दादा,
तुम जैसे लोग मरते नहीं
लहू में उतर जाते हो प्रवाह बन कर
दादा तुम थे
नक्सलबाड़ी के अंतिम अंतिम रक्तबीज.
लिखना चाहती थी तुम्हारा इतिहास कभी
मना कर दिया था तुमने
यह कह के अभी मरा नहीं हूं मैं.
सही कहा था तुमने
मरते नहीं तुम जैसे लोग
ज़िंदा रहते हैं तवारीख तलक.
तुम भी ज़िन्दा हो हमारे फ़ौलाद संकल्पों में.
अभी अभी हमने अपनी बेटी को
बताया है तुम्हारे नाम का मतलब.
अभी फिर रोपा है एक बिरवा.
हमारी बच्ची मुस्कुरा के
लहरा रही है मुट्ठियां.
दादा,
तुम बच्चों की मुस्कान हो
आने वाली पीढ़ियों की लहराती मुट्ठियां हों.
दादा,
तुम क्रान्ति का अविराम आहवान हो.
तुम ज़िन्दा हो ! ज़िन्दा हो !
ज़िंदाबाद हो !
- अमिता शीरीं
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]