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दरख्त

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एक पेड़
जो बन गया था दरख्त
जिसपर चिड़ियों का था बसेरा ,
और भी कई जीवों ने
डाला हुआ था डेरा
गुजरता उधर से जब भी कोई,
रोक लेती थी चिड़ियों की चहचहाहट
डाल देती थी बेड़ी उनके पांव में
अनायास वह आराम करने
चला जाता था उसके छांव में
वह ले लेता आगोश में अपने
देता ठंडी हवाओं की थपकी,
रोक नही पाता था पथिक
अपने को, लेने से झपकी.

कुछ देरी आराम कर
निकल जाता अपने ठांव ,
अपनी मंजिल, अपने गांव।

आज
एक लकड़हारे ने
चला दी थी उसपर कुल्हाड़ी,
बस दूर खड़ा खड़ा
देखते रह गए थे सवाली.
टुकड़े टुकड़े कर उसका
अस्तित्व मिटा डाला था,
एक एक पत्ते को चुन
जलावन बना डाला था.

पर एक बीज
जो भूले से छूट पाया था,
धरती के सीने में घूंस
अपना दर्द छिपाया था.
फिर देखो बढ़ते बढ़ते
बन गया है एक पेड़
उसे फुर्सत कहां निभाये
पुरखों वाला बैर.
देने लगा है फिर से
फल, फूल, छांव ,
पथिक लेने लगे हैं
फिर से आके ठांव.

समय का चक्र
बदलता रहता है,
सूरज उगता है
तो ढलता भी रहता है.

एक दिन जब धूप में
घिर गया था लकड़हारा,
प्यासा, तपती धरती, ब्याकुल मन
खोजता हुआ सहारा
निराश हो जीवन से ,
आखिर मूर्छित हो गिर पड़ा था
आके इस पेड़ के नीचे.
पेड़ ने अपना कर्तब्य निभाया था,
अपने छांव, ठंडी हवा से
थपकी देकर उसे उठाया था.

क्या आज उसे अपने किये पर
शर्म आया है ,
उसने ही तो इनके पूर्वजों पर
कुल्हाड़ी चलाया था.

भला उसे शर्म क्यों आयेगा,
लकड़हारा है वह तो
फिर इस पेड़ पर कुल्हाड़ी चलायेगा !

अरे ! पेड़ कटते देख कर
चुप रहने वालों,
मुंह खोलो, अब तो कुछ बोलो !
जरा सोचो ! तुम बच पाओगे ?
जब लकड़हारा घूम रहा
ले हाथ में कुल्हाड़ी,
अपनी चुप्पी की सजा
तुम भी पाओगे !
एक एक कर वह
सारा जंगल काट डालेगा,
तुम्हारा भी अस्तित्व तब
कहां बच पायेगा !!!

  • सुमन
    24 अप्रैल 2020

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