भाजपा की एकतरफ़ा चुनावी जीत पर आजकल तमाम प्रगतिशील और वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा विपक्ष की करारी पराजय के कारणों का सही परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने की बजाए, जनता को खूब कोसा जा रहा है. ये तमाम विश्लेषक, शायद यह देखने और समझने में अभी असमर्थ हैं कि इस करारी हार का मुख्य कारण आम जनता के प्रति विपक्ष और खासकर दलित और मुस्लिम नेताओं का जनता के प्रति गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया ही रहा है. बड़ी मोटी-सी बात है कि आप अगर बीएसपी, सपा और ओवैसी की पार्टी के वोटों को जोड़ दें तो वोटों का प्रतिशत बीजेपी को मिले वोट से कहीं ज़्यादा बैठता है.
याद रहे बीजेपी के साथ इस समय पूरा पूंजीपतिवर्ग, पूरा सरकारी तंत्र, सरकारी खज़ाना, लगभग पूरा गोदी मीडिया और अधिकांश संवैधानिक संस्थाएं खड़ी हुई हैं. इसके अतिरिक्त RSS के रूप में सपोर्ट देने के लिए दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन भी बीजेपी के पास है और इस पार्टी के पास पांच से छह हजार करोड़ रुपये का भारी भरकम फण्ड भी मौजूद है;
लेकिन इस सब तामझाम के बावजूद, यूपी में भाजपा को 3 करोड़ 80 लाख वोट मिले, वहीं सपा को दो करोड़ 95 लाख और बसपा को 1 करोड़ 18 लाख ! सपा और बसपा के वोटों कुल जोड़ भाजपा से कहीं ज़्यादा यानी 4 करोड़ 13 लाख बैठता है. अगर इसमें ओवैसी को मिले वोटों को भी शामिल कर लिया जाए तो भाजपा दूर-दूर तक भी नज़र नहीं आएगी. इसीलिए अगर मायावती, अखिलेश और ओवैसी गठबंधन में शामिल हो जाते तो बीजेपी का सूपड़ा कम से कम यूपी से पूरी तरह साफ़ हो सकता था.
उपर्युक्त तथ्यों को देखा जाए तो यूपी में बीजेपी को मेहनतकश जनता ने नहीं, बल्कि विपक्षी नेताओं के अहंकार, अति महत्वकांक्षा, सत्ता लोलुपता और हठधर्मिता ने ही जिताने में मदद की है.
मायावती तो पूंजीवादी राजनीति के इस अति महत्वपूर्ण और ज़रूरी सूत्र तक को समझने में असफ़ल रही कि पूंजीवादी राजनीति में न कोई किसी का स्थायी दोस्त होता है और न ही कोई स्थाई दुश्मन ! पूंजीवादी राजनीति में परिस्थितियां रोज़ बदलती रहती हैं. इसीलिए बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में अपनी रणनीति को भी बदलना बेहद ज़रूरी होता है. लेकिन मायावती न जाने किस नशे में चूर रही कि उसने सपा ही नहीं, बल्कि किसी भी अन्य राजनैतिक पार्टी को इस योग्य नहीं समझा कि उसके साथ मिलकर चुनाव लड़ा जाए !
उधर अखिलेश ने भी अति आत्मविश्वास और अति महत्वाकांक्षी होने का सबूत देते हुए चंद्रशेखर रावण को गठबंधन में शामिल करने से इंकार कर दिया. अन्य छोटे-छोटे दलों को भी अपनी ही शर्तों पर गठबंधन में शामिल किया. दूसरी ओर, ओवैसी भी अपनी ढपली अपना राग बजाते रहे. इसका नतीजा यह हुआ कि इन राजनेताओं के अजीबोगरीब रवैये के कारण आम ग़रीब मतदाता, जिनको आज दोषी मानकर जी-भरकर कोसा जा रहा है, राजनैतिक रूप से दिग्भ्रमित हो गया.
लेकिन इन विपक्षी नेताओं ने, जनता को न तो कोई ठोस विकल्प दिया और न ही उनको राजनैतिक रूप से शिक्षित और चेतन करने का ही कभी कोई काम किया.
