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आरएसएस के बारे में दोबारा सोचो !

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आरएसएस के बारे में दोबारा सोचो !
आरएसएस के बारे में दोबारा सोचो !
जगदीश्वर चर्तुवेदी

सवाल यह है आरएसएस ने जनता का दिल कैसे जीता ? क्या भारत संकीर्णतावादी देश है ? मथुरा में आरएसएस के जितने परिचित थे, वे कभी गाली नहीं देते थे. मधुरभाषी थे, मिठाई प्रेमी थे, चाय पीना पसंद कम करते थे. फेसबुक के जन्म, इंटरनेट आगमन और आरएसएस के साइबर सैल के जन्म के साथ एकदम उलटा हुआ है. आरएसएस वाले मधुरभाषी कम हो गए हैं, गाली देने वाले बढ़ गए हैं, पहले वे धमकी नहीं देते थे,अब धमकाते हैं. पहले उनके पास फोन तक नहीं होता था, अब स्मार्टफोन है. पहले उनकी बातों में आंखों की शर्म थी, नए संघियों के आंखें नहीं हैं. संघ बदला तो है !

मथुरा मुझे बार-बार याद आता है संघियों के कारण. वहां संघी नेता से लेकर कार्यकर्ता तक सहज भाव से दिख जाते थे. मेरे मंदिर पर उनकी भीड़ रहती थी.  मेरे घर के पास कव्वीबाई धर्मशाला में अटलजी से लेकर बलराज मधोक, नानाजी देखमुख से लेकर लालकृष्ण आडवाणी आकर टिकते थे. इसका एक बड़ा कारण था धर्मशाला वाले का संघी होना. इस धर्मशाला से एकदम जुड़ा हुआ मेरा घर है. इसके कारण मुझे संघ के बड़े नेताओं को एकदम अनौपचारिक तौर पर जानने का मौका मिला.

दूसरा बड़ा कारण था मेरे हिंदी शिक्षक मथुरानाथ चतुर्वेदी का संघ का बड़ा नेता होना. उनके जरिए संघ के रीयल चरित्र को मैं सहज भाव से जान पाया. मथुरानाथजी जानते थे मैं कम्युनिस्ट हूं. वे ही मुझे तमाम सोवियत प्रकाशन पढ़ने को देते थे. उन्होंने कभी मुझे संघ के किसी नेता की किताब पढ़ने को नहीं दी. कहते थे संघ के नेता बहुत खराब लिखते हैं.

मैंने एक बार स्वामी करपात्री महाराज से पूछा कि आरएसएस के लोग कैसा लिखते हैं ?वे बोले – जाहिल हैं वे लोग. वे सिर्फ मुनाफा कमाना जानते हैं. उल्लेखनीय है करपात्रीजी महाराज ने एक राजनीतिक दल भी बनाया था और वे जब भी मथुरा आते तो दिन में एक बार मेरे मंदिर पर दर्शन करने जरूर आते और उनसे लंबी बातचीत भी होती थी. आरएसएस वाले की सबसे बड़ी तीन कमजोरियां हैं – एक तो वे किताबें नहीं पढ़ते, दूसरा वे इतिहास नहीं जानते और तीसरा वे दलाली नहीं छोड़ते.

आरएसएस वाले के दिमाग की सबसे कमजोर कड़ी है वामपंथी

मथुरा में मेरे छात्र जीवन के एक जमाने में ढेरों मित्र आरएसएस के थे. एक बार उन लोगों ने जोर डाला कि मैं कभी उनके कार्यक्रम में भी सुनने आऊं, मैं राजी हो गया. कार्यक्रम था दीनदयाल उपाध्याय की जयन्ती का. मेरे मित्र बोल रहे थे और ठीक ठाक दीनदयाल जी पर रोशनी डाल रहे थे. मैं अपने साथ दो और मित्रों को लेकर गोष्ठी में बतौर श्रोता ज्योंही दाखिल हुआ, वक्ता महोदय हठात विषय से भटके और मेरी शक्ल देखते ही चीन और समाजवाद को खरी खोटी सुनानी शुरू कर दीं.

उसके बाद सारी गोष्ठी हम तीनों मित्र चीन के बहाने गालियां खाते रहे. गोष्ठी खत्म हुई तो कई श्रोताओं ने पूछा दीनदयाल उपाध्याय पर बोलते हुए चीन कहां से बीच में आ टपका ? अब हम तीनों की हंसने की बारी थी. हम खूब हंसे. मैंने कहा ये सज्जन मेरा चेहरा देखकर चीन और समाजवाद को गरिया रहे थे. वह बोला कि तुम्हारा चीन से क्या संबंध ? मैंने कहा संघियों की यही मुश्किल है ज्योंहि किसी कॉमरेड को देखते हैं, इनकी गाड़ी पटरी से उतर जाती है.

