न्यूज़पेपर्स (इनसाइटमेंट टू आफेंसेस)’ ऐक्ट पारित किया. उसमें जिला मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया गया था कि वे आरोप होने पर राजद्रोहात्मक प्रकाशन करने वाले प्रेस की संपत्ति को ही राजसात कर सकते हैं. एक और अधिनियम ‘दि सेडीशस मीडिया ऐक्ट’ भी पारित किया गया. उसके अनुसार बीस लोगों से अधिक एकत्र होने पर उसे अपराध माना जाता.

1916 में उप महानिरीक्षक पुलिस अपराधिक अन्वेशण विभाग, (सीबीआई) जे. एन. गाॅइडर ने पुणे के जिला मजिस्ट्रेट को आवेदन दिया था कि तिलक अपने भाषणों में राजद्रोही भावनाएं भड़का रहे हैं. अधिकारों ने तिलक के तीन भाषणों को प्रस्तुत भी किया. एक भाषण बेलगाम में दिया था और दो अहमदाबाद में. तिलक के वकील मोहम्मद अली जिन्ना ने राजद्रोह संबंधी कानून की बारीकियों को विन्यस्त करते बहस की कि तिलक ने अपने भाषणों में नौकरशाही पर हमला किया है. उसे सरकार की आलोचना नहीं कहा जा सकता और उन्हें सजा देने का कोई तुक नहीं है.

गांधी ने राजद्रोह को आईना दिखाया

सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ. 1922 में गांधी एक सम्पादक के रूप में और समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ के मालिक के रूप में शंकरलाल बैंकर पर तीन आपहित्तजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दोनों के खिलाफ दर्ज हुआ. मामले की सुनवाई में बहुत महत्वपूर्ण राजनेता अदालत में हाजिर रहते थे. पूरे देश में उस मामले को लेकर एक तरह का सरोकार था. जज स्ट्रैंगमैन के सामने गांधी ने तर्क किया कि वे तो साम्राज्य के पक्के भक्त रहे हैं लेकिन अब वे गैर-समझौताशील और असंतुष्ट बल्कि निष्ठाहीन असहयोगी नागरिक हो गए हैं.

ब्रिटिश कानून की अवज्ञा करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है. उन्होंने कहा यह कानून वहशी है. जज चाहें तो उन्हें अधिकतम सजा दे दें. राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है जो नागरिक आजा़दी को कुचलना चाहता है. ब्रिटिश हुकूमत के लिए प्रेम या लगाव मशीनी तौर पर पैदा नहीं किया जा सकता और न ही उसे कानून के जरिए विनियमित किया जा सकता है. यदि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रेम या घृणा हो तो उसे अभिव्यक्त करने की आजादी होनी चाहिए, बशर्ते वह हिंसा नहीं भड़काए.

फिलहाल राजद्रोह के नाम पर ब्रिटिश हुकूूमत से लगाव नहीं होने के आरोप का अनुपालन करना है. यह हमारा सौभाग्य है कि ऐसा आरोप हम पर लगाया गया है. मुझे किसी प्रशासक के खिलाफ दुर्भावना नहीं है और न ही ब्रिटिश सम्राट के लिए लेकिन इस सरकार से मनमुटाव या अप्रीति रखना मेरे लिए सदगुण है. मौजूदा सरकार ने भारतीयों पर पिछली किसी भी हुकूमत से ज़्यादा नुकसान किया है. आज भारत की मर्दानगी कम हो गई है. ऐसा सोचते हुए इस सरकार के लिए प्रेम की भावना रखना पाप होगा. जैसा मैंने सोचा है, ठीक वैसा ही लिखा है.

गांधी ने आगे कहा कि पंजाब के मार्शल लाॅ मुकदमों को उन्होंने पढ़ा है. 95 प्रतिशत सजायाफ्ता दरअसल निर्दोष रहे हैं. भारत में राजनीतिज्ञों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं. उनमें से हर दस में नौ लोग निर्दोष होते हैं. उनका यही अपराध है कि वे अपने देश से मोहब्बत करते हैं. जज स्ट्रैंगमैन ने अपने आदेश में माना कि गांधी एक बड़े जननेता हैं. अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर शक नहीं किया जा सकता. जज ने कहा कि वे मजबूर हैं कि उन्हें कानून का पालन करते गांधी को राजद्रोह का अपराधी ठहराना पड़ेगा. इस मामले में गांधी को छह वर्ष के कारावास की सजा दी गई थी.

