राम अयोध्या सिंह
संघियों, आज जो तुम मुगलों के किले, महलों और मकबरों में झूठमुठ हिन्दू मंदिर और महल की तलाश कर रहे हो, अगर ऐसा ही काम बौद्धों के कहने पर हिंदू मंदिरों को खोदकर बौद्ध मंदिरों और मूर्तियों की तलाश की जाने लगे, तो सच कहता हूं तुम हिन्दुओं के पास कुछ भी ऐसा नहीं बचेगा, जिसे तुम हिन्दू मंदिर कह सकोगे. सांप्रदायिकता, वैमनस्यता, भ्रष्टाचार और हरामखोरी छोड़कर इंसानियत का पैगाम सुनो और मेहनत की कमाई खाने का प्रयास करो, तुम्हारा भी भला होगा और देश का भी भला होगा.
ज्यादातर नाम-गिरामी हिंदू मंदिर मूलत: बौद्ध स्थल थे
आज के ज्यादात्तर नाम-गिरामी हिंदू मंदिर मूलत: बौद्ध स्थल थे, जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने तोड़कर हिंदू मंदिर बनाया, इसमें बद्रीनाथ का मंदिर भी शामिल हैं. क्यों न बौद्ध धर्मांवलंबी इन हिंदू मंदिरों पर कब्जा का अभियान चलाएं ! प्रमाण राहुल सांकृत्यायन और डी. एन. झा ने प्रस्तुत किया है –
‘बदरीनाथ की मूर्ति पद्मासन भूमिस्पर्श मुद्रायुक्त बुद्ध की है, इसमें कोई संदेह नही है – राहुल सांकृत्यायन (स्रोत-उद्धृत गुणाकर मुले, महापंडित राहुल सांकृत्यायन (जीवन और कृतित्व) नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृ. 136)
बदरीनाथ हिंदुओं चारधाम में एक है. यहां की बुद्ध मूर्ति को आदि विष्णु का रूप दे दिया गया. यहां का मुख्य पुजारी सिर्फ केरल का नंबूदरी ब्राह्मण हो सकता है. सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं, बल्कि लाखों बुद्ध की मूर्तियों को हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों में तब्दील कर दिया गया है यानि बौद्ध स्थलों पर ब्राह्मण धर्मालंबियों (जिसे आजकल हिंदू धर्म कहा जाता है) ने कब्जा जमा लिया, इसके पुरातात्विक साक्ष्य निरंतर मिलते रहे हैं और अभी भी मिल रहे हैं. यहां तक कि बोधगया के महाबोधि मंदिर पर भी ब्राह्मणों ने कब्जा कर लिया था. दुनिया भर के बौद्ध अनुयायियों के लंबे संघर्ष के बाद वह पवित्र स्थान बौद्ध अनुयायियों (14 जनवरी 1953) को मिल पाया.
सच यह है कि भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा बहुजन-श्रमण संस्कृति रही है, जिसे नष्ट कर ब्राह्मणी संस्कृति (हिंदू संस्कृति) स्थापित की गई. इस तथ्य को डी. एन. झा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की. नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था.
ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था. इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पंतजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि ‘श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच. (उद्धृत डी. एन. झा, पृ. 34, हिंदू पहचान की खोज)
उपाधियों और बड़ी-बड़ी जमींदारियां पाने के लिए अपने से शक्तिशाली को बहन-बेटी सौंपना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग
राजाओं और बादशाहों या शासकों को अपनी बहन, बेटी और पत्नी समर्पित करने की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है. राजाओं के बीच मधुर संबंध बनाने के लिए कमजोर राजा द्वारा अपने से बलशाली राजा के साथ अपनी बेटी व्याहना भी उसी परंपरा के अंतर्गत था. राजा और सामंत महान ऋषि-मुनियों को अपनी बेटी खुशी-खुशी अर्पण कर देते थे. कमजोर की बीबी सबकी भौजाई यूं ही नहीं कहा गया है. अपने से शक्तिशाली को बहन-बेटी सौंपना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है.
मुस्लिम शासकों और खासकर मुगलों के शासन के दौर में पद, पैसा और प्रतिष्ठा के लिए ब्राह्मणों और कायस्थों ने भी अपनी बहन और बेटियों को दरबार में पहुंचाया, और वह भी खुशी-खुशी. अंग्रेजों के शासनकाल में तो राजसत्ता का वरदहस्त प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों और कायस्थों में एक तरह से होड़ ही रही. बंगाल में अंग्रेजी राज के दौर में ब्राह्मणों और कायस्थों के बीच की यह प्रतिद्वंदिता अपने चरम पर थी. जमींदारी प्राप्त करने, अच्छी सरकारी नौकरी प्राप्त करने या व्यापार में सुविधा प्राप्त करने के लिए बहन-बेटियों को उच्च पदस्थ अफसरों के पास बहन-बेटियों को भेजना आम बात थी.
