हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
आज भारतीय जनता पार्टी को बधाई देने का दिन है. 42 वर्ष पहले आज के ही दिन उसका जन्म हुआ था. अब, वैचारिक स्तरों पर भले ही आपको विरोध हो, जन्मदिन की बधाई तो बनती ही है. इसमें भी शक नहीं कि ऐसे बहुत सारे लोग होंगे जो आज के दिन सोच रहे होंगे कि यह जन्म न हुआ होता तो देश का भला ही होता. पर, मानना होगा कि कोई भी राजनीतिक दल किसी स्पेस को ही भरता है. ऐसा स्पेस, जो राजनीतिक-वैचारिक आकाश पर पूर्व से स्थापित दल बनाते हैं.
हालांकि, इसे जन्मदिन नहीं, पुनर्जन्मदिन कहना चाहिये. जैसा कि सब जानते हैं, पूर्वजन्म में भाजपा का नाम भारतीय जनसंघ हुआ करता था. दीपक छाप के साथ इसके प्रत्याशी चुनाव लड़ा करते थे और अपवादों को छोड़ अक्सर हार जाया करते थे. तब के दौर में इसे उत्तर भारत के ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कहा जाता था, हालांकि, ब्राह्मण तब मूलतः कांग्रेस के कोर वोटर हुआ करते थे. कुछेक क्षेत्रों में जरूर वे जनसंघ के प्रत्याशियों को वोट दिया करते थे.
शहरों में रहने वाले छोटे-मंझोले बनियों के एक वर्ग का वोट मिले न मिले, आर्थिक-व्यावहारिक सहयोग इसे लगातार मिलता रहा. श्रीहीन और अधिकारविहीन हो चुके राजाओं-जमींदारों के एक वर्ग का भी इसे सक्रिय समर्थन मिलता रहा. तब के जनसंघ में आरएसएस से आए प्रचारकों और स्वयंसेवकों की ही बहुलता रहती थी क्योंकि सत्ता की चाशनी के लोभी राजनीतिक नेताओं-कार्यकर्त्ताओं को यहां कुछ अधिक हासिल होने की संभावना नहीं दिखती थी.
मानना होगा कि संघ के स्वयंसेवकों और जनसंघ के नेताओं ने चुनावी जीत या हार की परवाह न करते हुए लगातार संघर्ष किया. जिन्होंने उन्हें नजदीक से देखा है वे इस संघर्ष को कठोर तप की संज्ञा भी दे सकते हैं. बावजूद इन संघर्षशील नेताओं के तप के, देश की मुख्यधारा की राजनीति इन जनसंघियों को वैचारिक तौर पर गहरे सन्देह की नजर से देखती थी. वह तो भला हो उन समाजवादियों का, जिन्होंने 60 के दशक के उत्तरार्द्ध में कुछ संविद सरकारों में जनसंघ को शामिल करके उसे पहली बार राजनीतिक स्वीकृति दी.
लेकिन, भारतीय राजनीति में जनसंघ को राष्ट्रीय और वैचारिक स्तरों पर पहली बार व्यापक स्वीकृति तब मिली जब 1974-75 में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा विरोध के आवेग में जनसंघ को अपनी छाया में बनी जनता पार्टी में शामिल कर लिया. तब, जनसंघ के लोगों ने जनता पार्टी की सदस्यता के उस पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, जिसमें लिखा था, ‘मैं महात्मा गांधी द्वारा देश के समक्ष प्रस्तुत मूल्यों और आदर्शों में आस्था जताता हूं और समाजवादी राज्य की स्थापना के लिये खुद को प्रस्तुत करता हूं.’
‘अगर जनसंघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं…’ कहा जाता है कि उस दौरान जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस के विरोध में विपक्ष को एक करने और उसमें जनसंघ को जोड़ने के उत्साह में यह कहा था. जबकि, समाजवादी कहते हैं कि जेपी के इस कथन को सन्दर्भ से काट कर उद्धृत किया जाता है.
बहरहाल, कांग्रेस को 1977 के चुनावों में सत्ता से बाहर करने और सरकार बनाने के बाद जनता पार्टी का जो हश्र हुआ वह इतिहास में दर्ज है. इस बिखराव के कई कारण थे जिनमें एक यह भी था कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के लोगों की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति निष्ठा ने दोहरी सदस्यता का विवाद खड़ा कर दिया था. कोई यह उम्मीद भी कैसे करता था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक छांव में पले-बढ़े नेतागण जनता पार्टी में आने के बाद संघ के प्रति अपनी निष्ठा त्याग देंगे या इस निष्ठा को वरीयता नहीं दे कर किन्हीं अन्य आदर्शों की ओर बढ़ेंगे ?
