सीवान में चंद्रशेखर की हत्या की खबर मुझे भाषा ने दी. भाषा, जो बाद में कड़क रिपोर्टर के रूप में विख्यात हुई, उसने भी अपनी पहली नौकरी उसी संस्थान में शुरू की थी, जहां से मैंने शुरू की, लेकिन मुझसे तीन-चार महीने बाद. यह 1 अप्रैल 1997 की बात है. तारीख एक व्यक्तिगत कारण से मुझे याद है. मैं कुछ लिख रहा था और उसने आकर बताया कि पिछली शाम चंद्रशेखर अपने शहर के एक प्रमुख चौराहे पर भाषण दे रहे थे, वहीं उनको कई गोलियां मारी गईं. यह भी कि अस्पताल पहुंचने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई.
मैंने दिन का काम उस समय शुरू ही किया था. थोड़ी देर तक मुझे बात ही समझ में नहीं आई कि वह कह क्या रही है. बमुश्किल छह-सात महीने हुए होंगे, चंद्रशेखर सीवान जाने की तैयारी कर रहे थे. उसी क्रम में एक दिन बाकायदा वक्त लेकर उन्होंने मुझसे बात की थी कि वहां की मास-पॉलिटिक्स कैसी होगी, मेरा जमीनी अनुभव क्या था, कैसे काम करना चाहिए.
चंद्रशेखर मेरे हमउम्र थे. गोपाल प्रधान, प्रणय कृष्ण और चंद्रशेखर. जेएनयू में आइसा (माले का अखिल भारतीय छात्र संगठन) के इन तीनों शुरुआती छात्र नेताओं से एक साथ मिलना-जुलना तो बैठकों, सम्मेलनों और छात्रसंघ चुनावों में ही होता था लेकिन अलग-अलग जब भी इनके साथ बैठने का मौका मिलता, हमारी बातें हमजोलियों जैसी ही होती थीं.
दो बिंदु इनमें चंद्रशेखर को बाकी दोनों से अलग करते थे. एक तो वे सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ की पृष्ठभूमि से आए थे इसलिए प्रणय और गोपाल जी की तरह छात्र जीवन से मेरा कोई परिचय उनके साथ नहीं था. दूसरा यह कि चंद्रशेखर ने 1992 से 1996 तक लगातार पांच बार जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और तीन बार जीत हासिल की. एक बार उपाध्यक्ष और दो बार अध्यक्ष रहकर उन्होंने इस संस्था को कैंपस से बाहर निकाला और दिल्ली में जन संघर्षों की धुरी बना दिया. उनका राजनीतिक कद इस क्रम में इतनी तेजी से बढ़ा कि उनकी सहज मिलनसारी के बावजूद राजनीतिक कामकाज को लेकर अपनी ओर से उन्हें कुछ बता पाने की स्थिति में मैं खुद को कभी नहीं पाता था.
सीवान रवानगी की तैयारी में गंभीर बातचीत से पहले तीन-चार बार चंद्रशेखर शकरपुर में मेरे निजी ठिकाने पर आए थे. इंदु को आराम करने को बोलकर खाना बनाया. प्रेम से परस कर सबको खिलाया. कभी थके हुए रहे तो कुछ देर वहीं सो भी गए, और मेरा बेटा थोड़ा उठाने लायक हुआ तो उसको कंधे पर बिठाकर पार्टी ऑफिस की तरफ निकल गए लेकिन उस बातचीत वाले दिन उनमें कुछ ऐसा था कि मुझे लगा, उनके चेहरे पर इससे पहले मैंने कभी गौर ही नहीं किया था.
फौजी किस्म की उनकी कद-काठी थी और दाढ़ी-मूंछों के बीच हमेशा हंसते रहने का स्वभाव था. वैसे भी वे दो साल नेशनल डिफेंस अकेडमी में बिताकर अकेडमिक्स की तरफ आए थे. आगे का एक दांत उनका आधा टूटा हुआ था, जिसके बारे में बताते थे कि अकेडमी में बॉक्सिंग के दौरान टूट गया था. मैंने कहा, यहीं बैठ लेते हैं. बोले, ‘नहीं। आज बाहर बैठेंगे. मेन सड़क की किसी टपरी पर एक-दो कड़क चाय लड़ाएंगे और शोर-शराबे के बीच बातें करेंगे.’
