हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
1991 का खाड़ी युद्ध ऐसा पहला था जिसका सीधा प्रसारण टेलीविजन पर दुनिया भर के लोगों ने देखा. तब तक भारत जैसे गरीब देशों के ग्रामीण इलाकों में भी ब्लैक एंड व्हाइट ही सही, टीवी क्रांति आ चुकी थी. टारगेट का विध्वंस करते मिसाइलों को लाइव देखना भयभीत कर देने वाला अनुभव था और इस बात का अहसास भी कि आधुनिक युद्ध पूरी मानवता के लिये कितने खतरनाक हो सकते हैं.
नाटो और इराक के बीच चल रहे उस युद्ध के औचित्य को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे थे लेकिन सूचना तंत्र पर अमेरिकी-यूरोपीय वर्चस्व ने जो नैरेटिव गढ़ा, दुनिया ने वही माना. सद्दाम हुसैन को विलेन के रूप में प्रचारित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई. दुनिया को बताया गया कि इराक के पास ऐसे रासायनिक अस्त्रों का गुप्त जखीरा है, जो सामरिक मूल्यों और मानवता के विरुद्ध है. पूरी दुनिया ने खाड़ी युद्ध के कंपन को महसूस किया और इराक तो तहस-नहस ही हो गया.
बाद के घटनाक्रमों और जांच समितियों ने साबित किया कि रासायनिक अस्त्रों आदि की तमाम बातें निराधार थी और मध्य-पूर्व की राजनीति में अपनी दखल मजबूत करने के लिये पश्चिमी प्रोपेगेंडा का हिस्सा थी. सद्दाम हुसैन, जो अमेरिकी मंसूबों के सामने चुनौती थे, को खत्म करने के लिये युद्ध थोपना जरूरी था और युद्ध के औचित्य को साबित करने के लिये प्रोपेगेंडा रचना जरूरी था.
पोस्ट-ट्रूथ के दौर में सूचना-तंत्र पर आधिपत्य नैरेटिव गढ़ने की ऐसी ताकत देता है, जो भ्रम का नया संसार रच देता है. अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी ताकतों ने खाड़ी युद्ध के तीन दशकों के बाद इस आधिपत्य को और मजबूत किया है. इस दौरान हुई आईटी क्रांति ने तो सूचना-परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है.
आईटी क्रांति और उसके शिखर प्रतीक गूगल, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि की जड़ें अमेरिका में हैं और वह इनके माध्यम से किसी भी सूचना-युद्ध को अपने हित में नियंत्रित करने में अधिक समर्थ है.
अभी चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान गूगल, यू-ट्यूब आदि ने रूसी समाचार माध्यमों को प्रतिबंधित कर अमेरिका को अपने नैरेटिव सेट करने के लिये खुला मैदान दे दिया है. यूक्रेन की राजधानी में एक भारतीय न्यूज चैनल के लिये युद्ध कवर कर रहे रिपोर्टर राजेश पवार आज बोल रहे थे –
‘… ये पूरे का पूरा जो ब्लैक आउट है रशियन प्वाइंट ऑफ व्यू को जानने का, सारा नैरेटिव अभी अमेरिका बिल्ड कर रहा है, वह इस लड़ाई को, इन्फॉर्मेशन वार फेयर की लड़ाई को अपने हिंसाब से चला रहा है और रूस इसमें पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है. इन्फॉर्मेशन वार फेयर में, तमाम बड़ी आईटी कंपनीज को अमेरिका और उसके अलाइज कंट्रोल कर रहे हैं तो रूसी नैरेटिव का पता लगाना या रूस के बारे में कुछ खबर पा पाना किसी के लिये भी अब लगभग इंपॉसिबल हो गया है और जो अमेरिका चाहेगा दुनिया भी वही जानेगी और उसी के बारे में बात करेगी…’.
यह बेहद खतरनाक स्थिति है कि एक ऐसे युद्ध के दौरान, जो दिन प्रतिदिन विध्वंसक होता जा रहा है, जिसके कारण विश्व मानवता की सांसें अटकी हुई हैं, उसके संदर्भ में दुनिया को एकायामी सूचनाएं मिलती रहें और संकट के दूसरे आयाम के प्रति आम लोगों की समझ साजिशन विकृत कर दी जाए.
यूक्रेन संकट में रूस और पुतिन को विवेकहीन आक्रांता के रूप में प्रचारित करने में अमेरिका सफल रहा है और विमर्शों की जो दिशा है उसमें विश्व मानस में यह स्थापित हो रहा है कि किसी तानाशाह की सनक के कारण दुनिया आज परमाणु युद्ध के मुहाने पर आ खड़ी हुई है.
जबकि, यूक्रेन को मोहरा बना कर रूस को घेरने और दबाव में लाने के अमेरिकी-यूरोपीय षड्यंत्रों का सिलसिला लंबे समय से चलता रहा है और आज अगर संकट इतना गहरा हो गया है तो इसमें पुतिन की महत्वाकांक्षाओं के साथ ही इन पश्चिमी षड्यंत्रों की भी बड़ी भूमिका है.
2014 में यूक्रेन की रूस समर्थक सत्ता को जमींदोज करने में और रूस विरोधी सत्ता को स्थापित करने में अमेरिका-यूरोप ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कितनी ऊर्जा लगाई, यह कोई छिपी बात नहीं है. यूक्रेन की आर्थिक नीतियों को अपने हितों के अनुरूप मोड़ने की कोशिशें, उसकी सैन्य नीतियों को प्रभावित कर रूस पर दबाव बनाने के मंसूबे कोई नई बात नहीं हैं. रूस समर्थक यूक्रेनी सत्ता को अस्थिर करने के लिये पश्चिमी शक्तियों ने विद्रोहियों को धन और हथियार मुहैया करवाने के साथ ही हर सम्भव कूटनीतिक मदद भी दी.