बीजेपी के पिछले आठ वर्षों के कुशासन के दौरान जनता ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता, महिला उत्पीड़न, निजीकरण, बिगड़ती क़ानून व्यवस्था को अकेले दम झेलती रही, लेकिन मायावती, अखिलेश, ओवैसी, राहुल और उनकी राजनैतिक पार्टियां और वामपंथी पार्टियां भी इन मुद्दों को लेकर कभी भी जनता के साथ क़दमताल करते हुए सड़कों पर दिखाई नहीं दी.
दूसरी ओर, सत्ताधारी दल, धर्म, वर्ण, जाति, मंदिर-मस्ज़िद, हिन्दू-मुसलमान, हिंदुस्तान-पाकिस्तान, गाय-गोबर, योगा, स्वदेशी, आयुर्वेद, हिन्दुराष्ट्र, राष्ट्रवाद जैसे ग़ैर-ज़रूरी और महत्वहीन (भटकाऊ) मुद्दों को लेकर अपने पक्ष में लगातार प्रचार करते रहे.
धर्म, जाति, वर्ण इत्यादि पिछले 5 हज़ार वर्षों से लगातार प्रचलन में रहने के कारण, ये दलित-शोषित मेहनतकश वर्ग के चेतन और अचेतन का हिस्सा बनकर उसकी मांस-मज़्ज़ा में समाहित हो चुके हैं. इसीलिए ‘धर्म चेतना’ और ‘जाति चेतना’ की सघनता और वर्गचेतना के अभाव में, सत्ताधारी दल द्वारा प्रायोजित उपर्युक्त सभी फ़ालतू के मुद्दे जनता को आसानी से समझ में आते रहे और विपक्ष लगातार हर मोर्चे पर पराजित होता रहा है !
इसके विपरीत, लगभग सभी विपक्षी नेताओं द्वारा जनता के मूलभूत मुद्दों को सशक्त ढंग से उठाने की बजाए, अपने-अपने आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ ही सर्वोपरि रहे, जिसके चलते अधिकांश जनता दिग्भ्रमित और दिशाहीन होकर सत्ताधारी खेमे की ओर चली गई. ऐसे में, दोष जनता का है या विपक्षी नेताओं का ?
सच तो यह है, कि मायावती, अखिलेश और ओवैसी जैसे अति महत्वाकांक्षी बुर्जुआ (पूंजीवादी) नेताओं और उनके राजनैतिक दलों ने हमेशा ही दलित-शोषित मेहनतकश वर्ग के दुःखों, कष्टों और समस्याओं का इस्तेमाल आम जनता के कल्याण के लिए नहीं, बल्कि हमेशा ही अपने निजी ऐशोआराम, आर्थिक महत्वाकांक्षाओं और अपनी राजनैतिक अस्मिता को क़ायम रखने के लिए ही किया.
इसीलिए ये नेता और उनके दल निरंतर मालामाल होते गए और जनता की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई. फिर भी, इन विपक्षी नेताओं और दलों की इस चुनावी हार में जनता को दोषी ठहराना मूढ़तापूर्ण सोच ही कहा जाएगा. मायावती तो इस चुनावी प्रचार की प्रक्रिया में हैरतअंगेज़ ढंग से कन्नी काटे रही. वे बीजेपी-विरोध की बजाए, विपक्षी गठबंधन पर लगातार जोरदार हमले बोलती रही.
उन्होंने पूरी चुनावी प्रक्रिया में धरने, प्रदर्शन, रोड शो, चुनावी सभाओं और अन्य वह सब, जिसकी इस बुर्जुआ राजनीति को दरकार होती है, सबसे हाथ झाड़कर अपने क़िलेनुमा आलीशान महल में आराम फ़रमाना ही उचित समझा. अपने इसी घोर उदासीन रवैये के कारण आज वे बीएसपी के दलित जनता और कार्यकर्ताओं से पूरी तरह से कट चुकी हैं.
