रंगनाथ सिंह
कुछ साल पहले की बात है. मैंने अपने एक मित्र से कहा, ‘आपका बाकी सब बढ़िया है बस थोड़ी अंग्रेजी सुधार लीजिए.’ उन्होंने छूटते ही तपाक से कहा, ‘सर, अंग्रेजी आप सीखिए. हम पैसा कमाएंगे और अंग्रेजी बोलने के लिए दो-चार पीए रख लेंगे.’ पता नहीं उनकी जबान पर सरस्वती विराजमान थीं या क्या, कालांतर में यही सच हुआ. मैं आज भी रोजीरोटी के लिए अंग्रेजी सीखता रहता हूं और वो एक अस्पताल चलाते हैं, जिनमें कई अंग्रेजी बोलने वाले नौकरी करते हैं.
केवल अंग्रेजी सीखकर कोई टाटा-बिड़ला या अम्बानी-अडानी बना हो, मैंने नहीं देखा. केवल अंग्रेजी किसी की कोर-स्किल है तो वह सस्ता-महंगा क्लर्क ही बनता है. अंग्रेजी से ज्ञान या विज्ञान मिलता है, यह केवल वही कहता है जिसकी खुद की विज्ञान में गति मति मन्द होती है. भारत में इंग्लिश का हौव्वा इसलिए नहीं है कि अमेरिका या ब्रिटेन में अंग्रेजी बोली जाती है. भारत में इंग्लिश का आतंक इसलिए है क्योंकि हमारे देश के सत्ता तंत्र पर इंग्लिश इलीट का कब्जा है. यह इलीट वर्ग इंग्लिश के सहारे आम जनता को सत्ता से दूर रखता है. याद रहे, खुद ब्रिटेन को लोकतांत्रिक बनने की प्रक्रिया में इलीट वर्ग की भाषा लैटिन या फ्रेंच त्याग कर चरवाहों की भाषा इंग्लिश को अपनाना पड़ा था.
हिन्दी-विरोध के दम पर जिनकी सरकार बनी और खड़ी हो उन लोगों से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वो यह समझेंगे कि भारत के लिए एक देसी सेतु-भाषा की जरूरत क्यों है. तमिल हो या कन्नड़, कम्युनिस्ट हो या कांग्रेसी वह भाषा का प्रश्न आते ही एक ही धमकी देता है- देश टूट जाएगा ! महान साहित्यकार माना जाने वाला बुद्धिजीवी भी जब यही धमकी देता है तो उस पर तरस आता है. अफसोस कि वह अपनी कविता-कहानी पूरी करते ही कम्युनिस्ट पार्टी का लोकल कैडर बन जाता है ! कभी-कभी तो यह लगता है कि देश को एक रखने का सारा जिम्मा ही यूपी-बिहार-एमपी-राजस्थान वालों ने ले रखा है !
दशकों के दांव-पेंच के बाद अब भाषा विवाद कैच-22 की स्थिति में पहुंच चुका है. हिन्दी में कहें तो उगले तो अन्धा, निगले तो कोढ़ी. मेरी राय में हिन्दीवालों को किसी गैर-हिन्दी भाषी राज्य में हिन्दी ‘थोपने’ का प्रयास नहीं करना चाहिए. तमिलों को हिन्दी सिखाने में ऊर्जा खर्च करने के बजाय हिन्दी वालों को यह सोचना चाहिए कि कैसे हिन्दी-विरोधियों ने पिछले दो-ढाई दशकों में हिन्दी के अन्दर ही इतने विभीषण पैदा कर दिये हैं कि हिन्दी में पले-बढ़े लोग भी छोटी-छोटी गुमटी खोलकर बैठ गये हैं और हिन्दी भाषा के निर्माण में अपने पुरखों के अवदान पर मिट्टी डालने में ही खुद को गबरू समझते हैं.
कुछ लोग तो इतने लज्जाविहीन हो चुके हैं कि अंग्रेजी अखबार में अंग्रेजी में लेख लिखते हैं कि हिन्दी उनकी ‘मदर टंग’ को खा गयी. ऐसे महीन चालाक लोग जानते हैं कि जिस ‘टंग’ को वो हिन्दी के गले में ढोल की तरह टांग रहे हैं, भाषा के तौर पर वह टंग कभी अंग्रेजी के सामने नहीं टिक पाएगी.
हिन्दी पट्टी की भाषाओं को छोड़िए, तमिल जैसी प्राचीन और समृद्ध भाषा की अंग्रेजी ने तमिलनाडु में यह हालत कर दी है कि स्टालिन सरकार को सरकारी स्कूल (यानी तमिल माध्यम) के बच्चों को आरक्षण देना पड़ रहा है. मेडिकल की परीक्षा में तमिल माध्यम के बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं, यह आंकडा़ भी पहले ही आ चुका है. इन कड़वी सच्चाइयों के बावजूद अगर तमिल चाहेंगे तो हम उनसे अंग्रेजी में ही बात करेंगे. इतनी अंग्रेजी हिन्दी-वालों को अनुवाद करते-करते ही आ जाती है कि वो तमिलनाडु-स्तर की अंग्रेजी बोल सकें.
