ल्युदमीला ख़ख़लोवा
रूसी से हिन्दी में अनुवाद की लम्बी परम्परा है. यह पिछली सदी के चौथे दशक की बात है, जब प्रसिद्ध भारतीय विद्वान महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को संस्कृत पढ़ाने के लिए सोवियत संघ के सेण्ट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय ने आमन्त्रित किया था. राहुल जी ने सोवियत संघ आकर रूसी सीख ली और रूसी से सीधे हिन्दी में अनुवाद करने लगे. बस, तभी से रूसी से सीधे हिन्दी में अनुवाद की परम्परा शुरू हुई.
1948 में राहुल जी रूस से वापिस भारत लौट गए. उसके बाद 1956 में रूस के तत्कालीन राज्याध्यक्ष निकिता ख्रुषोफ़ ने भारत की राजकीय यात्रा की. उस यात्रा के दौरान भारत और सोवियत संघ के बीच एक समझौता ऐसा भी हुआ, जिसके अनुसार सोवियत संघ ने भारत से विभिन्न भाषाओं के अनुवादकों को सोवियत संघ बुलाया था ताकि वे रूसी और अन्य भाषाओं के सोवियत साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर सकें.
ऐसे अनुवादकों की पहली खेप में हिन्दी में अनुवाद करने के लिए भारत से भीष्म साहनी, मदनलाल मधु, गोपीकृष्ण गोपेश, ओंकारनाथ पंचालर, वीरेन्द्रनाथ शुक्ल, रामनाथ व्यास ’परिकर’, नरोत्तम नागर और बुद्धिनाथ भट्ट व नरेश वेदी जैसे अनुवादक मास्को पहुंचे. मास्को में सोवियत सरकार ने सोवियत साहित्य को दुनिया के दूसरे हिस्सों में पहुंचाने के लिए विदेशी भाषा प्रकाशन गृह की स्थापना की थी.
1970 में जिसका नाम बदलकर ’प्रोग्रेस पब्लिशर्ज़’ या हिन्दी में ’प्रगति प्रकाशन’ रख दिया गया. 1972 में प्रगति प्रकाशन की एक शाखा ताशकन्द में भी खोल दी गई. फिर 1980 में प्रगति प्रकाशन को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया और ’रादुगा प्रकाशन’ के नाम से एक नया प्रकाशन शुरू किया गया. रूसी भाषा में ’रादुगा’ शब्द का अर्थ होता है — इन्द्रधनुष. ताशकन्द स्थित प्रगति प्रकाशन भी दो भागों में बांट दिया गया.
रादुगा प्रकाशन सिर्फ़ साहित्यिक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित करने लगा. प्रगति प्रकाशन से अब सिर्फ़ राजनीतिक और शैक्षिक व सामाजिक विषयों की पुस्तकों का प्रकाशन किया जाने लगा. 1980 में ही रूस में पहले से काम कर रहा ’मीर’ प्रकाशन भी हिन्दी में किताबों का प्रकाशन करने लगा. मीर प्रकाशन अक्सर विज्ञान व शैक्षिक विषयों की किताबें ही प्रकाशित करता था. 1991 में सोवियत संघ के पतन के समय तक ये तीनों प्रकाशन हिन्दी में किताबें प्रकाशित करते रहे.
1957 में रूस पहुंचे सभी लोग तीन वर्ष के अनुबन्ध पर इस प्रकाशन गृह में रख लिए गए. इनमें से किसी को भी रूसी भाषा नहीं आती थी, इसलिए ये लोग अंग्रेज़ी से अनुवाद करने लगे और धीरे-धीरे रूसी भाषा भी सीखने लगे. इनमें से ज़्यादातर अनुवादक तीन वर्ष बाद या छह वर्ष बाद वापिस भारत लौट गए, लेकिन मदनलाल मधु, नरेश वेदी और बुद्धिनाथ भट्ट रूस में ही रुक गए.
