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रुस जैसे भरोसेमंद दोस्त को खोकर अमेरिका से दोस्ती गांठने का साहस मोदी जैसे अवसरवादी के पास भी नहीं

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रुस जैसे भरोसेमंद दोस्त को खोकर अमेरिका से दोस्ती गांठने का साहस मोदी जैसे अवसरवादी के पास भी नहीं
रुस जैसे भरोसेमंद दोस्त को खोकर अमेरिका से दोस्ती गांठने का साहस मोदी जैसे अवसरवादी के पास भी नहीं

आरएसएस अपने जन्मकाल (1925) से ही ब्रिटिश शासन का पिट्ठू रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब भारत ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ और दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद का डंका बजने लगा तब आरएसएस अमेरिका का पिछलग्गू बन गया. दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आरएसएस भारत में अमेरिकी साम्राज्यवाद का आधार बन गया और नवोदित भारत सरकार पर अमेरिकी दवाब बनाने का एक माध्यम बन गया.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस चीज को बखूबी समझते थे, इसीलिए वह आरएसएस के विरोध को दरकिनार करते हुए दो खेमों में बंटी दुनिया के बीच अपना एक स्वतंत्र निर्णय लेते हुए गुटनिरपेक्ष रहते हुए भी खुद को सोवियत संघ के करीब रखा और मित्रतापूर्ण संबंध कायम किया. लेकिन तब भी 1962 में अमेरिकी साम्राज्यवाद के देशी दलाल आरएसएस के दवाब में चीन के खिलाफ युद्व में उतर गया, जहां मूंह की खाई.

अब जब आरएसएस देश की सत्ता पर काबिज है और रुस ने अमेरिकी साम्राज्यवाद को खुली चुनौती देते हुए यूक्रेन में अपनी फौज भेज दिया है तब इस अमेरिकी दलाल आरएसएस को सांप सूंघ गया है. वह न तो अमेरिका के लिए अपना दलाली धर्म निभा पा रहा है और न ही रुस से मित्रता तोड़ पा रहा है, जिसका निर्माण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु ने किया था. उधर अमेरिका लगातार भारत को रुस से संबंध खत्म करने के लिए धमकी दे रहा है, तब भी यह संघी नेहरू को रात-दिन गाली देने के बाद भी रुस से संबंध नहीं तोड़ पा रहा है और नेहरु के पथ का अनुसरण करना पड़ रहा है.

यूक्रेन में चल रही भीषण जंग के बीच अमेरिका ने तेल के बाद अब रूसी हथियारों को लेकर भारत को धमकाना शुरू कर दिया है. अमेरिका के रक्षामंत्री लॉयड आस्टिन ने मंगलवार को अमेरिकी सांसदों से कहा कि रूसी हथियारों में निवेश करना भारत के हित में नहीं है. उन्‍होंने यह भी कहा कि अमेरिका चाहता है कि भारत रूसी हथियारों पर से अपनी निर्भरता को कम करे.

विश्‍लेषकों का मानना है कि अमेरिकी रक्षामंत्री रूस से हथियार नहीं लेने के लिए धमका रहे हैं लेकिन इसके बदले में वह भारत को घातक हथियार मुहैया नहीं करा रहा है जो हमें अभी रूस दे रहा है और चीन से निपटने के लिए नई दिल्‍ली को उसकी जरूरत है. अमेरिका उसे भारत को न देकर ऑस्‍ट्रेलिया को दे रहा है.

अमेरिका के वार्षिक रक्षा बजट पर संसद की कार्यवाही के दौरान ऑस्टिन ने सदन की सशस्त्र सेवा समिति के सदस्यों के समक्ष कहा, ‘हम उनके (भारत) साथ बात करके उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि रूसी उपकरणों में निवेश जारी रखना उनके हित में नहीं है. हम चाहते हैं कि वे (भारत) सभी प्रकार के रूसी उपकरणों में निवेश कम करें.’ अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड ने रूस से हथियार खरीदने पर भारत को यह चेतावनी ठीक उसी दिन दी है जब अमेरिका ने ब्रिटेन और ऑस्‍ट्रेलिया के साथ मिलकर आधुनिक ‘ब्रह्मास्‍त्र’ कहे जाने वाले हाइपरसोनिक मिसाइलों को बनाने का समझौता किया है.