राजा, रायबहादुर, राय साहब जैसी उपाधियों और बड़ी-बड़ी जमींदारियां पाने के लिए हर तरह का हथकंडा अपनाया गया था. बंगाल में वारेन हेस्टिंग्स के समय उसका आशीर्वाद पाने के लिए बंगाल के उच्च कुल ब्राह्मणों के बीच इस बात के लिए भारी प्रतियोगिता थी कि गवर्नर जनरल का वरदहस्त प्राप्त करने के लिए कौन कहां तक गिर सकता है. महोपाध्याय, चटोपाध्याय और बंदोपाध्याय की उपाधि के लिए कुलीन ब्राह्मण वारेन हेस्टिंग्स के आगे अपनी नाक तक रगड़ते थे. यह तो हाल-फिलहाल का लिखित ऐतिहासिक दस्तावेज है.
सामंतों, जमींदारों और इनके लठैत भी कमजोर या निम्न जाति की औरतों के साथ यौन संबंध बनाते
इसी तरह सामंतों, जमींदारों और इनके लठैत भी अपने से कमजोर या निम्न जाति की औरतों के साथ स्वेच्छा ही नहीं, जबर्दस्ती भी यौन संबंध बनाते रहे थे. ऐसा शायद ही कोई जमींदार होता था, जो एक पत्नी तक सीमित होकर रहता था. जमींदारों की हवेलियों में ऐसी कितनी ही दर्दनाक घटनाएं जमींदोज हैं. औरतों के मामले में कभी भी किसी वर्ण या जाति का बंधन नहीं रहा. अछूत जातियों की औरतों का भी बड़ी जाति के जमींदारों के महलों में स्वागत था. सामाजिक सोपान क्रम में ऊपर की जातियों के पुरुष अपने से कमजोर या नीची जाति या व्यक्ति या समूह की औरतों के साथ हमेशा ही यौन संबंध बनाते रहे हैं.
देहातों में तो कई जगह डोला रखने की भी प्रथा थी, जिसमें छोटी जाति की नवागत वधु की डोली सबसे पहले गांव के सबसे बड़े जमींदार के दरवाजे पर या ब्राह्मण के दरवाजे पर रखी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि उस नवागत वधु के साथ सबसे पहले समागम जमींदार या ब्राह्मण ही कर सकता है. जो समाज बाल विधवा औरत को जीने का अधिकार भी देना गवारा नहीं समझा, उससे इससे बेहतर संभावना की उम्मीद कैसे की जा सकती है ?
यही नहीं, भारत में बेटियों के बेचे जाने की भी बहुत पुरानी परंपरा रही है. संपत्ति बचाने या अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए भी लोग अपनी जवान या कम उम्र बेटी की शादी बुढ़े सामंत या जमींदार से कर देते थे. भिखारी ठाकुर ने यूं ही ‘बेटी बेचवा’ नाटक नहीं लिखा था. भोजपुरिया समाज में यह एक सामाजिक बीमारी की तरह प्रचलित थी. यह सिर्फ छोटे या कमजोर लोगों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि बड़े-बड़े लोग भी इसमें शामिल थे, और आज भी हैं.
मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होंने अपनी बेटियों के माध्यम से अपनी न सिर्फ सामाजिक हैसियत बढ़ाई, बल्कि अच्छे पद और पैसे भी बनाए. यह परंपरा आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है, भले ही उसका स्वरूप बदल गया है. आज भी महानगरों, नगरों और गांवों तक में यह परंपरा किसी न किसी रूप में जीवित है, और लोग इसे बुरा भी नहीं मानते. मैंने तो यह भी देखा है कि ऐसे लोग बड़े ही शान से रहते हैं. वैसे भी वैश्यावृत्ति की परंपरा भारत में सबसे पुरानी है, और जो आजतक भी जीवित हैं. जो समाज औरतों को एक इंसान के रूप में जीने का भी हक नहीं देता, उसके बारे में और क्या कहा जा सकता है !