याद पड़ता है, उनकी मुद्रा में उस दिन कोई गहरी उदासी, कोई खालीपन झलक रहा था, जिसे वही ताड़ सकता था जो कभी इस मनोदशा से गुजरा हो. तीस-बत्तीस की उम्र में आप एक लंबी छलांग लगाने जा रहे हैं. कई चीजों, कई गहरे रिश्ते-नातों का यहीं छूट जाना तय है लेकिन आपके पैर कहां पड़ेंगे, इसका रत्ती भर भी अंदाजा आपको नहीं है. सामान्य स्थिति रहती तो उस दिन मैं उनसे प्रेम के बारे में बातें करता लेकिन स्थिति सामान्य नहीं थी, न उनकी और न मेरी.
चंद्रशेखर बहुत पहले जेएनयू से भर पाए थे. यहां से पिंड छुड़ाकर भागने की तरह उन्होंने एक बार कुछ समय मुंबई में बिताया था. वहां से आइसा नेता धीरेंद्र झा और अर्चना (गोपाल प्रधान की पत्नी) को लिखे उनके पत्र उनकी मृत्यु के बाद समकालीन जनमत में छपे थे. इन पत्रों में मौजूद एक-एक शब्द उनकी वितृष्णा की नाप जैसा था, हालांकि इनकी लिखाई उनके छात्रसंघ का पदभार ग्रहण करने से पहले की है. उनके इस पहलू की तब मुझे कोई जानकारी नहीं थी, फिर भी उस दिन बातचीत से पहले कहीं भीतर से लग रहा था कि चंद्रशेखर को दिल्ली में ही रहकर छात्र, युवा या किसी और मोर्चे पर काम करना चाहिए. सीवान या बिहार अगर जाना भी हो तो कभी बाद में जाना चाहिए, अभी तो बिल्कुल नहीं.
बताना जरूरी है कि मेरे लिए वह एक उलटी यात्रा का समय था. शादी के थोड़ा ही बाद मैं जनमत से निकलकर पार्टी का युवा संगठन इंकलाबी नौजवान सभा (इनौस) / रिवॉल्यूशनरी यूथ असोसिएशन (आरवाईए) बनाने के काम में गया. उसका दस्तावेज तैयार किया, युवा नेताओं से चिट्ठी-पत्री की, पार्टी के संपर्कों से पुरी (उड़ीसा) में उसका राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया और दिल्ली में कुछ जगह उसकी यूनिटें गठित कीं. लेकिन इस दौरान अपना घर चलाने का इंतजाम नहीं कर पाया और कुछ महीने अनुवाद वगैरह की जद्दोजहद के बाद नौकरी में जाने का फैसला किया.
पार्टी ने 1200 रुपया महीना कमरे का किराया छह महीने दिया था. उम्मीद थी कि इसके बाद युवा संगठन दिल्ली में अपना एक होलटाइमर टिकाने की व्यवस्था कर ले जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. हो सकता था, लेकिन इसमें एक-दो साल लग जाते. नहीं हुआ, क्योंकि तब मेरा बेटा दुनिया में आने वाला था, मुझे कुछ पैसे भी जुटाने थे. चंद्रशेखर ने मेरी नौकरी के पहले-दूसरे महीने में ही मुझसे वह बात छेड़ी थी, लिहाजा उनके और पार्टी के फैसले के बारे में मुझसे कुछ बोलते नहीं बना.
जो भी कहना था, फैसला लागू करने को लेकर ही कहा जा सकता था. सो मैं इतना कहकर रह गया कि सीवान शहर में ही रहकर काम करना जरूरी हो तो वहां जाकर कुछ दिन माहौल समझें और हाथ-मुंह बांधकर छोटे-मोटे संगठन खड़े करने में जुटे रहें. इस क्रम में थोड़ा डिफेंस मेकेनिज्म बन जाए, फिर खुलकर मैदान में उतरिएगा. यह भी कि चुनाव लड़ने वाले, जनसंघर्षों में लीड लेने वाले कई लोग इस जिले में पहले से मौजूद हैं. बतौर मास लीडर तड़ातड़ी में कुछ कर देना आपके लिए इतना जरूरी भी नहीं होना चाहिए.
