हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
बाबा साहब और कांशीराम के सपनों और आदर्शों के लिये संघर्ष की राह पर चलने से लेकर भाजपा की बी-टीम बन जाने के आरोप झेलने तक पहुंच जाने वाली मायावती की नियति क्या सीख दे रही है ? भाजपा से गठबंधन कर सरकार बनाना एक बात है और भीतर ही भीतर ऐसी राजनीति करना जिसमें विपक्ष के मुकाबले भाजपा फायदे में रहे, बिल्कुल दूसरी बात है.
एक दौर था जब कहा जाता था कि वैचारिक विरोधियों से भी समीकरण बिठा कर सत्ता की राजनीति करने से बसपा को अंततः फायदा ही होता है लेकिन, सत्ता की राजनीति में किसी का मोहरा बन जाने की विवशता तेज को हर लेती है.
मायावती और उनके नेतृत्व में बसपा के उत्थान और अब पतन की गाथा पर निर्णय इतिहास देगा लेकिन उनके राजनीतिक आभामंडल के क्षरण ने एक बार फिर से इस तथ्य को स्थापित किया है कि जब आप दबे-कुचलों के लिये बड़ी लड़ाई को नेतृत्व देते हैं तो आपके साथ नैतिक बल होना ही चाहिये.
एक राजनीतिक पार्टी के रूप में जन्म लेने के बाद बसपा की राजनीतिक यात्रा महज यात्रा नहीं बल्कि एक अभियान के रूप में आगे बढ़ी. स्वतंत्रता संघर्ष में गुलामी और प्रताड़ना के शिकार आम भारतीय लोगों को नेतृत्व देने वाले नेताओं के पास नैतिक बल था. इस नैतिक बल ने उन्हें विपरीत से विपरीत समय में भी कमजोर नहीं होने दिया, न ही उनके अनुयायियों की उनके प्रति आस्था में कभी कोई दरार आई.
मायावती भी एक प्रकार के मुक्ति संघर्ष का अध्याय ही रच रही थी. अंतर यही था कि उन्हें इस संघर्ष की राह में चुनावों के पड़ावों से भी गुजरना था और अपने समर्थकों को यह अहसास कराना था कि वोट की उनकी ताकत उनकी ज़िंदगी को बदलने के काम आ सकती है.
चुनावी राजनीति की अपनी कुछ विवशताएं होती हैं जहां अंदरखाने कई तरह के समझौते करने होते हैं, कई ऐसे कदम उठाने होते हैं जो नैतिकता की मान्य परिभाषाओं से मेल नहीं खाते हों लेकिन, समझौता किसी भी तरह का हो, मायावती को यह ध्यान रखना था कि वे किस जन समूह की मुक्ति हेतु संघर्ष पथ पर चल रही हैं.
वे इन सबका कितना ध्यान रख सकीं, यह आज आरोपों और विमर्शों के दायरे में है. उत्तर प्रदेश के इन विधानसभा चुनावों में लोगों ने स्पष्ट महसूस किया कि वे अपेक्षाओं के अनुरूप सक्रिय नहीं रही. यह कहीं न कहीं उनके मुखर और सक्रिय समर्थकों के लिये निराश करने वाला था.
विश्लेषकों का एक वर्ग इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में यह आरोप लगाता दिखा कि कई तरह के मुकदमें झेल रही मायावती के साथ सत्ताधारी दल अप्रत्यक्ष रूप से ब्लैकमेल का खेल कर रहा है.
इस तरह के मामलों में सच हमेशा पर्दे के भीतर ही होता है लेकिन यूपी चुनावों में बसपा का मुख्य खिलाड़ी के रूप में नाम नहीं आना कहीं न कहीं इन विश्लेषकों के आरोपों को बल देता दिखा. आखिर, मात्र डेढ़ दशक पहले ही तो उनकी पार्टी अकेले अपने दम पर सत्ता तक पहुंची थी और पांच साल तक सरकार भी चलाती रही थी. फिर, इतनी तेजी से ऐसा पराभव, कि दिखाए जा रहे एक्जिट पोल में उनकी कोई गिनती कहीं नजर नहीं आ रही.
पूरे चुनाव में विश्लेषक बताते रहे कि समाजवादी पार्टी की चुनावी राह में अवरोध पैदा करने के लिये भाजपा उनका उपयोग कर रही है. उम्मीदवारों के चयन में क्षेत्रवार जिन कसौटियों को उन्होंने प्राथमिकता दी, वे इन आरोपों को पुष्ट करते नजर आए।
आखिर यह क्यों और कैसे हुआ कि प्रगतिशील ताकत के रूप में आगे बढ़ती मायावती प्रतिगामी ताकतों की राह प्रशस्त करने के आरोप झेलने तक पहुंच गई ? इतिहास इसका निर्णय देगा.
हिन्दी पट्टी का दलित राजनीतिक उभार आज बिखरी हुई अवस्था में है. यह आज प्रतिगामी ताकतों का मोहरा भर रह जाने को अभिशप्त है. रामविलास पासवान, जो प्रायः सत्ता के हमराह बन कर दलित अधिकारों की बातें करते रहे, के वारिस चिराग पासवान खुद को मोदी का हनुमान बताते नहीं थकते, नीतीश कुमार को कमजोर करने में भाजपा ने उनका किस तरह उपयोग किया, यह कोई छुपी बात नहीं है.
यूपी में मायावती का हश्र भी दलित अधिकारों के अभियान के लिये बेहद निराश करने वाली बात है. तथाकथित ‘हिन्दू राष्ट्र’ के सपनों के साथ सोने-जागने वाली शक्तियों की हमराह बन कर न दलित आकांक्षाओं के साथ न्याय हो सकता है, न उनकी राजनीतिक-सामाजिक मुक्ति का अध्याय रचा जा सकता है. हिन्दी पट्टी की दलित आकांक्षाओं को नए नायकों और नई राहों का अन्वेषण करना ही होगा.
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