Home गेस्ट ब्लॉग RSS की रणनीति- वैचारिक मुकाबला नहीं कर पाने पर उसे बदनाम कर अपनी प्रासंगिकता साबित करना

RSS की रणनीति- वैचारिक मुकाबला नहीं कर पाने पर उसे बदनाम कर अपनी प्रासंगिकता साबित करना

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Shyam Mira Singhश्याम मीरा सिंह

संघ का हमेशा से एक गूढ़ उद्देश्य रहा है कि संघ को कथित ऊंची जातियों की, उसमें भी ऊंची जातियों के सक्षम पूंजीपतियों की सत्ता स्थापित करनी थी, जिसके लिए ‘हिन्दू धर्म’ का चोगा ही अंतिम विकल्प था. चूंकि लोकतंत्र में सीधे एक दो जाति की श्रेष्ठता का दावा करके विजयी नहीं हुआ जा सकता था इसलिए अपनी जातियों को आगे बढ़ाने के लिए उस धर्म को चुना गया, जिसमें उन्हें शीर्ष पर रहने की वैधता मिली हुई थी.

यही कारण है सीधे जाति से न लड़कर संघ ने धर्म का रास्ता चुना. अब धर्म के राज की स्थापना के लिए जरूरी है कि ‘सेक्युलरिज्म’ जैसे शब्द को अप्रसांगिक किया जाए. यही कारण है कि संघ की विचारधारा मानने वालों ने सबसे अधिक निशाना बनाया तो सेक्युलरिज्म शब्द को.

संघ के तमाम प्रचारकों, नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों को ‘सेक्युलिरिज्म के नाम पर’, ‘सिक्यूलरिज्म’, ‘स्यूडो सेक्युलिरिज्म’, ‘फेक सेक्युलिरिज्म’ जैसी उपमाओं का उपयोग करते हुए देखा होगा. इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ एक टेक्निक ही काम करती है, सेक्युलिरिज्म अप्रासंगिक हो जाएगा तो स्वभाविक है उसकी जगह एक धार्मिक राज्य ही लेगा, जिसमें कि वर्चस्व केवल कुछेक अभिजातीय जातियों का ही होगा, जिससे कि संघ असल में ताल्लुक रखता है.

यही भाषा बबिता फोगाट और रंगोली चंदेल की रही है. अब आप इनकी भाषा के निहितार्थ आसानी से समझ सकते हैं, और उस स्रोत को भी जिसने इनके दिमाग में डाला है कि सेक्युलिरिज्म ही देश का सबसे बड़ा दुश्मन है, न कि लिंचिंग कर देना और जय श्री राम के नारों के साथ किसी को मार देना.

सेक्युलिरिज्म जो दुनिया के सबसे ब्राइट माइंड पीपल के मस्तिष्क से निकला ऐसा एकमात्र आईडिया है जिससे आधुनिक राज्य बिना धार्मिक संघर्ष के संचालित किए जा सकते थे, उसे आधुनिक समझदार राज्यों ने अपनाया लेकिन भारत में उसे मलाइन करने में संघ शुरू से लगा रहा.

सेक्युलिरिज्म शब्द के अलावा दूसरा शब्द ‘वामपंथी’ है. चूंकि संघ अपने कथित दावों में कथित हिन्दू धर्म की लड़ाई लड़ रहा है, इसलिए हिंदुओं के ऐसे पढ़े-लिखे लोगों को साफ करना उसके लिए मुश्किल था जो उसके प्रतिक्रियावादी विचारों से सहमत न हों. चूंकि संघ इन्हें मुसलमान भी नहीं ठहरा सकता था और न ही इन्हें ईसाई मिशनरी ठहराकर अपराधी घोषित कर सकता था, इसलिए संघ ने हिंदुओं के पढ़े-लिखे वर्ग को साफ करने के लिए ‘वामपंथी’ शब्द को उठाया. और इस एक शब्द के खिलाफ इतना जहर बोना शुरू कर दिया कि वामपंथी शब्द सुनते ही नागरिकों को लगे कि वे आतंकवादियों की बात कर रहे हैं.

पहली बार जब मैंने वामपंथ शब्द सुना था तब मुझे यही जानने को मिला था कि ये नक्सली होते हैं, हिंसा करते हैं, भारत को नहीं मानते, तिरंगा को नहीं मानते, देश की सीमाओं को नहीं मानते. इस तरह बिना वामपंथ को जाने-पढ़े ही मेरे मन में वामपंथ के लिए एक स्वभाविक घृणा आ गई, यही संघ का उद्देश्य है. अब जितनी नफरत आपमें, सेक्युलिरिज्म के लिए है, जितनी नफरत आप में मुसलमानों के लिए है, ईसाई मिशनरियों के लिए है, वही नफरत आप में अब हिंदुओं के उस उस वर्ग के लिए भी रहेगी जो संघ के झूठ में संघ के साथ नहीं है.