भीष्म साहनी क़रीब दस साल तक मास्को में रहे और उन्होंने लेव तलस्तोय के उपन्यास ’पुनरुत्थान’ के अलावा नाच के बाद, इवान इल्यीच की मृत्यु, क्रूजर सोनाटा, दो हुस्सार, सुखी दम्पती और इनसान और हैवान जैसी उनकी कहानियों का अनुवाद भी किया. नरोत्तम नागर ने मक्सीम गोर्की की मकर चुद्रा, बाज का गीत, चेल्काश, बुढ़िया इज़रगिल, अरलोफ़ दम्पती, तूफ़ान का अग्रदूत और इनसान पैदा हुआ जैसी विश्वप्रसिद्ध कहानियों का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया.
रामनाथ व्यास ’परिकर’ कवि थे, इसलिए उन्होंने सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ली और वे सोवियत कवियों की कविताओं का अनुवाद हिन्दी में करने लगे. मदनलाल मधु ने शुरू में अनुवाद के सम्पादन की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ली, लेकिन जल्दी ही फिर वे भी अनुवाद करने लगे. उन्होंने मिख़ाईल लेरमन्तफ़ के उपन्यास ’हमारे युग का नायक’ तथा अलिक्सान्दर पूश्किन की कहानियों हुक्म की बेगम, तूफ़ान, कप्तान की बेटी और इवान बेल्किन की कहानियां का अनुवाद करने के साथ-साथ पूश्किन की कविताओं के एक बड़े संग्रह का भी अनुवाद किया.
ओंकारनाथ पंचालर ने दस्ताएवस्की के लघु उपन्यास ग़रीब लोग का अनुवाद ’दरिद्रनारायण’ के नाम से किया, जिसे बाद में मदनलाल मधु ने सम्पादित किया और अपने नाम से छपवाया. पंचालर ने ही अलिक्सान्दर फ़देयेफ़ के उपन्यास ’तरुण गार्ड’ के दो भागों का भी अनुवाद किया था जबकि ’कंस्तान्तिन फ़ेदिन के उपन्यास ‘पहली उमंगें’ का अनुवाद रामनाथ व्यास ’परिकर’ ने किया था.
नरेश वेदी और बुद्धिनाथ भट्ट साहित्यिक अनुवाद की जगह राजनीतिक अनुवाद करने लगे, जो साहित्यिक अनुवाद से कहीं ज़्यादा मुश्किल काम था. इन लोगों ने लेनिन, मार्क्स और एंगेल्स की बहुत सी किताबों के अलावा निकोलाय चिरनाशेव्स्की की रचनाओं का भी अनुवाद किया. इन्होंने प्रमुख रूसी शिक्षाविद अनतोन मकारेंका की विश्व प्रसिद्ध कृतियों ‘माँ-बाप और बच्चे’ व ‘शैक्षिक महाकाव्य’ का भी हिन्दी में अनुवाद किया. इसके अलावा इन्होंने कार्ल मार्क्स की प्रसिद्ध कृति ‘पूंजी’ के एक भाग का अनुवाद और सम्पादन भी किया.
खेद की बात तो यह है कि आज के दौर में इन रचनाओं में से ज़्यादातर रचनाएं आज हिन्दी के पाठकों के लिए अनुपलब्ध हैं क्योंकि भारतीय प्रकाशनगृह उनका प्रकाशन नहीं कर रहे हैं.
मूल रूसी से रूसी किताबों का प्रकाशन पिछली सदी के नौवें दशक में शुरू हुआ. तब जहां एक ओर मुनीश नारायण सक्सेना जैसे प्रसिद्ध अनुवादक फ़्योदर दस्वताएवस्की की बौड़म, अपराध और दण्ड जैसी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेज़ी से कर रहे थे, वहीं योगेन्द्र नागपाल और विनय शुक्ला जैसे अनुवादकॊं के मूल रूसी भाषा से किए गए अनुवाद हिन्दी में सामने आ रहे थे। विनय शुक्ला ने मिख़ाईल बुल्गाकफ़, मिख़ाईल प्रीश्विन, कंस्तन्तीन पउस्तोव्स्की और अनअतोली रीबअकोफ़ जैसे प्रसिद्ध रूसी लेखकों की रचनाएं हिन्दी में प्रस्तुत की.
