Home गेस्ट ब्लॉग देश की अर्थव्यवस्था और जनता

देश की अर्थव्यवस्था और जनता

14 second read
0
0
1,007

आर्थिक समीक्षा में 2017-18 और 2018-19 के लिए वास्तविक जीडीपी विकास दर क्रमशः 6.75 फीसदी और 7-7.5 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है. केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक 2014-15 से 2016-17 के बीच जीडीपी की विकास दर औसतन 7.5 फीसदी रही. अगर ये दोनों आंकड़े सही हैं तो संभवतः भारत की अर्थव्यवस्था इस दौरान दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ेगी. समीक्षा में कहा गया है, ‘भारत को दो चीजों निजी निवेश और निर्यात पर आधारित आर्थिक विकास को गति देने के लिए जरूरी सुधार करने चाहिए.’ समीक्षा लिखने वाले चाहते हैं कि भारत फिर से उसी विकास दर को हासिल करे और लंबे समय तक बनाए रखे जो दर 2003-04 से 2007-08 के दौरान थी. लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि यह कैसे होगा. इसके लिए यह समझना जरूरी है कि समस्याएं क्या हैं और इनका समाधान कैसे होगा. हालांकि, दूसरे देशों में निवेश और बचत में आई कमी के अध्ययन की कोशिश की गई है फिर भी इस मोर्चे पर कमी दिखती है. 

समीक्षा बताती है कि मांग में काफी कमी आई है. भले ही यह जीडीपी में उतना अधिक नहीं दिख रही है. अगर पूंजी-उत्पादन का अनुपात कम होता तो जीडीपी के दिए आंकड़ों की विश्वसनीयता पर यकीन होता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. निवेश के आंकड़े सिर्फ 2015-16 तक के ही उपलब्ध हैं. इससे जीडीपी में कुल पूंजी निर्माण का अनुपात लगातार घटा है. 2011-12 में यह 39 फीसदी था जो 2015-16 में घटकर 33.3 फीसदी हो गया. 2016-17 में इसमें दो फीसदी की और कमी आई. 2017-18 में इसमें और कमी आने की आशंका है. समीक्षा इसकी असली वजह ट्विन बैलेंश शीट समस्या को मानती है. 

अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने का काम करने वाली मांग की क्या हालत है? 2003-04 से 2007-08 के दौरान निवेश में तेजी इसलिए दिख रही थी कि सार्वजनिक संसाधन निजी कंपनियों को कम कीमत पर दिए गए थे. पहले यह काम भाजपा नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने निजीकरण के जरिए किया. बाद में कांग्रेस की नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने जमीन, खनिज, वन और स्पेक्ट्रम औने-पौने दाम में देकर यह काम किया. बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में पीपीपी के तहत चल रही परियोजनाओं में भी सरकार ने काफी अनुदान दिया. इन मामलों में भ्रष्टाचार उजागर होने और जनता के विरोध को देखते हुए अब ऐसा करना आसान नहीं रहा. क्या 2019 में नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनते हैं तो राजग और संप्रग की पुरानी सरकारों द्वारा कम कीमत पर किए जा रहे विनिवेश के काम को फिर से शुरू करेंगे?

2015-16 की आखिरी तिमाही से जीवीए में लगातार गिरावट आई है. सिर्फ 2017-18 की दूसरी तिमाही में सुधार के संकेत दिखे थे. यह गिरावट चिंताजनक है. वास्तविक ब्याज दरों का अधिक होने को और बैंका द्वारा एनपीए के डर से कर्ज नहीं देने को इसकी वजह बताया जा रहा है. लेकिन आयातित वस्तुओं से मिल रही प्रतिस्पर्धा से घरेलू उत्पादन पर नकारात्मक असर पड़ा है. इससे मुनाफे में कमी आई है. निर्माण के क्षेत्र में जीवीए लगातार नीचे आया है और इससे न सिर्फ बेरोजगारी बढ़ी है बल्कि स्टील, सीमेंट और अन्य निर्माण सामग्री की मांग भी घटी है. इससे इन उद्योगों के मुनाफे और निवेश पर असर पड़ा है.