कहते हैं कि अंग्रेजों की नीति थी फूट डालो राज करो. अंग्रेज चले गये, अंग्रेजी छोड़ गये. अंग्रेजों की छोड़ी गयी अंग्रेजी भी उसी राह पर चली. वह फूट डालती है और राज करती है. अंग्रेजी की यह नीति रोज ही हमारे सामने घटित होती दिखती है.
कुछ हिन्दी-द्वेषी अंग्रेजी की चापलूसी में कहते हैं कि स्थानीय भाषाओं का क्या होगा ? जाहिर है कि ऐसे लोगों का पढ़ने-लिखने से ज्यादा वास्ता नहीं होता या वो कोई छिपा हुआ एजेंडा आगे बढ़ा रहे होते हैं. आदमी हो या भाषा, हवाई दावों के बजाय हमें जमीनी करनी देखने चाहिए. अगर बात हिन्दी पट्टी की करें तो आप उसकी किसी भी भाषा (अवधी-भोजपुरी-ब्रज-राजस्थानी इत्यादि) को उठा लीजिए, पिछले सौ साल में उन्हें किसी ने संरक्षित किया है तो वह हिन्दी है.
हिन्दी अकादमिया के बौद्धिक क्रियाकलापों के केंद्र में आज भी सूर-कबीर-तुलसी-मीरा हैं. क्या आपको भारतीय अंग्रेजी अकादमिया या उर्दू अकादमिया के बारे पिछले 100-50 सालों के अवदान के बारे में पता है ? उनकी बौद्धिक क्रियाकलापों के केंद्र में कौन है ? क्या यह महज साहित्यिक आस्वाद का मामला है कि ब्रिटेन से ज्यादा शेक्सपीयर भारत में खेला जा रहा है ! आपको बुरा लगे या भला, कहा यही जाएगा कि आपके दिमाग को अंग्रेजी ने कोलोनाइज्ड कर रखा है. अंग्रेजी एक भाषा है, ज्ञान-विज्ञान नहीं. उसकी आज जो भी स्थिति है वह उसके दो सौ सालों के निर्मम कोलोनियल सत्ता की देन है. उसकी मौजूदा स्थिति सत्ता की ताकत है, भाषा की नहीं.
मनुष्य चाहकर भी अपना इतिहास नहीं मिटा सकता. भारत जैसे देश चाहकर भी अंग्रेजी नहीं छोड़ सकते. अनचाहे ही इतनी दूर साथ आ गये हैं तो अब छोड़ना ठीक भी नहीं है. दूसरों के फेंके हुए पत्थर की सीढ़ी बना लेने वाले ही समझदार कहे गये हैं. कभी अंग्रेजी आपदा थी तो आज वह अवसर है. बात केवल इतनी है कि आप अंग्रेजी को पहली भाषा बनाए रखना चाहते हैं और हम उसे दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में उपयोगी मानते हैं.
सच तो यह है कि कैरियर के लिहाज से आज चीनी या अरबी सीखना ज्यादा मुनाफे का सौदा है. अंग्रेजी तो कम-ज्यादा दुनिया में असंख्य भारतीयों को आती है. दुनिया जिस तरह घूम रही है उसे देखते हुए डॉलर अपने वर्चस्व को बचाने के लिए संघर्षरत दिख रहा है. यदि सचमुच चीन दुनिया का चक्का अपनी तरफ घुमाने में सफल रहा तो क्या हम पूरे देश को चीनी सिखाना शुरू कर देंगे ? यह गुलामों का लक्षण है जो अपना जीवन क्लर्क बनने में धन्य समझते हैं. ऐसे लोग राजा बदलने के साथ ही संस्कृत, फारसी या अंग्रेजी सीखने लगते हैं ! किसी राष्ट्र को ऐसे पेटबन्धे लोगों की तरह नहीं सोचना चाहिए.
मौलिकता या ज्ञान भाषा के ग्लासहाउस में नहीं कैद किये जा सकते. इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं गौतम बुद्ध. उन्होंने अपनी भाषा में अपनी बात कही. जिनको वह बात जाननी समझनी थी, उन्होंने वह भाषा सीखी. फारसी, फ्रेंच, स्पैनिश और अंग्रेजी जैसी भाषाओं का दुनिया में विस्तार सत्ता के दम पर हुआ लेकिन मागधी (पाली तो बाद का नाम है) से हर भाषा ने स्वेच्छा से अनुवाद किया.
आप देख ही रहे होंगे कि पिछले कुछ सालों में बिना कहे चिदम्बरम, थरूर, विजयन जैसे भी हिन्दी में ट्वीट करना सीख चुके हैं. कई दशकों से हिन्दी-विरोध की खेती कर रहे स्टालिन भी अब अपने वीडियो का हिन्दी सबटाइटल जारी करवा रहे हैं. उन्होंने हिन्दी लोक में अपना प्रचार करने के लिए एक हिन्दी पत्रकार को काम पर भी रख लिया है.
हिन्दी की यह ताकत गांधी जी ने समझी थी, आजादी मिलने की खुशी में नेहरू जी उसे भूल गये. आज जरूरत है कि हिन्दी प्रदेश को खुद को आर्थिक रूप से समृद्ध बनायें. जिनको हिन्दी पट्टी में धन्धा करना होगा वो अपने आप हिन्दी सीख लेंगे. गूगल और फेसबुक वगैरह को ही देख लीजिए. आज वो साहित्य अकादमी से ज्यादा भारतीय भाषा प्रेमी बन चुके हैं.
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