योगेन्द्र नागपाल ने अन्द्रेय प्लतोनफ़ की कहानियों और मिख़ाईल शोलअखफ़ के उपन्यास ‘जो देश के लिए लड़े’ को मूल रूसी भाषा से हिन्दी में पेश किया. मानवेन्द्र गुप्ता ने मूल रूसी भाषा से ‘सोवियत सिनेमा की कहानी’ नामक एक पुस्तक का अनुवाद किया. तब तक भारत से मास्को पहुंचने वाली पहली खेप के अनुवादकों में से एक मदनलाल मधु भी रूसी सीख चुके थे और उन्होंने लेव तलस्तोय के वृहद उपन्यासों ‘युद्ध और शान्ति’ तथा ‘आन्ना करेनिना’ का रूसी से अनुवाद किया.
दूसरी तरफ़ सोवियत संघ में रूसी सीखने के बाद भारत के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रूसी पढ़ा रहे वरयाम सिंह और हेमचन्द्र पाण्डेय ने भी रूसी भाषा से हिन्दी में अनुवाद करना शुरू कर दिया था. वरयाम सिंह ने अलिक्सान्दर पूश्किन. मरीया त्स्विताएवा, अरसेनी तरकोव्स्की, निकअलाय ज़बअलोत्स्की, व्लदीमिर मयकोव्स्की, फ़्योदर त्यूत्चेफ़ जैसे रूसी महाकवियों के कई कविता-संग्रहों का रूसी भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया.
हेमचन्द्र पाण्डेय ने वलेनतीन रस्पूतिन के तीन लघु उपन्यासों (आग, मत्योरा से विदाई और अन्तिम घड़ी) का अनुवाद ‘अन्तिम घड़ी’ के नाम से प्रस्तुत किया. चण्डीगढ़ में रूसी भाषा के प्राध्यापक पंकज मालवीय और आगरा में रूसी भाषा के प्राध्यापक जितेन्द्र रघुवंशी भी समय-समय पर रूसी कहानियों का अनुवाद करके हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में छपवाते रहे. इस बीच भारत में रूसी बाल साहित्य भी बेहद लोकप्रिय हुआ. अंग्रेज़ी और रूसी से अनुवाद करने वाले अनुवादकों ने बड़ी संख्या में रूसी बाल पुस्तकों का भी अनुवाद किया था.
एक और अनुवादक थे सुधीर माथुर. सुधीर माथुर ने आम तौर पर सोवियत मध्य एशियाई गणराज्यों उज़्बेकिस्तान, अज़रबैजान, अरमेनिया, कज़ाख़्स्तान और किर्गिज़िस्तान के लेखकों का हिन्दी में अनुवाद किया. पिरीमकुल कादिरफ़ का उपन्यास ‘बाबर’ अधिकांश हिन्दी पाठकों को याद होगा. इस उपन्यास का अनुवाद सुधीर माथुर ने ही किया था. सुधीर माथुर के साथ ही राय गणेश चन्द्र ने भी बड़ी संख्या में सोवियत गणराज्यों के लेखकों की पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया. अरमेनियाई लेखक ग्रान्त मातवेसियान के उपन्यास ‘पाकीजा’ और ‘मां बेटे का ब्याह रचाने चली.’
लेकिन 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद रूसी साहित्य का हिन्दी में अनुवाद होना क़रीब-क़रीब बन्द हो गया क्योंकि उस समय सोवियत संघ अलग-अलग पन्द्रह देशों में बंट गया था और सोवियत प्रकाशनगृह बन्द हो गए थे. जो अनुवादक सोवियत प्रकाशन संस्थाओं में काम कर रहे थे, उनमें से अधिकांश वापिस भारत लौट गए. क़रीब दस-बारह साल तक हिन्दी के पाठकों को रूसी साहित्य पढ़ने के लिए नहीं मिला लेकिन इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में ही भारत में फिर से रूसी साहित्य प्रकाशित होने लगा.
सबसे पहले मास्को के गोर्की साहित्य संस्थान से अपनी पढ़ाई पूरी करके बाहर आने वाले हिन्दी के कवि अनिल जनविजय ने 2004 में रूसी कवि येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताओं का एक संग्रह ‘धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा’ के नाम से प्रस्तुत किया. फिर उनके ही अनुवादों में 2005 में प्रसिद्ध रूसी कवि नोबल पुरस्कार विजेता इवान बूनिन की कविताओं का संग्रह ‘चमकदार आसमानी आभा’ के नाम से सामने आया.
