एक बाप था, उसके पांच बेटे थे. वे सुबह-शाम लड़ते रहते थे लेकिन रात होते ही सब साथ मिलकर टीवी देखते थे. बाप भी खुश था, बेटे भी खुश.
बाप का अंतिम समय आया तो उसे चिंता होने लगी. वह चाहता था कि ये सुबह-शाम लड़ा न करे और एक दूसरे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाना और वापस लेना बंद करें. वह पूर्ण सद्भाव का पक्षधर हो चला था लेकिन उसके बेटे उसकी सुनते नहीं थे.
एक आदर्श पिता की तरह उसके मन में भी अपने बेटों को एकता का सबक सिखाने की इच्छा उत्पन्न हुई. उसे एक अकेली लकड़ी के टूट जाने और लकड़ियों के गट्ठर के न टूटने की कहानी याद आई.
उसने इस कहानी पर अमल करते हुए पांचों बेटों को आदेश दिया कि वे शाम को घर लौटते समय एक-एक लकड़ी अवश्य लेते आए्ं.
लकड़ी का जमाना लद चुका था. लाठी से भी काफी आगे निकल चुका था लेकिन गनीमत थी कि बाजार में फिर भी लाठी मिल जाया करती थी. सो हर बेटा, पिता की भावनाओं का सम्मान करते हुए एक-एक लाठी खरीद लाया.
शाम को पिता ने देखा कि हर लड़का एक-एक लकड़ी की बजाए एक-एक लाठी खरीद लाया है. अपनी योजना में व्यवधान आता देख पहले तो उसे निराशा हुई लेकिन वह अनुभवी था, जल्दी ही संभल गया.
उसने कहा, चलो तुमने यह भी अच्छा किया. अब तुम सब एक कतार में खड़े हो जाओ. एक-एक लड़का आता जाए और मेरे सिर में लाठी मारता जाए. मेरे मरते ही मेरी समस्या हल हो जाएगी. बाकी रही तुम्हारी अपनी समस्या तो तुम में से हर एक के पास अब एक-एक लाठी है और हर एक के पास अपना अपना सिर भी.
पुत्र आज्ञापालक थे. उन्होंने पहले पिता का उद्धार किया, फिर एक-दूसरे का.
- विष्णु नागर
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