एक मामूली टीचर से अरबों की संपत्ति की मालिक बनी मायावती के ऊपर हो सकता है, उस अकूत धन-संपत्ति को बचाने और कानूनी पचड़ों से बचने के लिए सत्ता पर क़ाबिज़ सत्ताधारी दल का दबाब रहा हो, इसीलिए दबाव में आकर उसने उसने बीजेपी को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देकर उसका खुलेआम सहयोग किया. अब दलितवर्ग की तमाम समस्याएं मायावती और बीएसपी के लिए गौण होकर रह गई हैं.
दूसरी ओर, सपा और अखिलेश भी मायावती से ज़रा भी कमतर नहीं आंके जा सकते. वे जननेता कभी भी नहीं रहे, इसीलिए वे भी जनता और उसकी मुसीबतों के साथ कभी भी राजनैतिक रूप से जुड़े नहीं रहे. उनका और उनके परिवार का राजसी ठाठबाट भी किसी से छुपा नहीं है. इसीलिए प्रधानमंत्री द्वारा लगातार परिवारवाद को समाप्त करने की बात जनता की समझ में आसानी से आती रही.
सपा भी अन्य बुर्जुआ पार्टियों की ही तरह मूलतः एक जाति और धर्म पर आधारित राजनैतिक पार्टी रही है. पार्टी का नाम समाजवादी हो जाने मात्र से ही कोई पार्टी समाजवादी नहीं हो जाती ! बुर्जुआ राजनीति करते हुए स्वयं को समाजवादी घोषित करना, यह भी जनता की आंखों में धूल झोंककर धोखा देने जैसा ही है. इसी से उनकी राजनीतिक बेईमानी का पता चलता है.
इसीलिए नोटबन्दी के दौरान जब मज़दूर वर्ग सड़कों पर अपने परिवार सहित दर-दर की ठोकरें खा रहा था, तब भी अखिलेश, मायावती और ओवैसी जैसे नेताओं को उनके साथ किसी भी क़िस्म की मदद करते हुए नहीं देखा गया. ऐसे संकट के वक़्त औपचारिक रूप से सहानुभूति भरे वक्तव्य दे देने भर से ही कोई मज़दूरों का मददगार और हमदर्द नहीं हो जाता!
हर संकट के समय लगभग सभी विपक्षी पार्टियों और नेताओं ने जनता के साथ सिर्फ़ औपचारिकताएं निभाने का ही काम किया हैं. मायावती, अखिलेश और ओवैसी जैसे नेताओं से कहीं ज़्यादा ज़मीनी कार्य और मज़दूरों की मदद तो अकेले दम अभिनेता सोनू सूद ने की थी. तब भी इन तीनों विपक्षी नेताओं का दूर-दूर तक कहीं भी अतापता न था. ऐसे ही, किसान आंदोलन के समय भी ये तीनों नेता किसानों के समर्थन में सड़कों पर दिखाई नहीं दिए. ऐसी स्थिति में जनता से सहयोग और समर्थन की उम्मीद करना ज़्यादती ही होगी.
यह सही है कि इन चुनावों में अखिलेश और समाजवादी पार्टी ने पहले से बहुत बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इस ग़लतफ़हमी में नहीं रहना चाहिए कि उनका यह प्रदर्शन उनके अच्छे कामों, उनकी सकारात्मक और जनकल्याणकारी राजनीति की वज़ह से मिला है. उनको चुनावों में जो भी सफ़लता मिली दिखाई देती है, उसे सत्ताधारी बीजेपी की जनविरोधी नीतियों से ख़फ़ा और त्रस्त जनता की सहज अभिव्यक्ति के रूप में ही देखा और समझा जाना चाहिए.
उत्तर प्रदेश में, इन चारों विपक्षी पार्टियों के द्वारा बीजेपी के ख़िलाफ़, आपसी गठबंधन करने में नाक़ाम रहने के बावजूद, जनता ने इतनी सारी सीटें सपा की झोली में डाल दी. इस तरह, इन चुनावों में, विपक्षी नेताओं की तुलना में, जनता ने अपना कर्तव्य कहीं ज़्यादा ईमानदारी के साथ निभाया है. इसीलिए जनता को कोसने की बजाय सभी विपक्षी दलों द्वारा मेहनतकश जनता के साथ धोख़ाधड़ी और गद्दारी किए जाने पर पश्चाताप करना चाहिए और जनता से माफ़ी भी मांगनी चाहिए.