इसमें मजेदार बात यह है कि अमेरिका जिस हाइपरसोनिक मिसाइलें बनाने के लिए अब समझौता कर रहा है, रुसी सेना उसका प्रयोग भी कर रही है. इसी एक उदाहरण से यह समझना बेहद आसान हो जाता है कि अमेरिका की तुलना में रुसी हथियार कितना ज्यादा कारगर, ते और घातक है. ऐसे में रुस जैसे भरोसेमंद दोस्त को खोकर अमेरिका जैसे अवसरवादी का पुछल्ला बनना अब आरएसएस ब्रांड मोदी को भी गंवारा नहीं है.

अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्‍ट्रेलिया ने चीन के खतरे से निपटने के लिए ऑकस सैन्‍य समझौता कर रखा है. इसी ऑकस समझौते के तहत अमेरिका ऑस्‍ट्रेलिया को दुनिया में कहीं भी तबाही मचाने में सक्षम परमाणु पनडुब्बियों को बनाने की तकनीक दे रहा है. इस परमाणु पनडुब्‍बी डील के महत्‍व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब तक अमेरिका ने किसी भी देश को यह तकनीक नहीं दी है. एक तरफ जहां अमेरिका का बाइडन प्रशासन चीन से निपटने के लिए ऑस्‍ट्रेलिया को अत्‍याधुनिक हथियार दे रहा है, वहीं ड्रैगन की घुसपैठ का सामना कर रहे भारत को इन हथियारों को देने से मना कर रहा है. वह भी तब जब अमेरिका यह दावा करता है कि भारत हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका का भागीदार देश है.

वहीं, रूस भारत को ऐसी संवेदनशील तकनीक दे रहा है जो अमेरिका या कोई भी पश्चिमी देश भारत को नहीं दे रहा है. यह वही अमेरिका है जिसने भारत को क्रायोजनिक इंजन देने से मना कर दिया था, तब रूस हमारी मदद को आगे आया था. रूस ने हमें क्रायोजनिक इंजन दिए जिससे सीखकर भारत आज अपना खुद का क्रायोजनिक इंजन बना रहा है. इसी इंजन की मदद से अंतरिक्ष में रॉकेट भेज रहा है.

इसके अलावा रूस के कई हथियार जैसे एस-400 अमेरिकी हथियारों से ज्‍यादा कारगर और सस्‍ते हैं. यही वजह है कि भारत ने अमेरिका के पेट्रियाट की जगह पर रूस से एस-400 को चुना है. अमेरिका हथियारों की सप्‍लाइ को लेकर विश्‍वसनीय नहीं है और कभी भी प्रतिबंध लगाकर भारत को सप्‍लाइ रोक सकता है. वहीं रूस हर मुश्किल में भारत का साथ दे रहा है. लद्दाख संकट के दौरान भारत ने हजारों करोड़ के हथियार रूस से खरीदे हैं.

यूक्रेन को रूस के खिलाफ आगे बढ़ाकर खुद पीछे हट जाने के कारण अमेरिका की दुनियाभर में किरकिरी हो रही है, लेकिन वह भारत को बता रहा है कि रूस भरोसेमंद नहीं है. भारत दौरे पर आए अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा उप-सलाहकार (Deputy NSA) दलीप सिंह ने कहा है कि चीन ने कभी भारत में अतिक्रमण किया तो रूस उसके बचाव के लिए खड़ा नहीं होगा.

