आज उसने उससे कह ही दिया
एक असहमति के बाद
तुम मेरी रखैल…
वो सिहर गयी
टूट गयी
बिखर गयी
सोचने लगी..
इतने वर्षो के
निःस्वार्थ समर्पण के बाद भी
ये उपहार..
बोल पड़ी –
तुम्हारी औकात नहीं है
एक स्त्री को रखैल बना सको
सुनों
तुमने रखैल बनाया है
अपने सुकून को
अपनी खुशियों को
जब बाहर की दुनिया से
दिन भर होते रहते हो तिरस्कृत
तब आते हो मेरे पास
पूरा करने अपना अहम
अपना पुरुषत्व…
किसी स्त्री को
भोजन, कपड़ा और छत देकर
क्या कोई बना पायेगा रखैल ?
नहीं…
क्योंकि वो खुद करती है
अपने अस्तित्व का आत्मसमर्पण
और लुटा देती है पूरा जीवन
पुष्ट करने में एक पुरुष के पुरुषत्व को
हां स्त्रियां जरूर रखती हैं रखैल
वो स्त्री जिनके पति
पाने को तरक्की
पुरी करने को अपनी महत्वकांक्षा
और भरने को अपनी झोली में ढेरों धन…
परसते रहते हैं अपनी ही पत्नियों को
अपनी मर्जी से…
ऐसी स्त्री
रखकर अपने कलेज़े पर पत्थर
खत्म कर देती है अपना अस्तित्व
और पालती है अपना घर
और ऐसे में
सच होता है ये एक शब्द
‘रखैल’ जो स्त्री नहीं पुरुष होता है.
पर वो गलतफ़हमी में जीता है.
स्त्री को पुकारकर यही
क्योंकि इससे पुष्ट होता है
उसका पुरुषत्व.
वो कहती जा रही थी
वो सुनता जा रहा था सिर झुकाये
शायद आज उसकी भी आंखें खुल गयी थीं
और उसके समक्ष परिभाषित हो गया था ‘रखैल’
- सीमा ‘मधुरिमा’
लखनऊ
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