जनता पार्टी की ऐतिहासिक टूट के बाद ‘कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा’ की तर्ज पर न जाने कितनी पार्टियां बनीं, बनती रही. उसी सिलसिले में पूर्व जनसंघ के लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 6 अप्रैल, 1980 को ‘भारतीय जनता पार्टी’ के नाम से एक नए राजनीतिक दल की स्थापना की. यह जनसंघ की आत्मा का भारतीय जनता पार्टी की काया में नया जन्म था और जाहिर है, आरएसएस इनकी वैचारिकी का मूल आधार था. लेकिन, स्थापना के समय भाजपा ने देश के सामने अपना घोषित आदर्श ‘गांधीवादी समाजवाद’ के रूप में रखा.
आज हिन्दू राष्ट्र की अलख जगा रहे युवा भाजपाइयों के लिये घोर ताज्जुब की बात होगी जब उन्हें बताया जाएगा कि उनकी पार्टी ने अपनी स्थापना के समय ‘गांधी’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्दों को अपने माथे पर सजाया था. आज के भाजपाई गांधी को गालियां देने वाले लम्पट सन्तों या सन्तिनियों को अपने कंधों पर लादे घूमते हैं और उनकी सरकार ने समाजवाद की कैसी ऐसी की तैसी कर डाली है, यह कोई भी देख समझ सकता है.
‘गांधीवादी समाजवाद और भारतीय जनता पार्टी’…अगर कोई इस पर शोध आलेख लिखे तो कितने दिलचस्प और अंतर्विरोधी तथ्य सामने आएंगे ? लोग लिख ही रहे हैं, लिखेंगे भी. अपने एक कंधे पर एकायामी राष्ट्रवाद और दूसरे कंधे पर प्रतिगामी संस्कृतिवाद को लादे भाजपा कारपोरेटवाद की गोद में बैठ कर राजनीति की जिस उड़ान को भरती आज इन ऊंचाइयों पर जा पहुंची है, उसकी गाथा में भारतीय राजनीति की कई परतों के अंधेरों-उजालों की प्रभावी भूमिका है.
आज जेपी को जिम्मेवार ठहराने वाले लोगों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपने स्पर्श से जनसंघ की धारा को मुख्यधारा में सम्मिलित और स्वीकृत हो जाने का अवसर दिया था. उसके साढ़े तीन दशक बाद अन्ना आंदोलन ने उसे देश की राजनीति के शीर्ष पर काबिज होने के लिये मंच मुहैया कराया था. बाकी, उसके रणनीतिकारों के अथक परिश्रम और अचूक रणनीति की भूमिका तो रही ही.
सबसे प्रभावी भूमिका रही कारपोरेट शक्तियों की, जिन्होंने अपने व्यापारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में राष्ट्रवाद को अपना औजार बनाया. भाजपा के लिये कारपोरेट का यह अभियान वरदान साबित हुआ. भाजपा की राजनीतिक उपलब्धियां आंखें चौंधिया देने वाली हैं. भले ही उसका गांधीवादी समाजवाद कहीं कूड़े की ढेर पर पड़ा हो और उसके कार्यकर्त्ता आज गांधी को बिना ठीक से जाने उनका उपहास उड़ाने में गर्व का अनुभव करते हों !
आज कार्पोरेटवाद वैश्विक स्तरों पर विभिन्न अंतर्विरोधों के मुकाबिल खड़ा है और प्रतिरोधी शक्तियों की आवाज बुलंद होती जा रही है. भारत भी अधिक दिनों तक इससे अछूता नहीं रह सकता. भाजपा का भावी परिदृश्य पूंजी की शक्तियों के राज में उभरते अंतर्विरोधों के हश्र पर निर्भर है. जाहिर है, कारपोरेट की गोदी में बैठ कर राष्ट्र और गरीबों के नाम पर की जा रही राजनीति बहुत लंबी नहीं चल सकती. जीवन से जुड़े मौलिक सवालों को हल करने में विफल कोई राजनीतिक दल कितने दिनों तक सफलता के हिंडोलों पर सैर कर सकता है ? दस वर्ष…? पंद्रह वर्ष…? या उससे अधिक भी ?
इस सवाल का उत्तर पाने के लिये दुनिया के इतिहास को पढा-समझा जा सकता है.
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