अमेरिका का यह बयान यूक्रेन-रूस युद्ध में भारत की तटस्थता के कारण उसकी तिलमिलाहट के तौर पर देखा जा सकता है. माना जा रहा है कि रूस के खिलाफ भारत का साथ पाने का हर दांव फेल होने से अमेरिका संभवतः आहत है और अब उसने भारत के आगे रूस-चीन दोस्ती के खतरों का नया पासा फेंका है लेकिन इतिहास बताता है कि जब भी जरूरत पड़ी, रूस ने भारत का साथ दिया जबकि अमेरिका हमेशा भारत के विरोध में पाकिस्तान का साथ देता रहा है.

अमेरिका अविश्वनीय है. इसका अहसास यूक्रेन मसले के कारण अब दुनिया को भी हो गया है. यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदिमीर जेलेंस्की ने जब ऐलान किया कि उनका देश अमेरिकी नेतृत्व वाले 29 देशों के सैन्य गठबंधन नाटो का सदस्य होगा और रूस ने इस पर आपत्ति जताते हुए जेलेंस्की से कहा कि आप हमारे बैकयार्ड में नाटो को नहीं ला सकते हैं, तब अमेरिका ने जेलेंस्की को खूब चढ़ाया.

अमेरिका ने जेलेंस्की को भरोसा दिलाया कि अगर रूस ने उसके खिलाफ कोई हरकत की तो नाटो तैयार है लेकिन, असल में क्या हुआ, यह दुनिया देख रही है. रूस ने जब जेलेंस्की के खिलाफ युद्ध छेड़ा तो नाटो और अमेरिका की हिम्मत नहीं हो रही है जेलेंस्की की मदद में रुस के खिलाफ युद्ध का ऐलान करने की. वह चुपचाप देख रहा है.

अमेरिका और उसके सहयोगी देश यूक्रेन को हथियार और गोला-बारूद तो भेज रहे हैं, लेकिन रूस से मोर्चा लेने के लिए नाटो की सेना नहीं उतारी गई. अब जेलेंस्की को समझ आ गया कि उन्होंने अमेरिका पर भरोसा करके कितनी बड़ी भूल की है. उनके बयानों में अफसोस का यह भाव महसूस किया जा सकता है. अब तो उन्होंने खुलकर कह दिया कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बनेगा.

अमेरिका के विश्वाघात के ऐसे अनेक किस्से भरे पड़े हैं. जहां तक बात भारत के साथ रूस के बरक्स अमेरिका के संबंधों की है तो इतिहास गवाह है कि रूस हर मौके पर भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहा है जबकि अमेरिका विरोध का कोई मौका नहीं चूका है.

भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर बीते 75 वर्षों से तनातनी चली आ रही है. दुनिया की पंचायत संयुक्त राष्ट्र (UN) में कश्मीर के मुद्दे पर भारत के खिलाफ छह प्रस्ताव लाए गए और रूस ने हर बार उसका विरोध किया. दूसरी तरफ अमेरिका ने हर बार भारत का विरोध किया. फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे देश भी भारत का विरोध किया करते थे, लेकिन बाद के दिनों में उन्होंने भी अपना स्टैंड बदला और भारत का साथ देने लगे, लेकिन अमेरिका ने एक बार भी भारत का साथ नहीं दिया.

वर्ष 1971 में जब बांग्लादेश की आजादी के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ा तो अमेरिका खुलकर पाकिस्तान के समर्थन में खड़ा हो गया. उस दौर के अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन बिल्कुल नहीं चाहते थे कि इस युद्ध में भारत की जीत हो और पाकिस्तानी सेना सरेंडर कर दे. इस कारण युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए बंगाल की खाड़ी में अपनी नौ सेना का सातवां बेड़ा रवाना कर दिया था. तब भी अमेरिका धोखेबाजी का ही सहारा ले रहा था.

उसने कहा था कि भारत से अपने नागरिकों को निकालने के लिए उसने नौसैनिक बेड़ा भेजा है. हालांकि, वर्ष 2011 के आखिरी महीनों में उजागर हुए खुफिया दस्तावेज साफ हो गया कि 1971 की जंग के दौरान अमेरिकी सेना को भारतीय सेना पर हमले के आदेश दिए जा चुके थे. तब तक सोवियत खुफिया एजेंसियों को पता चला कि इंग्लैंड का एयरक्राफ्ट कैरियर ईगल भी भारत की तरफ बढ़ रहा है.