मुगल बादशाहों को अपनी बहन और बेटियों को बेचने, सौंपने और उनसे शादी
मुगल बादशाहों को अपनी बहन और बेटियों को बेचने, सौंपने और उनसे शादी कर मनसबदारी पाना भी क्या कभी शौर्य और गौरव की बात हो सकती है ? इन हिजड़ों को राजपूत जाति के गौरव का प्रतीक और पहचान मानने वाले राजपूतों को क्या कभी इन बातों पर शर्म नहीं आती ? राजस्थान के रियासतों के मनसबदारों को तो कभी भी स्वतंत्र राजा माना ही नहीं जा सकता. मुगलों से लेकर अंग्रेजों के शासन तक वे सिर्फ सर्वोपरि राजसत्ता के दलाल थे और दलाली के एवज में अपने और अपने परिवार के लिए सिर्फ सुख-सुविधाओं की गारंटी ही सुनिश्चित किया. जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, मेवाड़ या उदयपुर, जैसलमेर, बुंदी, मेड़ता, कोटा या कोई और ये सभी राजपूत के नाम पर दिल्ली की सत्ता की जीहुजूरी करते रहे और उनकी मेहरबानी से आराम और शानोशौकत की जिंदगी जीते रहे.
इन तथाकथित राजपूत राजाओं से राजपूतों को क्या मिला ? वे तो बस अपने परिवार के भरण-पोषण के एवज में अपना सर कटाते रहे. यह राजभक्ति, स्वामीभक्ति और गुलामी तो कही जा सकती है, पर किसी भी दृष्टि से राष्ट्रभक्ति नहीं. आखिर ये राजपूत कब अपना होश संभालेंगे ? क्या आज के राजपूतों को अपने बच्चों के शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, खेलकूद और बेहतर जिंदगी के लिए बेहतर रोजगार की जरूरत नहीं है ? अगर वे अब भी ऐसा ही समझते हैं तो स्पष्ट है कि वे अभी तक भारत के आजाद नागरिक नहीं बन सके हैं, वे आज भी गुलाम हैं और गुलामी ही उनका धर्म है.
गुलामी का सोपानुक्रम
भारतीय रियासतों के राजवाड़ों के राजकुमारों की जिंदगी और उनके अधिकार अंग्रेजी शासन के एक ऐसे छोटे से अफसर के रहमोकरम पर थे, जिसे भारत का वायसराय नियुक्त करता था. यह छोटा अफसर, जिसे रेजिडेंट कहा जाता था, ही राजवाड़े का असली शासक होता था और जिसकी खुशामद में तथाकथित राजा और उनके परिवार के सभी लोग प्राणपण से जुटे रहते थे. उसकी कलम की एक मार से इनका राजवाड़ा समाप्त हो सकता था. ऊपरी दिखावा, तड़क-भड़क, चमक-दमक और शानोशौकत के भीतर उनकी कायरता, मौकापरस्ती, क्षुद्र स्वार्थ और लिजलिजापन छुपे रहते थे, और जिन्हें भारत की गुलाम प्रजा बड़े ही फख्र से अपना राजा समझती थी.
यह गुलामी का सोपानुक्रम था, जो एक-दूसरे के ऊपर और नीचे भी बना हुआ था. ऐसे सभी राजाओं का परम कर्तव्य यही था कि वे भारतीय जनता को इस तरह से काबू में रखें कि वे ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत न कर सकें, और इसके लिए ये भारतीय राजवाड़े अपनी प्रजा का हद से ज्यादा शोषण करते थे, ताकि वे अपनी जिंदगी किसी भी तरह जीने को ही राजा और भगवान का आशीर्वाद समझें.
आखिर क्या कारण था कि भारत का सबसे गरीब, सबसे पिछड़ा, सबसे अशिक्षित, सबसे गुलाम और सबसे दकियानूस वही इलाके रहे, जो भारतीय राजाओं द्वारा शासित थे. हां, इस नियम का एकमात्र अपवाद त्रावनकोर और त्रिवेंद्रम था. न पढ़ने का यही हस्र होता है कि हम वास्तविकता से अनभिज्ञ रह जाते हैं और सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी की जय जयकार करने लगते हैं. इसका एक ही अर्थ है कि ऐसा करने वाले आज भी मानसिक रूप से गुलाम हैं.
मुगलों ने इस देश को अपनाया, ब्राह्मणवादियों ने गुलाम बनाया
जब मुगलों ने पूरे भारत को एक किया तो इस देश का नाम कोई इस्लामिक नहीं बल्कि ‘हिन्दुस्तान’ रखा, हालांकि इस्लामिक नाम भी रख सकते थे, कौन विरोध करता ? जिनको इलाहाबाद और फैजाबाद चुभता है, वह समझ लें कि मुगलों के ही दौर में ‘रामपुर’ बना रहा तो ‘सीतापुर’ भी बना रहा. अयोध्या तो बसी ही मुगलों के दौर में. ‘राम चरित मानस’ भी मुगलिया काल में ही लिखी गयी.