उस घटना के बाद हमारे संघी मित्र ने हमें कभी संघ के किसी कार्यक्रम में नहीं बुलाया. हमने एक दिन मजाक में पूछा कि भाईजी, हमें अब सुनने को भी नहीं बुलाते हो ? वे बोले –  साले तुम्हारी शक्ल देखकर हमारा वो कार्यक्रम चौपट हो गया. दिमाग का संतुलन पता नहीं कैसे बिगड़ गया. हमारे संघी साथियों ने हमारी तीखी आलोचना भी की. तब से हमने तय किया है तुमको अब कभी नहीं बुलाएंगे. हमने कहा हमें श्रोता के रूप में भी नहीं बुलाओगे ? बोले – बिलकुल नहीं !

एक बार एक संघी वक्ता बोल रहा था और बार-बार मुसलमानों के संततिवर्द्धन पर लंबी लंबी हांक रहा था. भाषण समाप्त करके बोला हम कैसा बोले हमने कहा भाईजी आपको मुसलमानों की मर्दानगी के आख्यान बताते समय यह ख्याल ही नहीं रहा कि प्रकारान्तर से हिन्दुओं की नामर्दगी की दास्तां बयां कर रहे थे ! मेरी बात सुनकर उनको पाला मार गया !

आरएसएस वाले के दिमाग की सबसे कमजोर कड़ी है वामपंथी. एक बार संघी को किसी विषय पर बोलने का मौका दो, वह जब बोल रहा हो तो उसे किसी तरह आभास दे दो कि आप वामपंथी हैं, वह तुरंत विषयान्तर करेगा और वाम निंदा पर उतर आएगा. इसके बाद आपको कुछ करना नहीं है, वह बिना पानी पिए इस तरह कोसना शुरू करता है जैसे उसे बोलने का ईंधन मिल गया हो. आप इसके बाद परमानंद में रह सकते हैं.

जब किसी भी संघी को वाम पदबंध सुनकर रक्तचाप बढ़ाने की आदत हो तब बहस नहीं हो सकती सिर्फ निंदारस में मजा लिया जा सकता है. आप मेरी बात मानिए और किसी भी आरएसएस वाले से सामान्य से सवाल करके देखिए, आपको जो उत्तर मिलेेंगे वे हंसाने वाले होंगे. दिल दहलाने वाले होंगे. वे यह ज्ञान कराने वाले होंगे कि आखिरकार आरएसएस के हाथ में देश की बागडोर सौंपकर हम किस तरह कमअक्ल लोगों के शासन में जी रहे हैं !

आरएसएस को बुद्धिजीवियों से नफरत है

मैं आम तौर पर दिल्ली में आरएसएस प्रेमियों और कट्टर संघियों से सार्वजनिक वाहनों में टकराता रहता हूं और उनकी कमअक्ली का आनंद लेता रहता हूं. कोई व्यक्ति जब संघ की अंधी वकालत करता है तो उसे कुछ देर मुखर भाव से बोलने दो, वो अपने आप अपना विलोम बनाने लगता है.

रामलाल ने एक दिन अपने पड़ोसी आरएसएसवाले से पूछा – तुम्हारे पास जब खाली समय होता है तो देशहित के बारे में सोचते हो या आरएसएस के हित के बारे में ? तो वह बोला संघ के हित के बारे में सोचता हूं. फिर उससे पूछा – इससे देश का भला होता है या आरएसएस का ? वह बोला आरएसएस का !

इसी तरह एक व्यक्ति ने आरएसएस वाले से पूछा – तुमको विवेक पसंद है या भगवान ? वह तुरंत बोला – भगवान ! इसके बाद हम सबलोग खूब हंसे. संघी बोला – हंस क्यों रहे हो ? दूसरे व्यक्ति ने कहा – तेरी अक्ल पर ! एक अन्य अनुभव है. एक व्यक्ति ने आरएसएस वाले से पूछा – तू मनुष्य है या संघी है ? बोला – संघी हूं. हम सब हंसने लगे !

आरएसएस को बुद्धिजीवियों से नफरत है. उसे मुसलिम घृणा का कॉमनसेंस पसंद है. संघ के समूचे प्रचार में इस कॉमनसेंस की प्रस्तुतियों रहती हैं. दिलचस्प बात यह है विगत 10 सालों में शिक्षितों का एक बड़ा हिस्सा आरएसएस से जुड़ा है. इनमें अनेक गंभीर पढ़े लिखे लोग भी हैं. वे भी संघ की अभिव्यक्ति रणनीति को फेसबुक और मीडिया में इस्तेमाल करते हुए कॉमनसेंस के फ्रेमवर्क में हर क्षण पोस्ट लिख रहे हैं. संघ के ट्रोल ने बुद्धिजीवियों की भूमिका को बुनियादी तौर पर बदल दिया है.

