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यहां तक आते आते

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सदियों बीत गये यहां तक आते आते,
हज़ारों वर्ष लाखों दिन अनवरत चलते चलते,
क़बीले, गांव और शहर आते आते

नंगधड़ंग जीवन, शिकार आदिम खूंखार जिंदगी,
छोड़ते छोड़ते छूट गए अपने,
सभ्यता के दहलीज़ तक आते आते

खेती शिक्षा व्यापार सियासी बाजार के हिस्से हैं,
सबको मिटाकर विपणन हावी हैं जीवन पर,
पगार दिहाड़ी की ढर्रे पर आते आते

अब तो फल, पशु, इंसान, रंग भी बट गए मज़हब में,
हवा पानी रोशनी बटना बाकी हैं,
क्या पता ये भी बट जाये दो हज़ार चौबीस आते आते

रब को इंसान में नहीं पत्थरों में तलाशने लगे हैं,
मतों को धर्म के कफ़न में लपेटा जाने लगा हैं,
घर से मंदिर और मस्जिद तक आते आते

धर्म जो अब सियासी औज़ार बन गया है,
दंगा फ़साद खून की नदियां बहने लगी,
आदिम युग से विकासयुग तक आते आते

भूख और अस्तित्व की जंग में मरते कटते थे तब,
अब मज़हबी उन्मादना में बह रहा हैं लहू,
जहां से चले थे वहीं आ गए बेवज़ह युगों से चलते चलते

हालात से बेख़बर मज़हबी जुनून मगज़ पर सवार हैं,
यंत्रमानव बना दिया सियासत ने,
आदिमानव से शिक्षायुग तक आते आते

  • विश्वबंधु

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ROHIT SHARMA

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