उपर्युक्त तथ्यों की रोशनी में यह निष्कर्ष आसानी से लिया जा सकता है कि इन चुनावों में गद्दारी जनता ने नहीं बल्कि धूर्त, स्वार्थी और अति महत्वाकांक्षी नेताओं ने जनता के साथ की है ! उसी गद्दारी का फ़ल चुनावी परिणामों के रूप में सामने आया है.
लेकिन इस चुनावी पराजय से इन नेताओं को किसी भी तरह से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला, क्योंकि अब अगले पांच वर्षों के लिए अरबों की संपत्ति के मालिक और अथाह सुख-सुविधाओं से लबरेज़ ये नेता जनता के साथ खड़े होने के बजाए अज्ञातवास में चले जाएंगे या भूमिगत हो जाएंगे, लेकिन भूखी-नंगी बदहाल जनता फिर से दुःखों और कष्टों को झेलने के लिए मरती-खटती रहेगी.
इसीलिए तमाम बुद्धिजीवियों और दलित नेताओं को चाहिए कि वे अपनी इस चुनावी हार के लिए आम जनता को दोष देने की बजाए अपनी ग़लतियों और अपनी दोषपूर्ण नीतियों और राजनैतिक भूलों का फिर से विश्लेषण करें.
दूसरी बात, वर्गों में बंटे समाज में वर्गों से परे कुछ भी नहीं होता! इस समाज में मुख्य रूप से दो तरह की विचार धाराएं मौजूद रहती हैं- शासकवर्ग की विचारधारा और दलित-शोषित श्रमिकवर्ग की विचारधारा. इन्हीं के बीच लगातार संघर्ष जारी रहता है, लेकिन धर्मचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना के अभाव में जनता धर्म, जाति, वर्ण, सम्प्रदाय के संकीर्ण खांचों में बंटी रहती है, जिसके कारण मेहनतकश जनता शासकवर्ग के शोषण और दमन का मुक़ाबला कर पाने में असफ़ल रहती है. लगभग सभी विपक्षी नेता और राजनैतिक दल चुनावों के दौरान, जनता को राजनैतिक रूप से चेतन करने की बजाए, धर्म, वर्ण, जाति का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हुए देखे जाते हैं.
बहरहाल, उपर्युक्त दो विचारधाराओं के बीच सुधारवाद के रूप में एक धारा और भी मौजूद होती है. इस सुधारवादी धारा का मुख्य काम यथास्थित को क़ायम रखते हुए आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सुधारों पर ज़ोर देना होता है. यह सुधारवादी धारा, व्यवस्था परिवर्तन में नहीं, बल्कि सत्ता परिवर्तन की राजनीति में उत्सुक होती है. इस धारा का कोई ऐतिहासिक और वैचारिक आधार नहीं होता. इसीलिए इस धारा का न तो कोई राजनैतिक उद्देश्य होता है और न ही कोई आत्यंतिक लक्ष्य.
भारत में दलित नेता अम्बेडकर इस तीसरी धारा के मुख्य प्रतिनिधित्व रहे हैं. इसी सुधारवादी धारा को आत्मसात करते हुए, उन्होंने सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन की बजाए, इसी सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को स्वीकार करते हुए दलित-शोषित और पीड़ित वर्ग के लिए शासक वर्ग के साथ संघर्षों में उलझने की बजाए संवैधानिक और कानूनी रूप से धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक सुधारों की मांग की ! इसी के अंतर्गत वे दलितों के लिए कुछ राजनैतिक सुधारों, आरक्षण जैसी आर्थिक मांगों और सामाजिक सुधारों की मांग करते रहे.