बस क्या था, तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति लियोनिड ब्रेझनेव ने व्लाडिवोस्तोक से परमाणु हथायिरों से लैस जहाजों को रवाना करने का आदेश दे दिया. 13 दिसंबर 1971 को प्रशांत महासागर में रूस के दसवें बैटल ग्रुप के कमांडर व्लादिमीर क्रुगल्योकोव की अगुवाई में जहाज रवाना हो गए. इस बेड़े में न्यूक्लियर पनडुब्बी भी थी लेकिन टॉरपीडो और मिसाइलों की रेंज 300 किलोमीटर थी इसलिए रूसी बेड़े को चक्कर लगाकर उनके आगे निकलना था, इसमें वो कामयाब हो गए. रूसी बेड़े ने यूएसएस एंटरप्राइज की तरफ मिसाइलें घुमा दीं. ब्रिटिश बेड़ा मेडागास्कर की तरफ भाग खड़ा हुआ. घबराकर अमेरिका ने भी अपने सातवें बेड़े को रुकने का ऑर्डर दे दिया.

14 दिसंबर को पाकिस्तानी जनरल एके नियाजी ने ढाका स्थित अमेरिकन काउंसल जनरल को बता दिया कि वो आत्मसमर्पण करना चाहते हैं और 16 दिसंबर को पाकिस्तान की 93 हजार सेना ने भारत के आगे हथियार डाल दिए. उजागर हुए गोपनीय दस्तावेज से पता चलता है कि किसिंजर ने राष्ट्रपति निक्सन से कहा कि भारत को दबाते रहना होगा, तब निक्सन ने कहा कि हां, पाकिस्तान का साथ देते रहना होगा.

बहरहाल, इस घटना से समझ लीजिए कि अगर उस वक्त रूस ने भारत के समर्थन में अपनी परमाणु पनडुब्बी नहीं भेजी होती तो अमेरिका ने इंग्लैंड के साथ साझेदारी से भारत पर आफत की बारिश कर देता और संभवतः आज इतिहास कुछ और ही होता.

अमेरिका के ताजा बयान में डिप्टी एनएसए दलीप सिंह ने कहा कि यदि चीन ने एलएसी पर अतिक्रमण किया तो भारत ऐसी उम्मीद न लगाए कि रूस उसकी मदद करेगा. निश्चित रूप से यह सलाह से ज्यादा चिढ़ है. अमेरिका इस बात से भी चिढ़ा हुआ है कि भारत ने पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीनी अतिक्रमण के दौरान अमेरिका के इशारे पर युद्ध नहीं छेड़ा.

विशेषज्ञों की मानें तो अमेरिका अपनी फितरत के मुताबिक लद्दाख की घटना को भारत-चीन के बीच युद्ध के मौके के रूप में देख रहा था, लेकिन उसे निराशा हाथ लगी. आज यूक्रेन युद्ध के आईने में हर कोई कहने लगा है कि अगर भारत ने भी अमेरिका की सह पर चीन के खिलाफ युद्ध की दुदुंभी फूंकी होती तो क्या गारंटी थी कि अमेरिका का साथ मिल गया होता ?

रुस जैसे भरोसेमंद दोस्त को अवसरवादी अमेरिकी साम्राज्यवाद के तलबे चाटने के लिए छोड़ना अमेरिकी दलाल आरएसएस ब्रांड मोदी के लिए भी संभव नहीं हो रहा है और उसे मजबूरी में जवाहरलाल नेहरू को गालियां देते हुए भी उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित विदेश नीति पर ही चलना पड़ रहा है. सचमुच जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रतिपादित विदेश नीति पर चलना मोदी जैसे अवसरवादी के लिए जीते जी मृत्यु के समान है.

(नव भारत टाइम्स में प्रकाशित शैलेश कुमार शुक्ला, नवीन कुमार पाण्डेय के लेख के सहयोग से)

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