तिलक और गांधी के मुकदमों की जानकारी संविधान सभा के सदस्यों को निश्चित तौर पर रही होगी. उन्होंने खुद राजद्रोह को अभिव्यक्ति की आजादी के प्रतिबंध के रूप में खारिज करते हुए उसे संविधान से निकाल बाहर किया था. संविधान के अनुच्छेद 13 में यह लिखा है कि संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में लागू सभी कानून उस हद तक निरस्त होंगे जहां तक वे संविधान के प्रावधानों से असंगत हैं. यह भी लिखा कि राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगा जो मूल अधिकारों को छीने या कमतर करे. यदि ऐसा कानून बनेगा तो वह निरर्थक और गैर-असरकारी होगा. यह समझ आने लायक नहीं है कि इतना कुछ होने पर भी राजद्रोह का कानून चोरी छिपे भारतीय दंड संहिता में घुसा रहा.

1910 में गणेश दामोदर सावरकर ने कई द्विअर्थी कविताओं का प्रकाशन किया था. उनके पढ़ने पर नहीं कहा जा सकता था कि खुले आम कोई अवज्ञा या अप्रीति की जा रही है. लेकिन उनकी अभिव्यक्ति को शासन द्वारा अन्योक्ति और श्लेष अलंकार के द्वैध में समझा जाकर सजा के काबिल ठहरा दिया गया. आरोप था कि लेखक का आशय हिन्दू देवी देवताओं के नामोल्लेख के जरिए अंगरेज़ी हुकूमत के खिलाफ नफरत और मुखालफत का इजहार करना ही तो था.

1927 में किन्हीं सत्यरंजन बख्शी के मामले में राजद्रोह का हथियार फिर चलाया गया. आरोपी ने बस इतना ही कहा था कि अंगरेज भारत में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का पालन कर रहे हैं. एक और पत्रकार पी. जोसेफ ने केवल इतना लिखा था कि स्थानीय स्वशासन में अधिकारों का दुरुपयोग किया जा रहा है. तब भी उसे अदालत ने न्याय नहीं दिया.

निहारेन्दुदत्त मजूमदार का मशहूर मुकदमा

1942 में मशहूर मुकदमा निहारेन्दुदत्त मजूमदार का हुआ. उनके प्रकरण में चीफ जस्टिस माॅरिस ग्वाॅयर ने पारंपरिक ब्रिटिश कानून की व्याख्या का अनुसरण करते यही मत ठहराया कि यदि आरोपी के कहने से लोकशांति के भंग या भंग होने की युक्तियुक्त सम्भावना या खतरा प्रतीत हो तो वह अपराधी ठहराया जाएगा. उसकी अभिव्यक्ति यदि इस तरह की लगे कि कोई भी समझदार आदमी भी यह मान ले कि उसके कहने में घातक इरादे हैं. इस फैसले की वजह से राजद्रोह के बाकी तत्वों के मुकाबले लोकशांति के भंग होने की आशंका या संभावना मात्र को आरोपी के कृत्य से भी सीधे तौर पर जोड़कर अपराध की परिभाषा की व्याख्या की गई.

इस वजह से अपराधी की मानसिक स्थिति भर से अपराध होने का कोई आधार नहीं माना गया. आगे चलकर सदाशिव नारायण भालेराव के प्रकरण में प्रिवी काउंसिल ने निहारेन्दुदत्त मजूमदार के प्रकरण के फैसले के आधारों को पलट दिया. फिर वही ढाक के तीन पात करते हुए जस्टिस स्ट्रैची की उसी परिभाषा को मान लिया कि यदि कोई व्यक्ति निन्दा करे या लोगों की तकलीफों का नायक प्रवक्ता बनकर सरकार पर दोषारोपण करता घृणा का माहौल बनाए, तो वह दोषी होगा.