आज संघ ने बुद्धिजीवी की पहचान का मूलाधार झूठ को बना दिया है जबकि एक जमाने में सच बोलने वालों को बुद्धिजीवी कहते थे. झूठ और मीडिया की अंतर्कियाएं मिलकर ऐसा वैचारिक रसायन बना रही हैं, जिसमें सिर झुकाकर मानने के अलावा और कोई विकल्प सूझ नहीं रहा.

संघ कह रहा है, सब मान रहे हैं तो तुम भी मानो. सब यही बात कह रहे हैं तो तुम भी वही बात मानो. विचार विमर्श में भीड़ को इस तरह स्थापित कर दिया गया है. पहले बुद्धिजीवी अपनी राय भीड़ को देखकर तय नहीं करते थे.

आरएसएस का सबसे बड़ा झूठ यह है कि उसने अपने को लोकतंत्र के रक्षक के रूप में पेश किया है, जबकि वास्तविकता यह है कि उसने लोकतंत्र का हिन्दुत्व और साम्प्रदायिक विचारधारा के प्रसार के लिए दुरूपयोग किया है. यह वैसे ही है जैसे स्मगलरों ने समाज के अपराधीकरण के लिए लोकतंत्र का दुरूपयोग किया. कुछ मामलों में आरएसएस के काम करने के तरीके और माफिया गिरोहों के काम करने तरीकों में विलक्षण साम्य है. दोनों का समान लक्ष्य है प्रशासनिक संरचनाओं पर कब्जा जमाना.

आरएसएस की लोकतांत्रिक संरचनाओं के विकास में जीरो भूमिका रही है. जहां भी उसे सरकार बनाने का मौका मिला है, स्थापित संस्थानों को बधिया बनाया है. प्रशासनिक संरचनाओं और पुलिस बलों का साम्प्रदायिकीकरण किया है जबकि लोकतंत्र के विकास के लिए प्रशासनिक संरचनाओं के विकेन्द्रीकरण और उदारीकरण की जरूरत थी. अफसोस यह है कि कांग्रेस इस चीज को रोकने में अक्षम रही है. एकमात्र वामशासित राज्यों में प्रशासनिक संरचनाओं के साम्प्रदायिकीकरण में उसे सफलता नहीं मिली.

आऱएसएस ने राजनीतिक दोगलेपन को महानतम बनाया है

आरएसएस के वैचारिक असर में कांग्रेस से लेकर माकपा तक सभी हैं. कांग्रेस नरम हिन्दुत्व का राग अलाप रही है तो माकपा ने केरल से लेकर बंगाल तक बाबा रामदेव के योग प्रकल्प को प्रमोट करके नरम हिन्दुत्व के अन्य रूप को प्रदर्शित किया है.

वहीं समाजवादियों में भी संघ के प्रति वैचारिक आत्मीयता गहरी हुई है. हम सब भूल ही गए कि योग को आरएसएस ने बड़े कौशल के साथ अपने वैचारिक प्रसार के औजार के रूप में इस्तेमाल किया. हमने उसे महज व्यायाम माना और मान लिया. योग प्रकल्प असल में संघ का प्रकल्प है.

आरएसएस ने सचेत रूप से अपने वैचारिक फैलाव के लिए संघ के नेताओं के विचारों के प्रचार को गौण रखा है और गांधी-पटेल-आम्बेडकर आदि नए नेताओं का जमकर प्रचार किया है. इससे उसके कार्यकर्ताओं के वैचारिक चरित्र पर असर पड़ा है, साथ ही आम जनता में संघ की लिबरल इमेज बनी है.

आरएसएस के वैचारिक खेल पर विचार करते समय इस सवाल पर सोचें कि भारत का भविष्य संकीर्ण हिन्दू व्यवस्था या हिन्दू की पहचान अर्जित करने में है या उदारपंथी नागरिक बनने में है ? आखिरकार हम 100 साल बाद कैसा देश देखना चाहते हैं – हिन्दू भारत या उदार भारत ?

आरएसएस सचेत रूप में विचारधारात्मक तौर पर बदल रहा है. वह पुराने संघी विचारकों के साथ-साथ नए बुर्जुआ विचारकों को भी अपनाने लगा है, इससे नए किस्म की विचारधारा पक रही है, उसकी ओर देखने की जरूरत है. आमतौर पर हम उसके बुर्जुआ नेताओं के प्रति प्रेम को नाटक कहकर खारिज करते हैं लेकिन इस क्रम में नया वैचारिक ढांचा और संरचनाएं बन रही हैं, जिनकी कायदे से मीमांसा करने की जरूरत है.

सवाल उठता है आरएसएस ने उदारतावाद और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ आम लोगों में जहर कैसे भरा ? और लोग क्यों आरएसएस के तर्कों को मान रहे हैं  ? जबकि उसके तर्कों का विरोध करना चाहिए.

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