हिमांशु कुमार
इन दिनों मैं राजस्थान की राजधानी जयपुर में हूं. बीते दिनों यहां सुरेन्द्र गागर मिले. उन्होंने जो अपनी कहानी सुनाई, उसने मुझे आक्रोश और दुःख से भर दिया. लेकिन यह कहानी अकेले केवल सुरेंद्र गागर की नहीं है, बल्कि भारत के करोड़ों लोगों की है.
सुरेन्द्र बताते हैं कि हम लोग रैगर जाति (अनुसूचित जाति) से हैं. मेरे पिताजी पढ़-लिख कर आरक्षण के कारण बिजली विभाग में क्लर्क बन गये. वे पूरे गांव में हमारी जाति के पहले सरकारी कर्मचारी थे. हम रैगर लोगों के पास ज़मीन भी नहीं होती.
हमारे पिताजी ने तनख्वाह से बचाए हुए पैसों से ज़मीन का एक टुकड़ा गांव में खरीदा, जिसके बाद बड़ी जातियों के लोगों ने हम लोगों के उपर धावा बोल दिया. एक बार हमारे घर के सामने से गुजरते हुए एक सवर्ण ने मेरे दादाजी को बुला कर कहा तू ज्यादा उछल रहा है क्या ? गांव छोड़ कर वहीं चला जा, जहां तेरी जात वालों का उछलना चलता हो. अपने गांव में तो हम यह चलने नहीं देंगे.
उन लोगों का कहना था कि अगर ये नीच जात भी खेती करेंगे तो हममे और इनमें क्या अंतर रह जाएगा. हम लोगों ने इस बात की शिकायत पुलिस से की. जब पुलिस वाले दबंगों को पकड़ कर ले गये तब जाकर हम चैन की सांस ले पाए. लेकिन बाद में गांववालों ने दबाव डाल कर पिताजी से केस वापिस करवा दिया.
अब उनलोगों ने हमारी ज़मीन पर जान-बूझकर सड़क निकलवा दी, जिससे हमारी ज़मीन अधिग्रहण में चली गई लेकिन हमें उसका फायदा हो गया. अब हमें अपनी ज़मीन में जाने के लिए किसी सवर्ण की जमीन में से होकर नहीं जाना पड़ता. हम सरकारी सडक से सीधे अपनी ज़मीन में जाते हैं.
सुरेन्द्र बताते हैं कि एक बार मैं पिताजी के कहने पर गांव के ब्राह्मण डाकिये को बचत राशि देने गया तो उनकी पत्नी खुले में तीन ईंटें जोड़कर लकडियां जलाकर जानवरों के लिए दलिया पका रही थी.
उसने मुझसे मेरी जाति पूछी. जब मैंने खुद को रैगर कहा तो वह मुझे गालियां देने लगी. सुरेन्द्र कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान जयपुर में मैं अपने एक दलित दोस्त के साथ एक दूकान पर बैठकर कोल्ड ड्रिंक पी रहा था. वह दूकानदार दुसरे दूकानदार से कह रहा था कि इन नीच जाति वालों से सूअरों जैसी बदबू आती है.
मेरे दोस्त ने पूछा कि भाई साहब आपको अभी कोई बदबू आई क्या ? तो वह दुकानदार बोला कि अभी कहां से आयेगी. तब मेरे मित्र ने कहा कि हम लोग भी रैगर हैं. तब वह दुकानदार सकपका गया और उसने बात बदल दी.
इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुरेन्द्र ने अपने पिता से कहा कि हम अपने गांव में आईटीआई संस्थान खोलेंगे. पिता ने अपनी पूरी कमाई संस्थान के लिए भवन बनाने में लगा दी. सुरेन्द्र ने जान पहचान वालों से क़र्ज़ भी लिया और आईटीआई शुरू कर दी. लेकिन भारत में दलितों के लिए कोई भी राह आसान नहीं है.
लोगों ने सुरेन्द्र की जाति की वजह से उसके संस्थान में अपने बच्चों को नहीं भेजा.सुरेंद्र ढाई साल तक कोशिश करते रहे, अंत में उन्हें अपना संस्थान बंद करना पड़ा. इसके बाद सुरेन्द्र ने छोटे बच्चों के लिए अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल खोला लेकिन वहां भी सुरेन्द्र की जाति रास्ते का रोड़ा बन कर खडी हो गई.
गांवव वालों ने एलान करके सुरेन्द्र के स्कूल का बहिष्कार किया. अंत में सुरेन्द्र को जयपुर में आकर प्राइवेट ट्यूशन करने पड़े. साथ ही सुरेन्द्र ने नौकरी के लिए भी कोशिश की. अभी वे सरकारी विभाग में चुने गये हैं.
सुरेन्द्र बताते हैं मैं समाज के लिए बहुत कुछ करना चाहता था. मैंने अपने पिताजी का सारा पैसा बर्बाद कर दिया. अब मुझे वो सारा कर्ज चुकाना है. खैर, सुरेन्द्र बताते हैं कि उनकी पत्नी सरकारी शिक्षक हैं. उन्हें जिस गांव में नियुक्त किया गया है, वहां सब सवर्ण हैं. इसलिए कोई उनकी पत्नी को मकान किराए पर नहीं देता. अभी एक खेत में बने हुए एक कामचलाऊ कमरे में उन्हें रहना पड़ रहा है.
जाति की वजह से मकान ना मिलने के अनेक उदहारण सुरेन्द्र ने मुझे सुनाये. मैं उनकी बातें सुन रहा था और एक सवर्ण परिवार में जन्म लेने की वजह से शर्मिंदा हो रहा था कि हम लोग कितने लोगों की ज़िन्दगी में दुःख घोलनेवाले लोगों में शामिल हैं.