बहरहाल, इस मशविरे का कुछ खास मतलब नहीं था. सीवान में चंद्रशेखर की स्थिति वैसी नहीं थी, जैसी आरा में मेरी थी. सीवान उनका अपना शहर था. अपने घर में आप लगातार हथियारबंद नहीं रह सकते, न ही वहां के लोग आपकी सुरक्षा को लेकर हमेशा सतर्क रह सकते हैं. यूं भी, हमले के वक्त उनके अकेले होने का अफसोस नहीं है. एक कार्यकर्ता श्याम नारायण यादव उनके साथ ही शहीद हुए और एक दुकानदार भुटेली मियां हत्यारों की गोली से मारे गए. काफी लोग उस समय उनके इर्द-गिर्द थे, बस अचानक हुए हमले से सकते की हालत में आ गए थे.
शहाबुद्दीन की क्रूरता और संभावित विरोधियों को तहस-नहस कर डालने के उसके किस्से पूरा बिहार बहुत पहले से जानता रहा है और अब तो पूरा देश जान गया है लेकिन इस हत्याकांड से पहले उसी सीवान में माले ने अपने विधायक जिताए थे और बतौर सांसद शहाबुद्दीन के चुनाव को लगातार तिकोना बनाया था. इस अपराधी राजनेता द्वारा चंद्रशेखर पर जानलेवा हमला कराने की अकेली वजह मुझे यही लगती है कि इसमें कामयाबी की उसे पूरी उम्मीद रही होगी.
जहां भी मार खा जाने का या हमले के वक्त बराबर का जवाब मिल जाने का खतरा हो, कोई गुंडा वहां कभी हाथ नहीं डालता. यह जवाबी खौफ हमले के वक्त शहाबुद्दीन के लोगों में नहीं था, अफसोस की बात इतनी ही है.
बहरहाल, उस दिन भाषा की दी हुई सूचना के बाद थोड़े समय में जितना हो सकता था उतना अखबार का काम मैंने किया, फिर साथी श्रीप्रकाश जी से पन्ना छोड़ने का निवेदन करके पार्टी ऑफिस पहुंचा. वहां पता चला कि जेएनयू के छात्र बिहार भवन को घेरने आ रहे हैं. हम लोग भी वहीं पहुंचे तो मालूम हुआ कि लालू यादव के साले साधू यादव वहां डेरा डाले हुए हैं. मनबढ़पने का हाल यह कि छात्रों को डराने के लिए साधू यादव ने खुद या उनके किसी सुरक्षाकर्मी ने राइफल से तड़ातड़ दो फायर मार दिए.
जैसा माहौल था, वहीं के वहीं कोई बहुत बड़ा कांड हो गया होता लेकिन छात्र नेताओं के विवेक और दिल्ली पुलिस की तत्परता से स्थितियां नियंत्रण में रहीं. चंद्रशेखर के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए एक बड़ा जनांदोलन उस समय चला, जिसमें एक साल तक स्वतंत्र आत्मगति बनी रही. उनकी मां कौशल्या देवी को अनजानी जगहों में भी लोगों ने सुना और रोए. चंद्रशेखर से जुड़े उनके जीवन संघर्ष के किस्से लोगों के बीच कहे-सुने जाते रहे लेकिन न तो लालू-राबड़ी सरकार पर इसका रत्ती भर प्रभाव पड़ा, न ही केंद्र में मौजूद देवगौड़ा और गुजराल की सरकारों पर.
शहाबुद्दीन के जो पांच गुर्गे चंद्रशेखर की हत्या में नामजद थे, उनमें एक की मौत सुनवाई के दौरान हो गई और तीन को 2012 में, जबकि एक को 2013 में उम्रकैद की सजा सुनाई गई. खुद शहाबुद्दीन सीपीआईएमएल-लिबरेशन के ही एक साथी छोटेलाल गुप्ता के अपहरण और हमेशा की गुमशुदगी वाले मामले में आजीवन कारावास की सजा काटते हुए मई 2021 में कोविड की बीमारी से मरा.
- चन्द्र भूषण
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