आज के वातावरण में मुगलों को सोचता हूं, मुस्लिम शासकों को सोचता हूं तो लगता है कि उन्होंने मुर्खता की. होशियार तो ग्वालियर का सिंधिया घराना था, होशियार मैसूर का वाडियार घराना भी था और जयपुर का राजशाही घराना भी था तो जोधपुर का भी राजघराना था.
टीपू सुल्तान हों या बहादुरशाह ज़फर, बेवकूफी कर गये और कोई चिथड़ा चिथड़ा हो गया तो किसी को देश की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई और सबके वंशज आज भीख माँग रहे हैं. अँग्रेजों से मिल जाते तो वह भी अपने महल बचा लेते और अपनी रियासतें बचा लेते, वाडियार, जोधपुर, सिंधिया और जयपुर राजघराने की तरह उनके भी वंशज आज ऐश करते. उनके भी बच्चे आज मंत्री विधायक बनते.
यह आज का दौर है, यहां ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदेमातरम’ कहने से ही इंसान देशभक्त हो जाता है, चाहें उसका इतिहास देश से गद्दारी का ही क्युँ ना हो. बहादुर शाह ज़फर ने जब 1857 के गदर में अँग्रैजों के खिलाफ़ पूरे देश का नेतृत्व किया और उनको पूरे देश के राजा रजवाड़ों तथा बादशाहों ने अपना नेता माना, भीषण लड़ाई के बाद अंग्रेजों की छल कपट नीति से बहादुरशाह ज़फर पराजित हुए और गिरफ्तार कर लिए गये.
ब्रिटिश कैद में जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए. उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि – ‘हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं.’ बेवकूफ थे बहादुरशाह ज़फर. आज उनकी पुश्तें भीख मांग रहीं हैं.
अपने इस हिन्दुस्तान की ज़मीन में दफन होने की उनकी चाह भी पूरी ना हो सकी और कैद में ही वह ‘रंगून’ और अब वर्मा की मिट्टी में दफन हो गये. अंग्रेजों ने उनकी कब्र की निशानी भी ना छोड़ी और मिट्टी बराबर करके फसल उगा दी, बाद में एक खुदाई में उनका वहीं से कंकाल मिला और फिर शिनाख्त के बाद उनकी कब्र बनाई गयी. सोचिए कि आज ‘बहादुरशाह ज़फर’ को कौन याद करता है ? क्या मिला उनको देश के लिए दी अपने खानदान की कुर्बानी से ?
ऐसा इतिहास और देश के लिए बलिदान किसी संघी का होता तो अब तक सैकड़ों शहरों और रेलवे स्टेशनों का नाम उनके नाम पर हो गया होता. क्या इनके नाम पर हुआ ? नहीं ना ? इसीलिए कहा कि अंग्रेजों से मिल जाना था, ऐसा करते तो ना कैद मिलती ना कैद में मौत, ना यह ग़म लिखते जो रंगून की ही कैद में लिखा :
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में.
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में.
कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.
हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र की स्थापना के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य शर्त
बढ़ती मंहगाई, बढ़ती कीमतें, बढ़ता टैक्स, बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती बीमारी, देश पर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का बढ़ता कर्ज, हथियारों की खरीद पर बढ़ता खर्च, बढ़ती गरीबी, बढ़ती भूखमरी, बढ़ती मूर्खता, अशिक्षा और आज्ञानता, बढ़ता सांप्रदायिक तनाव, बढ़ती आर्थिक विषमता, रात-दिन मंदिरों की बढ़ती संख्या, बढ़ता भ्रष्टाचार और नेताओं पर बढ़ता बेतहाशा खर्च राष्ट्र के विकास और हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र की स्थापना के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य शर्त है.
देश और देश की सारी संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधन, सरकारी उद्योग एवं सार्वजनिक लोक उपक्रम, आवागमन के साधन या फिर देश की सारे जर, जमीन, जंगल, पहाड़ और खदान बिक जाएं, पर हिन्दुओं पर आए खतरे को दूर कर भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के साथ-साथ धर्म की स्थापना, वर्णव्यवस्था की स्थापना और मनुस्मृति की पुनर्स्थापना होकर ही रहेगा.
पूरा सच सिर्फ वही लिख सकता है, जो स्वाभाव से विद्रोही होगा. शालीनता और मर्यादा की जंजीरों से बंधकर सत्य लिखना संभव नहीं है. अगर विद्रोही है तो वह जेल के शिकंजे में बंद बेड़ी और हथकड़ी लगी होने के बावजूद भी सच लिख सकता है.
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