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आज हम सूचना का अधिकार कानून (RTI) का इस्तेमाल करते हैं. इस कानून ने भारत के हरेक नागरिक को सरकार से सवाल पूछने का अधिकार दिया है. इसी तरह देश में मनरेगा कार्यक्रम चलता है जिसने करोड़ों ग्रामीण गरीबों को कम से कम एक सौ दिन का रोजगार दिया है, जिससे करोड़ों लोगों के प्राण बचे हैं.
लेकिन हममें से बहुत कम लोगों को पता है कि इन दोनों कानूनों का विचार, उसे बनाने के लिए अभियान की शुरुआत बहुत छोटे से गांव से हुई. राजस्थान के देवडूंगरी गांव में एक छोटी-सी झोंपड़ी है, जिसका फर्श आज भी कच्चा है. उस किचन में भारत के सभी राज्यों के हजारों सामाजिक कार्यकर्ता अधिकारी और नेता आकर खाना खाकर जा चुके हैं.
यह झोपड़ी किसान मजदूर शक्ति संगठन नामक जन संगठन का मुख्यालय है. आईएएस अधिकारी अरुणा राय, भारतीय वायुसेना के उपाध्यक्ष के बेटे निखिल-डे एवं राजस्थान के ग्रामीण परिवार से निकले शंकर सिंह ने इस झोपड़ी में रहकर गांवों की समस्याओं को समझना, उनका समाधान खोजना और उन्हें लागू करने के लिए आन्दोलन चलाना शुरू किया.
इसी जगह से सूचना का अधिकार और नरेगा कानून का आन्दोलन निकला और सफलतापूर्वक बना और लागू हुआ लेकिन इन आंदोलनों के पीछे एक नींव का पत्थर भी है, जो लगभग अनजाना है, उनका नाम है – अंशी बहन.
अंशी बहन की शादी शंकर सिंह से हुई तब उनकी उम्र चौदह साल की थी और शंकर सिंह की सोलह साल. शंकर सिंह बताते हैं – मेरी मां विधवा थी. उसने मुझे ग्यारहवीं तक पढ़ा दिया और कहा – अब इसके आगे पढ़ाने की मेरी ताकत नहीं है.
शंकर सिंह बताते हैं – ‘मैंने पकौड़े के ठेले पर नौकरी करने से लेकर कई तरह के काम किय. ऐसे समय में अंशी ही मेरे अस्तित्व को बचाने का आधार बनी. अंशी के पिता के पास कुछ जमीन थी. अंशी जाकर खेती में मदद करती और कुछ अनाज लाती थी जिसके कारण मैं आगे पढ़ पाया.
‘जब मैं तिलोनिया नामक जगह पर स्थित बंकर राय के संगठन में आया और मैंने वहां समाज को बदलने की बातें सुनी तब मुझे बहुत अच्छा लगा. तब तक मैं सरकारी शिक्षक पद पर चुना जा चुका था लेकिन मैंने सरकारी नौकरी ना करके समाज बदलने का फैसला किया और मैंने अरुणा राय और निखिल-डे के साथ जुड़ कर काम करने का फैसला किया.’
उन्होंने बताया कि ‘हम लोगों ने देव डूंगरी नामके छोटे से गांव में झोपडी बना कर रहना शुरू किया. हमने मर्यादा यह रखी कि हममे से हरेक व्यक्ति उतना ही मानदेय लेगा जितना इस इलाके में न्यूनतम मजदूरी होती है. हम एक मजदूर से ज्यादा खर्च नहीं करेंगे. आज तक संगठन में इस नियम का पालन होता है. जब इन लोगों ने इस छोटे से गांव में रहना शुरू किया और जन आन्दोलन शुरू किये तो सरकार के कान खड़े होने लगे.
अंशी बहन बताती हैं कि मेरे पास सीआईडी वाले आते थे और कहते थे तुम जिन लोगों के साथ रहती हो यह लोग नक्सलवादी हैं, आतंकवादी हैं. अंशी बहन ने उस पुलिस अधिकारी से कहा कि आज के बाद यहां मत आना, मुझे पता है कि यह लोग कौन हैं.
अंशी बताती हैं कि यह सभी लोग आन्दोलन अभियान में दूर-दूर चले जाते थे. इनके आंदोलनों में गरीबों को उनके हक़ दिलाना जमीन पर उनके अधिकार दिलाना शामिल था.
यह लोग सरपंचों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों को जागरूक कर रहे थे. इसकी वजह से बड़े लोगों ने आसपास के लोगों को हमारे खिलाफ भड़का दिय. लोग हमें गांव छोड़कर जाने के लिए धमकाते थे, कहते थे यहां नीच जात के लोगों को तुम लोग रसोई में बैठाकर खिलाते हो. हमारे बच्चों को स्कूल में डराया जाता था।.
अंशी कहती हैं- ‘मैं अपने छोटे बच्चों को लेकर रातभर जागती थी. मुझे हमेशा लगता था कि बस आज की रात किसी तरह गुजर जाय. अंशी इस संगठन की वो गुमनाम सिपाही है जिसके कारण विजय अभियान सफल होते हैं.
आज भी आप अभियानों में आंदोलनों में शंकर सिंह भाई को मंच पर युवाओं के साथ गीत गाते देखेंगे. आप आसपास नजर घुमायेंगे तो अंशी बहन वहीं बैठकर मुस्कुराते हुए ताली बजाती दिखाई देंगी.
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