अब संघ के लिए हिंदुओं के उस वर्ग को हटाना आसान हो गया जो संघ की नफरत में उसके साथ नहीं है. अब संघ वामपंथी कहकर ‘हिंदुओं’ को भी साफ कर सकता था और आपको ये भी लगेगा कि संघ हिंदुओं की लड़ाई लड़ रहा है. इस प्रोपेगैंडा का प्रतिफल ये निकला है कि संघ के समर्थक आपको ये कहते हुए मिल जाएंगे कि ‘हिंदुओं के असली दुश्मन तो हिंदुओं का पढ़ा लिखा वर्ग ही है.’ ‘इस देश को सबसे अधिक खतरा तो ‘ज्यादा’ पढ़े लिखे लोगों से है.’

यकीन मानिए संघ देश के एक बड़े हिस्से के मन में ये भरने में भी कामयाब रहा कि पढ़े लिखे होना हमारी सदी का सबसे बड़ा अपराध है, जोकि पढ़-लिखकर हमको नहीं करना है. संघ नागरिकों के एक बड़े वर्ग के मन में ये भरने में भी कामयाब रहा कि यदि कथित ‘हिन्दू हितों’ के लिए कुछ हिंदुओं का सफाया करना पड़े भी तो देश हित में किया जा सकता है. यही कारण है कि संघ बाकी सबके मुकाबले वामपंथियों को अधिक निशाना बनाता है.

संघ की ये पुरानी रणनीति है – जिससे ये वैचारिक रूप से मुकाबला नहीं कर पाते उसे बदनाम करके ये अपनी प्रासंगिकता साबित करने की कोशिश करते हैं. जैसे इनके पास गांधी, नेहरू के मुकाबले के स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, तो इन्होंने गांधी, नेहरू के खिलाफ भ्रामक झूठ बुन-बुन कर उन्हें अप्रसांगिक बनाने की कोशिश की. अब देश के भोले-भाले नागरिक ये भूलकर कि देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ क्या कर रहा था, इस बात पर आ गए कि नेहरू का तो एडविना से अफेयर था, गांधी तो बच्चियों के साथ सोता था.

दूसरे व्यक्ति को अप्रसांगिक बनाकर खुद को प्रासंगिक बनाना एक सर्वकालिक युक्ति है, यही संघ ने किया है. इसमें कुछ मेहनत भी नहीं लगती. इसका नतीजा ये निकला कि नेहरू और गांधी को पढ़े और जाने बिना ही नागरिक अब संघ की ओर देखेगा ही देखेगा. अब वह ये प्रश्न भी नहीं करेगा कि आपके पास स्वतंत्रता आंदोलन के समय नेहरू और गांधी जैसा एक चेहरा भी क्यों नहीं था ?

नेहरू और गांधी जैसा श्रेष्ठ बनने का मार्ग कठिन था बल्कि उन्हें बदनाम करने का मार्ग बेहद सरल था, यही संघ ने अपनाया. इसी प्रकार संघ ने हमारी भाषा में – ‘लोकतंत्र के नाम पर’, ‘अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर’, ‘और ले लो आजादी’, ‘आजादी गैंग’ जैसे शब्द जोड़े…

आप अब आसानी से समझ सकते हैं कि संघ ने न केवल लोकतंत्र जैसे मूल्य को अप्रसांगिक बनाया बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों को भी बेकार की बातें साबित करने में एक हद तक सफलता भी पाई है. आप आराम से अन्दाजा लगा सकते हैं लोकतंत्र अप्रसांगिक होगा तो राजशाही का आधुनिक रूप लागू करना कितना आसान होगा. यही संघ की इच्छा है. यही संघ कर रहा है.

अब आप सोचिए –

  • सेक्युलिरिज्म जैसा शब्द जो सभी धर्मों के लोगों के जीने की आजादी देता है.
  • अभिव्यक्ति की आजादी, जैसा शब्द जो आपके, मेरे, हम सबके बोलने की आजादी देता है.
  • लोकतंत्र, जो हम सबको स्वतंत्रता प्रदान करता है.

इन शब्दों को खोकर हम क्या पाने जा रहे हैं ? हमारे लोकतंत्र, हमारे बोलने की आजादी, हमारी स्वतंत्रता को खत्म करके कोई हमें क्या देना चाहता है ?

  • क्या संघ लोकतंत्र की जगह वापस से जमींदारी, राजशाही, सामन्तशाही स्थापित करना चाहता है ?
  • क्या संघ ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की जगह ‘लाठी की आजादी’ स्थापित करना चाहता है ?
  • क्या संघ सेक्युलिरिज्म और धार्मिक आजादी छीनकर केवल ऊंची जातियों के कल्याण को लागू करना चाहता है जिसमें वेद, पुराण, उपनिषद पढ़ने की आजादी भी सिर्फ कुछेक जातियों को होगा ?

जबाव ढूंढिए, मिलेंगे, उतने भी मुश्किल नहीं !

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