2006 में अनिल जनविजय ने विश्व-प्रसिद्ध रूसी कवि ओसिप मन्दिलश्ताम की कविताओं का संग्रह ‘तेरे क़दमों का संगीत’ शीर्षक से प्रस्तुत किया. इन तीनों ही कविता-संग्रहों का अनुवाद मूल रूसी भाषा से किया गया था. इसके बाद अनिल जनविजय ने अनतोन चेख़फ़ और गोर्की की कहानियों के अनुवाद किए.
अनिल जनविजय से इतर भी रूसी भाषा से सीधे अनुवाद का काम लगातार हो रहा है. 2005 में ही रूसी भाषा की भारतीय विदुषी चारुमति रामदास ने मिख़ाईल बुल्गाकफ़ के विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘मास्टर और मर्गारीता’ का हिन्दी में अनुवाद प्रस्तुत किया. इवान बूनिन की कहानियों और लघु उपन्यासों का अनुवाद भी उसी दौर में प्रकाशित होकर सामने आया. इन रचनाओं का अनुवाद भारत में रूसी पढ़ाने वाले विभिन्न प्राध्यापकों ने किया था.
अभी हाल ही में मिखाईल ज़ोषिन्का की व्यंग्य कहानियों का एक बड़ा संग्रह हिन्दी में प्रकाशित हुआ है, जिसका अनुवाद रंजना सक्सेना और सोनू सैनी ने किया है. ये लोग भी भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में रूसी भाषा और साहित्य के विशेषज्ञ हैं लेकिन भारत में हो रहे अनुवादों में एक बात मुझे लगातार खटकती है. भारतीय अनुवादक रूसी रचनाओं का अनुवाद करते हुए अक्सर अनुवाद के नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं करते और बड़ी छूट ले लेते हैं.
छूट लेने और रचना का सांस्कृतिक और स्थानिक वातावरण बदलने का यह काम वैसे तो प्रेमचन्द और जैनेन्द्र कुमार के दौर में ही शुरू हो गया था. जैसाकि हम सब जानते हैं कि प्रेमचन्द ने तलस्तोय की कुछ कहानियों के अनुवाद किए थे लेकिन उन्होंने अनुवाद करते हुए न केवल पात्रों के नामों का हिन्दीकरण कर दिया था, बल्कि कहानियों का पूरा वातावरण ही भारतीय बना दिया था, जैसे कि घटनाएं भारत में घट रही हों.
अनुवाद की दृष्टि से ऐसा करना उचित नहीं था. ऐसे ही जैनेन्द्र कुमार ने अलिक्सान्दर कुप्रीन के उपन्यास ’यामा’ का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया, जिसमें उन्होंने कई बड़े बदलाव कर दिए थे. राजेन्द्र यादव ने भी अंग्रेज़ी से अनतोन चेख़फ़ की कुछ कहानियों के अनुवाद किए.
दूसरी तरफ़ कुछ अनुवादक अनुवाद के नाम पर मक्खी पर मक्खी बैठाना पसन्द करते हैं यानी पूरी तरह से शाब्दिक अनुवाद करते हैं. शाब्दिक अनुवाद करना भी ठीक नहीं है. आम तौर पर अनुवाद भाषा का नहीं, बल्कि भाव, भावना या अर्थ का करना चाहिए. किसी भाषा में किन्हीं शब्दों में जिस अर्थ में जो बात कही गई है, अनुवादक को उसी अर्थ में दूसरी भाषा में उस बात को रख देना चाहिए. लेकिन कुछ विशेष तरह की छूट वह ले सकता है, जैसे सांस्कृतिक स्तर पर सम्बोधन आदि से जुड़े बदलाव किए जा सकते हैं.
समकालीन रूसी भाषा में आम तौर पर अनौपचारिक सम्बोधनों में ‘ऐ लड़की’, ‘ओ आदमी’, ‘ऐ औरत’, ‘ऐ’ बच्चे’, ‘ऐ लड़के’ जैसे सम्बोधन किसी अनजान व्यक्ति के लिए या जान-पहचान वाले व्यक्ति के लिए भी इस्तेमाल किए जाते हैं. इन सम्बोधनों को हिन्दी में अनुवाद करते हुए भारतीय संस्कृति के अनुरूप बदलकर भाईसाहब, जनाब, बहनजी, मैडम, मांजी आदि किया जा सकता है, लेकिन इससे ज़्यादा छूट अनुवादक को नहीं लेनी चाहिए.
