मैं चाहता हूं
मेरा शहर छोटा रहे
दिन भर काम और
रात भर सोता रहे
सुबह सुबह लोग
एक दूसरे से
रास्तों पर टहलते बतियाते हुए मिलें
औरतें एक दूसरे की चुग़ली
करतीं हुई मिलें
और लोग एक दूसरे की
कभी-कभी बेवजह तारीफ़ करते हुए भी मिलें
तुमने कभी महसूस किया है उस आदमी के दर्द
को जिसकी कभी किसी ने तारीफ़ नहीं की ?
जैसे तुम्हारे घर में काम करती हुई कामवालियां
या तुम्हारे खेतों खलिहानों में खटते हुए मज़दूर
या तुम्हें अपनी पीठ पर ढोते हुए रिक्शा वाले
मैं चाहता हूं कि मेरा शहर छोटा रहे
और हरेक आदमी एक दूसरे की तारीफ़ करे
ये सोच कर कि अगर अगला नहीं होता तो
कितना अकेला हो जाता वह
मैं चाहता हूं कि
मेरे शहर के दूर दूर तक कोई
खदान नहीं निकले
कोई बड़ा सा कारख़ाना नहीं लगे
मैं चाहता हूं कि मेरा शहर
गिद्धों की दृष्टि से दूर रहे
और एक बात
मेरे शहर में कोई सोसायटी
कोई गगनचुंबी इमारत न हो
और सबका अपना घर हो
सबकी थाली में रोटी हो
सबके खेतों में पानी हो
और सबकी आंखों में सपने हों
मृत्यु अनिवार्य है लेकिन
मैं चाहता हूं कि
मेरे शहर में जब कोई मरे
तब उसे सिर्फ़ आदमी समझा जाए
हिंदू, मुस्लिम, नक्सली, आतंकवादी, संघी नहीं
क्योंकि जब ऐसा होता है तो
लाश तो लाश ही रहती है लेकिन
ज़िंदा लोग भी मुझे लाश ही दिखते हैं
क्योंकि जो कोई भी आदमी के विपक्ष में खड़ा है
वह आदमी तो नहीं हो सकता है
चलो
मेरी इस असंभव इच्छा के लिए
आप मुझे वामपंथी कह सकते हैं
मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है
मैं जानता हूं कि एक ऐसे शहर का
सपना लिए किसी दिन जाना पड़ेगा मुझे बहुत दूर
तुम्हारी आंखों में इसी सपने को बो कर
मेरे दोस्त !
- सुब्रतो चटर्जी
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