कुछ हद तक वे अपने इस अभियान में सफ़ल भी रहे, लेकिन इससे न तो कोई सामाजिक परिवर्तन हुआ और न ही आम दलितवर्ग की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में ही कोई मूलभूत बदलाव देखने को मिला. उनके सुधारवादी आंदोलनों के ज़रिए जो आरक्षण जैसी सुविधाएं मिली थी, वे भी सत्ताधारी बीजेपी की निजीकरण जैसी जनविरोधी नीतियों की भेंट चढ़ चुकी है.
चूंकि इस सुधारवादी धारा का कोई उद्देश्य और लक्ष्य नहीं होता, इसीलिए यह धारा अनिवार्य रूप से अवसरवाद, ढुलमुलवाद और समझौतावाद का शिकार होकर कालांतर में, स्वयं को अपने निजी आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक स्वार्थों की खातिर शासक वर्ग की विभिन्न पांतों में स्वयं को (किसी द्वीप की तरह) समाहित कर लेती है, और बहुसंख्यक दलित-शोषित श्रमिक वर्ग को मरने-खपने के लिए अपने हाल पर छोड़ देती है.
ऐसे आंदोलनों और उनके नेताओं की स्थिति, आंखों पर पट्टी बांधे कोल्हू के उस बैल की तरह हो जाती है, जो चलता तो दिनरात है, लेकिन पहुंचता हुआ कहीं भी नज़र नहीं आता. आज दलित आंदोलनों की भी यही स्थिति हो चुकी है. स्वयं को अम्बेडकर का अनुयाई कहने वाले कांशीराम और मायावती भी इसी सुधारवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं. कांशीराम, जिनका दलित नेता के तौर पर दलित बुद्धिजीवियों द्वारा महान दलित नेता के रूप में महिमामंडन किया जाता है, कोई चिंतक, विचारक या दार्शनिक नहीं थे.
अम्बेडकर की एक किताब ‘जाति का उच्छेद’ पढ़कर बुर्जुआ राजनीति की नब्ज़ को पहचानते हुए उन्होंने दलित-मुक्ति के नाम पर धर्म, वर्ण और जाति पर आधारित बुर्जुआ राजनीति की शुरुआत की, लेकिन उनकी राजनीति का लक्ष्य ‘दलित मुक्ति’ के प्रश्नों को हल करने पर कभी भी केंद्रित नहीं रहा. उनकी राजनीति का लक्ष्य और आत्यंतिक उद्देश्य हमेशा ही, अन्य बुर्जुआ राजनीतिज्ञों की ही तरह येन केन प्रकारेण सत्ता पर क़ाबिज़ होना ही रहा.
यह काम वह अकेले दम नहीं कर सकते थे, इसीलिए इन्होंने बदलती परिस्थितियों के अनुसार, अपनी राजनीति में अवसरवाद, ढुलमुलवाद और समझौतावाद का खुलकर प्रयोग किया. इस काम को उनकी शिष्या मायावती ने आगे बढ़ाया.
कांशीराम और मायावती, ये दोनों दलित नेता कभी भी धर्म और जाति की राजनीति के दायरों से बाहर नहीं निकल पाए, इसीलिए यह धारा शुरू से ही शासकवर्ग के साथ समर्थन और सहयोग की नीति अपनाए हुए है. दलित-मुक्ति और उससे जुड़े हुए सभी प्रश्न आज बीएसपी और मायावती के लिए गौण हो चुके हैं.
इसका परिणाम यह हुआ है कि मौजूदा चुनावी परिणामों ने बसपा और मायावती का राजनैतिक पतन लगभग सुनिश्चित कर दिया है. इसीलिए दलित नेताओं, बुद्धिजीवियों, प्रगतिशील और वामपंथी तबकों को वर्तमान चुनावों में पराजय के लिए आम मेहनतकश जनता को दोष देने और कोसने की बजाए, पराजय के पुख़्ता और मूलभूत कारणों की ईमानदारी से जांच-पड़ताल करते हुए समीक्षा करनी चाहिए और व्यवस्था परिवर्तन के लिए आगे की रणनीति पर क्रांतिकारी ढंग से विचार-मंथन करना चाहिए
- अशोक कुमार
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