सुब्रतो चटर्जी
भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं. ये सवाल वाजिब भी हैं. सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि 2014 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था का मानवीय चेहरा कहीं खो गया है. जनकल्याणकारी राज्य का पतन इतनी जल्दी हुआ है कि आज देश की अस्सी करोड़ जनता मोदी झोला पर आश्रित है. मेरे पिछले लेख में मैंने सविस्तार इसके कारणों की व्याख्या की थी.
राहुल गांधी भी कमोबेश यही कह रहे हैं. MSME क्षेत्र की बर्बादी, असंगठित क्षेत्र की बर्बादी, छोटे किसानों की बर्बादी, सरकारी संस्थानों की बर्बादी, निजी पूंजी में अश्लील बढ़त इत्यादि कुछ ऐसे कारक हैं, जिनके चलते भारत रवांडा बनने की स्थिति में आ गया है. बढ़ते हुए विदेशी क़र्ज़, 80 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ में डूबी राज्य सरकारें, 46 लाख करोड़ रुपये के घरेलू क़र्ज़ में डूबी केंद्र सरकार, 6.1% की दर से बढ़ती क़ीमतें और पिछले 40 सालों में सबसे अधिक बेरोज़गारी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की कफ़न में जो कीलें ठोंक दी हैं, उनको निकाल पाना इतना आसान नहीं है. मोदी सरकार ने भारत की अर्थव्यवस्था को भोथी छुरी से काटा है.
सवाल इससे आगे का है. सवाल ये है कि क्या कोई भी आने वाली अन्य दल की सरकार (जिसकी दूर दूर तक कोई संभावना नहीं है) इस गंदे पानी को साफ़ करने के लिए क्या reverse osmosis का method अपनाएगी ? क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि कॉंग्रेस की सरकार बनने की असंभव स्थिति में भी वह नेहरूवादी समाजवाद की तरफ़ फिर से लौट सकेगी ? सवाल hypothetical है, लेकिन लाज़िमी है, क्योंकि धुर दक्षिणपंथ का विरोध तो सिर्फ़ दो तरीक़े से ही हो सकता है, एक लेफ़्ट टू द सेंटर की राजनीति से जिसकी बात आज राहुल गांधी कर रहे हैं, और दूसरे कम्युनिस्ट पार्टी से, जिसका कोई जनाधार भारत में आज नहीं है.
अगर मान भी लिया जाए कि 2024 में कॉंग्रेस जीत गई तो उसे परिस्थितियों को संभालने के लिए सिर्फ़ न्याय योजना पर काम करने से काफ़ी नहीं होगा. राहत सामग्री बांटकर फ़ौरी राहत पहुंचाई जा सकती है, लेकिन इससे बीमारी का इलाज नहीं होगा. कांग्रेस को इसके लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय करण, निजी संपत्ति के एक सीमा के बाहर उन्मूलन, कृषि एवं भूमि सुधार, जल, वन और आदिवासी समुदाय, अल्पसंख्यक समुदाय और दलितों के अधिकारों की रक्षा हर क़ीमत पर दृढ़प्रतिज्ञ होकर करनी होगी.
साथ ही सामाजिक सद्भाव की पुनर्बहाली के लिए भाजपा, संघ और इनके सारे आनुषंगिक संगठनों पर प्रतिबंध लगा कर सबको उनके पापों के लिए क़ानूनी रूप से सज़ा देनी होगी, चाहे वह आज किसी भी पद पर क्यों न बैठा हो. नई सरकार को मोदी सरकार के द्वारा लिए गए हरेक जनविरोधी नीतियों को पलटना होगा. मोदी सरकार के द्वारा अपने मित्रों को माफ़ किया गया बैंकों के हरेक पैसे की वसूली करनी होगी. प्रशासन और न्यायपालिका में बैठे हुए हरेक संघी को बर्खास्त कर जेल भेजना होगा.
अर्थव्यवस्था को कम से कम अगले दस सालों के लिए पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में लेना होगा और ख़ास कर अदानी अंबानी जैसों की पूरी संपत्ति और व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण करना होगा. आपको लग सकता है कि मैं कुछ ज़्यादा ही उम्मीद कर रहा हूं. आप सही हैं. मुझे भी मालूम है कि ये इनसे नहीं हो पाएगा और आपकी तरह जनता को भी मालूम है इसलिए, बिना इन नारों और ऐसे मैनिफ़ेस्टो के जनता कांग्रेस को वोट नहीं देगी.
दूसरी स्थिति ये है कि मोदी सरकार अपनी नीतियों से पीछे नहीं हट सकती है. अपनी ‘अंतरात्मा’ की आवाज़ सुनकर हत्यारे मैक्बेथ में कहा कि I have stepped too deep in the blood to return. (मैं ख़ून की दरिया में इतना दूर आ गया हूं कि अब चाह कर भी पीछे नहीं लौट सकता). क्या मोदी सरकार नोटबंदी से मची तबाही को पलट सकती है ? नहीं.
अब सरकार के सामने एक ही रास्ता बचा है. बाज़ार में तरलता की भयानक कमी और विनिर्माण, उद्योग और रोज़गार के क्षेत्रों में आए महामंदी से निपटने के लिये कम से कम दो सालों के लिए हरेक प्रकार के धन को बाज़ार में आने की खुली छूट दे, सफ़ेद हो या काला कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. मरते हुए धुर दक्षिणपंथी शासकों के लिए यही एक रास्ता बचा है क्योंकि दूसरा रास्ता दिवास्वप्न है. सरकार इस्तीफ़ा दे. वैसे आपको मालूम है कि फ़ासिस्ट इस्तीफ़ा नहीं देते.
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