स्थिर बुनियादी कीमतों पर जीवीए की विकास दर 2016-17 की आखिरी तिमाही से लगातार प्रभावित हुई है. 2017-18 की दूसरी छमाही में सुधार की उम्मीद आर्थिक समीक्षा में व्यक्त गई है लेकिन यह तब तक नहीं हो सकता है जब तक खाद्य और नकदी फसल को अच्छी कीमत नहीं मिलेगी. किसानों को दी जाने वाली कर्ज राहत को मूल्य समर्थन के साथ जोड़ना होगा. कई लोग किसानों की कर्ज माफी को नैतिकता के चश्मे से देखते हैं लेकिन यही काम वे तब नहीं करते जब कारोबारी घरानों के कर्ज माफी की बात आती है. जानबूझकर कर्ज नहीं चुकाने के मामलों में भी प्रवर्तकों पर आंच नहीं आए, इसके लिए ये लोग कंपनी कानून में संशोधन की बात कर रहे हैं.

काफी पहले जब ब्राजील में सेना का शासन था तो वहां के राष्ट्रपति अमेरिका गए. उनसे ब्राजील की अर्थव्यवस्था की हालत के बारे में पूछा गया. उन्होंने जवाब दिया, ‘मेरे देश में अर्थव्यवस्था ठीक हालत में है लेकिन जनता नहीं.’ मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के जरिए अर्थव्यवस्था में जो हस्तक्षेप किया उसे सरकार ने तो गेमचेंजर बताया लेकिन वास्तविकता में इससे विकास दर में कमी आई और लोग बेरोजगार हुए.

जीएसटी की वजह से लेनदेन का खर्च बढ़ गया है. जीएसटी रिटर्न के लिए इंतजार करना पड़ रहा है. अप्रत्यक्ष कर के इस बोझ से अनौपचारिक क्षेत्र को कर के दायरे में लाने की कोशिश हो रही है. गैर कृषि अनौपचारिक क्षेत्र का जीडीपी में 45 फीसदी योगदान है और रोजगार में 75 फीसदी. लेकिन जीएसटी की जटिलताओं की वजह से इनमें से कई बंद होने की कगार पर हैं और इसका असर रोजगार पर पड़ना तय है.

2017 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत में भूखमरी और कुपोषण की समस्या बांग्लादेश और कुछ अफ्रीकी देशों से भी अधिक खराब है. 38 फीसदी बच्चे स्टंटिंग यानी लंबाई में कम विकास से पीड़ित हैं. समीक्षा में भी कहा गया है कि कुपोषण की वजह से देश पर बीमारियों का बोझ सबसे अधिक बढ़ रहा है. इससे भी बड़ी समस्या यह है कि गरीबी, भूखमरी और कुपोषण के बीच कुछ लोगों की अमीरी बढ़ती ही जा रही है. ग्रामीण क्षेत्रों के 80 फीसदी और शहरी क्षेत्रों के 60 फीसदी लोगों का उपभोग खर्च इतना नहीं है कि उन्हें हर रोज क्रमशः 2400 और 2100 कैलोरी मिल सके. इस बजट में एकीकृत बाल विकास सेवा और महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए पर्याप्त आवंटन नहीं है.

इस बार की आर्थिक समीक्षा की कई सीमाएं दिख रही हैं. जीडीपी और जीवीए के आंकड़े विश्वसनीय नहीं लग रहे. अर्थव्यवस्था की बुरी हालत की वजह स्पष्ट नहीं हैं. ईज आॅफ डूइंग बिजनेस में और सुधार के लिए क्या किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है. जलवायु परिवर्तन और लैंगिक भेदभाव पर कोई स्पष्टता नहीं है. न ही यह निवेशकों का आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है. इन सबके बीच सच्चाई यह है कि न तो अर्थव्यस्था ठीक स्थिति में है और न ही जनता.

– EPW से साभार

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…