उदाहरण के लिए हम चेख़फ़ के नाटक ‘तीन बहनें’ या ‘चेरी का बग़ीचा’ को ले सकते हैं. भारत में कुछ नाट्य-समूहों ने जब ये नाटक खेले तो कुछ नाट्य-समूहों ने ‘चेरी का बग़ीचा’ नाटक का नाम बदलकर ’आम का बग़ीचा’ कर दिया. ऐसे ही ‘तीन बहनें’ नाटक खेलते हुए इस नाटक के पात्रों के नाम हिन्दी में रख दिए गए. इस तरह के बदलाव नहीं करने चाहिए.
इस लेख में उन बहुत सी रचनाओं का ज़िक्र आने से छूट गया है, जिनका अनुवाद समय-समय पर भारत में हुआ है. जैसे अलिक्सान्दर कुप्रीन की कहानियों का अनुवाद निर्मल वर्मा ने किया था. कुप्रीन के ही उपन्यास ’यामा’ (गड्ढा) का अनुवाद ’गाड़ी वालों का कटरा’ के नाम से चन्द्रभान जौहरी ने किया था. मिख़ाईल शोलअखफ़ के उपन्यास ‘धीरे बहे दोन रे’ का बड़ा अद्भुत्त अनुवाद गोपीकृष्ण गोपेश ने किया था. ऐसी ही और भी बहुत-सी रचनाओं के नाम इस लेख में नहीं आ पाए हैं.
लेख के अन्त में मैं यह भी बताना चाहती हूँ कि रूस में भी बड़े पैमाने पर हिन्दी साहित्य का अनुवाद किया जा रहा है. पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहां मरीया परूसवा, क्सेनिया लेसिक, येकतेरिना बिलील्त्सवा, अनस्तसीया गूरिया जैसे अनेक अनुवादक सामने आए हैं और वे बड़े पैमाने पर हिन्दी साहित्य का अनुवाद कर रहे हैं.
ग्युज़ेल स्त्रिलकोवा ने मरीया परूसवा के साथ मिलकर मृदुला गर्ग के उपन्यास चित्तकोबरा और उनकी कहानियों का अनुवाद किया है. ग्युज़ेल स्त्रिलकोवा ने ही अनस्तसीया गूरिया के सहयोग से कुंवर नारायण की कविताओं और कहानियों का एक संग्रह प्रस्तुत किया है. अनस्तसीया गूरिया ने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, सुधीर सक्सेना, लीलाधर मण्डलोई, नीलेश नील, पुष्पिता और अनिल जनविजय जैसे कवियों के कविता-संग्रह रूसी भाषा में प्रकाशित कराए हैं.
हाल ही में अनस्तसीया फ़िवेइस्कया ने हिन्दी के युवा लेखिका किरण सिंह की कहानियों का अनुवाद किया है. आन्ना ज़ख़ारवा ने उदयप्रकाश के उपन्यास ‘पीली छतरी वाली लड़की’ को रूसी पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है. क्सेनिया लेसिक ने बड़ी संख्या में हिन्दी के असद ज़ैदी, आलोक धन्वा, नीलेश रघुवंशी, गगन गिल, अनामिका, सविता सिंह, निर्मला पुतुल, जसिन्ता केरकेट्टा, अनुज लुगुन, नागार्जुन, त्रिलोचन, असंग घोष, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, मलखान सिंह जैसे कवियों की कविताओं के रूसी भाषा में अनुवाद किए हैं.
कुल मिलाकर मुझे लगता है कि रूसी से हिन्दी और हिन्दी से रूसी भाषा में अनुवाद का काम पहले की तरह जारी है और दोनों भाषाओं में नए से नए अनुवादक सामने आ रहे हैं. समकालीन हिन्दी और रूसी साहित्य के पाठकों को एक-दूसरे की भाषाओं का साहित्य पढ़ने के लिए आगे भी मिलता रहेगा.