Home कविताएं मुल्क की मुस्तकबिल का सवाल रह गया है

मुल्क की मुस्तकबिल का सवाल रह गया है

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घर चला गया है, एक मकान रह गया है
शाम की दहलीज़ पर एक बुझा चिराग़ रह गया है
लुटी हुई अस्मतों की घुटी हुई चीख़ों में
मुल्क की मुस्तकबिल का सवाल रह गया है

मुश्किल है इस दौर में सपनों को जिलाए रखना
मेरे अंदर फिर भी एक किरदार रह गया है
जो तुम न साथ दोगे तो कोई और देगा
कई सीनों में आज भी एक बवाल रह गया है

रेत के ढूहों पर मचलता समंदर है
किसी की तिश्नगी का वहां पर इलाज है
अमीरे शहर की मर्ज़ी है कि सब गूंगे हो यां
चुप हैं, लेकिन सब के मुंह में ज़बान है

  • सुब्रतो चटर्जी

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