यूरोप के देश यूक्रेन में अपनी आर्थिक गतिविधियां बढाना चाहते थे, अमेरिका अपनी कम्पनियों के लिये वहां अवसर तलाश रहा था और सबसे खतरनाक यह कि रूस की बढ़ती सैन्य शक्ति को काबू में रखने के लिये अमेरिका यूक्रेन की जमीन का अपने मन मुताबिक इस्तेमाल करना चाहता था.
सवाल उठता है कि जिस ‘वारसा संधि’ से जुड़े देशों के जवाब में नाटो संगठन अस्तित्व में था, उस सन्धि के बिखरने के बाद भी नाटो को बनाए रखने और उसके विस्तार के पीछे ताकतवर देशों की कौन सी मंशा रही है ? शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो सुरक्षा के अनुबंध से जुड़ा संगठन न रह कर अमेरिकी आर्थिक साम्राज्य को विस्तारित करने का उपकरण बन गया है.
कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जब यूक्रेन में पश्चिम समर्थक सत्ता अस्तित्व में आई तो पश्चिमी कम्पनियों के लिये वहां के द्वार खोल दिये गए, उनके हितों के अनुरूप नीतियों को तोड़ा-मरोड़ा जाने लगा और आर्थिक पायदान पर नीचे रहे निवासियों के लिये सब्सिडी आधारित योजनाओं में कटौती की जाने लगी. इन अर्थों में पश्चिम और रूस के बीच द्वंद्व में पश्चिमी शक्तियों ने अपनी बढ़त कायम कर ली जाहिर है, रूस को भी अपने कदम बढ़ाने ही थे.
आज यूक्रेन और रूस की टकराहट में अमेरिका जिस नैरेटिव के तहत दुनिया को समझा रहा है कि तानाशाह पुतिन के अविवेकी कदम से ऐसे खतरनाक हालात बने हैं, उस संकट को उत्पन्न करने में खुद अमेरिका की साजिशों की कितनी बड़ी भूमिका है, वर्तमान यूक्रेन विमर्श में इसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता.
नए दौर में नाटो आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिये अश्वमेध के घोड़े के पीछे चलने वाले सैन्य समूह की भूमिका में है. तब के खाड़ी संकट में भी नाटो की यही भूमिका थी, आज यूक्रेन, फिनलैंड आदि देशों में इसके संभावित कदमों की पृष्ठभूमि में भी इसकी यही उपयोगिता है. यहां मंदी से जूझते अमेरिकी-यूरोपीय अर्थ तंत्र को उबारने की कोशिशों में हथियार उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका को भी समझना होगा.
युद्धों के बिना संहारक हथियार बेमानी हैं. विश्व मानवता के समक्ष कोई तानाशाह हमेशा एक चुनौती ही होता है, लेकिन उससे भी बड़ा अभिशाप है बड़ी हथियार कंपनियों और उनके नियंता देशों का अंतहीन लालच. ये बातें शांति की करते हैं, साजिशें अशांति की रचते हैं.
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं की चमक के पीछे उनके हथियार उद्योग के अकूत मुनाफे की सबसे बड़ी भूमिका है और उन अट्टालिकाओं की नींव में तीसरी दुनिया के गरीब और समस्याग्रस्त देशों के कुपोषण ग्रस्त बच्चों की सिसकियां, अनिवार्य जरूरतों से महरूम बड़ी आबादी की आहें दफन है.
विमर्शों में शामिल विश्लेषकों के बीच आज दो सवालों पर गहन मंथन हो रहे हैं – पहला कि क्या यूक्रेन संकट तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत साबित हो सकता है ? और दूसरा कि क्या दुनिया सर्वनाशी परमाणु युद्ध के मुहाने पर खड़ी है ? विमर्शों में इन सवालों का आना ही दुनिया को भयाक्रांत करने के लिये काफी है.
लेकिन, इन्हीं से जुड़ा इससे भी जटिल सवाल यह है कि इसके पीछे क्या तानाशाह पुतिन की आक्रामक महत्वाकांक्षा और हठधर्मिता ही जिम्मेदार है या अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी शक्तियों के अंतहीन लालच और इस फेर में दुनिया को उलट-पुलट कर देने वाली परत दर परत की उनकी अंतहीन साजिशों की भी कोई भूमिका है ?
रूस को पुराने गौरवशाली सोवियत संघ के शक्तिशाली उत्तराधिकारी के रूप में देखने की आकांक्षा पालने वाले ब्लादिमीर पुतिन के लिये अपने उद्देश्यों के बरक्स विश्व मानवता की रक्षा कोई बहुत अधिक संवेदनात्मक महत्व की चीज नहीं है. वे एकाधिक बार अपने इस वक्तव्य में इसे दुहरा भी चुके हैं, “…अगर दुनिया में रूस शामिल नहीं है तो दुनिया का अस्तित्व क्यों बना रहे…’.
अगर पुतिन सब कुछ मटियामेट करने पर आमादा हो सकते हैं तो संभावित विध्वंस के लिये लालच से प्रेरित, साजिशों में लिप्त, बाजारवाद की प्रवक्ता अन्य महाशक्तियों की भूमिकाओं का भी विश्लेषण होना ही चाहिए.
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