संविधान सभा से खारिज राजद्रोह

संविधान सभा में ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई थी. मुख्यतः कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने इस संड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे. वक्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 19 (2) का हवाला देते हुए साफ कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंध के रूप में राजद्रोह को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता.

अपने प्रसिद्ध भाषण में संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्य कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने निहारेन्दुदत्त मजूमदार के फैसले का भी उल्लेख किया था. उन्होंने कहा था कि उस फैसले में जज ने अपने फैसले में यह तक लिख दिया था कि राजद्रोह इस कारण अपराध नहीं माना गया है कि ऐसा करने से सरकारों के घायल अहंकार की क्षतिपूर्ति हो सके. बल्कि वह इसलिए अपराध है कि सरकार और कानून के प्रति निष्ठा नहीं दिखाई गई है. यदि उनका आदर नहीं किया गया तो केवल अराजकता ही फैल सकती थी.

इस प्रकार लोक दुर्व्यवस्था या लोक अशांति की संभावना ही इस अपराध का सारतत्व है. जिन कार्यों अथवा शब्दों के जरिए ऐसा अभिव्यक्त किया जाए उसके कारण या तो दुर् व्यवस्था के लिए उत्तेजना हो सकती है या समझदार लोगों को लगे कि दुर् व्यवस्था पैदा करना ही आरोपी का मकसद है. गणेश सावरकर के प्रकरण में किसी राजनीतिक बयान के लिए अपराध चस्पा नहीं किया गया. वहां तो राजद्रोह का अपराध कानूनी भाषा की बाड़ तोड़कर संस्कृति के इलाके में घुसकर अपने सींग मारने लगा.

यह इतिहास का सच है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति की आज़ादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंध के रूप में शामिल किया था. संविधान सभा में यह जानकारी होने पर सोमनाथ लाहिरी ने इस अपराध को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोड़ा बनाए जाने पर बेहद कड़ी आलोचना की. उन्होंने व्यंग्य में यहां तक पूछा कि क्या सरदार पटेल सोचते हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार को ब्रिटिश सरकार से भी ज़्यादा नागरिक विरोधी शक्तियां मिलनी चाहिए ? यदि ऐसा हुआ तो हर तरह का राजनीतिक विरोध कुचला जा सकेगा. ऐसा तो औपनिवेशिक काल में होता ही रहा है.

दूसरे दिन ही सरदार पटेल ने राजद्रोह के अपराध को जनअभिव्यक्तियों के पर कुतरने वाले सरकार के बचाव के हथियार के रूप में रखने से इंकार कर दिया. सरदार हुकुम सिंह ने भी प्रेस ऐक्ट में व्यक्त प्रावधानों के मद्देनजर राजद्रोह के अटकाव को बाहर करने की खुली मांग की. अनंतशयनम आयंगार ने खुलकर कहा कि अहिंसक तरीकों से किसी भी सरकार को उखाड़ फेंकना और उसकी गलतियां बताते लोगों को वैसी समझाइश देना लोकतंत्र में नागरिकों का मूल अधिकार है, उससे कमतर कुछ नहीं.

यह महत्वपूर्ण है कि जवाहरलाल नेहरू ने संविधान बनने के बाद अनुच्छेद 19 (1) (क) में अभिव्यक्ति और वाक् स्वातंत्र्य की आजादी के सिलसिले में संविधान में प्रथम संशोधन होते वक्त साफ कहा था कि मैं इस राजद्रोह जैसे कानून को कायम रखने के पक्ष में कभी नहीं रहा. यह प्रावधान बहुत ज़्यादा आपत्तिजनक है और बकवास है. इसे व्यावहारिक और ऐतिहासिक कारणों से हटा दिया जाना चाहिए.

दुर्भाग्य लेकिन यही है कि इतने घटनाक्रम के बावजूद जाने क्यों राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता में कायम रहकर आज भी अपने बाज जैसे जबड़ों में हर तरह के अभिव्यक्तिकारक विरोध को गौरेया समझकर दबा लेना चाहता है.

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