राम अयोध्या सिंह
जबतक अमेरिकी नेतृत्व में नाटो, अंजुस और रियो पैक्ट जैसे सैन्य संगठनों और दुनिया भर में अमेरिका द्वारा स्थापित सैन्य अड्डे कायम रहेंगे, दुनिया में शांति की स्थापना महज एक कपोल-कल्पना ही कही जाएगी. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक सारे छोटे-बड़े युद्धों में अमेरिका की सेना, उसकी खुफिया एजेंसी सीआईए, मीडिया और उसके यूरोपीय दोस्त किसी न किसी रूप में शामिल रहे हैं. यूक्रेन का संकट भी अमेरिका द्वारा उत्पन्न किया गया है.
अपने को लोकतांत्रिक कहने वाले यूरोपीय देश अमेरिका के साथ मिलकर और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उसके नेतृत्व में एक सौ पांच वर्षों से लगातार सोवियत संघ और अब रूस को कमजोर करने, नियंत्रित करने और उसे खत्म करने के षड्यंत्र में प्रत्यक्ष रूप से शामिल रहे हैं. जारशाही के खिलाफ हुए समाजवादी क्रांति के साथ ही पश्चिमी देशों का (अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस) का सैनिक हस्तक्षेप शुरू हुआ, जो 1922 तक चला. उसके बाद भी उनका राजनयिक और खुफिया हस्तक्षेप चलता रहा.
यह ऐतिहासिक तथ्य तो सर्वविदित ही है कि सोवियत संघ को समाप्त करने के लिए ही जर्मनी में नाजी पार्टी और हिटलर जैसे फासीवादी व्यक्ति को पश्चिमी देशों की पूंजी और सरकारी सहायता से आगे बढ़ाया गया. अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस अपने स्थापित और प्रभाव क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में किसी भी दूसरे राज्य का आर्थिक हित या प्रभाव स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. इस उद्देश्य की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए ही हिटलर को पूरब की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया गया.
हिटलर की आत्मकथा ‘मिनकैंफ’ में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि उसकी साम्राज्यवादी योजना पूरब की ओर बढ़ने की है, न कि अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के स्थापित साम्राज्यों का विभाजन कर उसमें अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना.इसके लिए ही हिटलर ने ‘लेबेनस्राम’ शब्द का उल्लेख किया है. इन क्षेत्रों में पूरब में नव-स्वतंत्र वैसे राज्य थे, जो पूर्व में आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के अंग थे, और प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र हुए थे.
‘पूरब की ओर’ बढ़ने की दिशा अंततः सोवियत संघ की ओर थी, जिसमें पोलैंड का क्षेत्र शामिल नहीं था. इसीलिए, राष्ट्रसंघ का सदस्य होने और उसके प्रावधानों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध होने के बावजूद भी ब्रिटेन और फ्रांस तब तक चुप्पी साधे रहे, जब तक कि हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण न कर दिया. पोलैंड पर जर्मनी का यह आक्रमण भी सोवियत संघ पर तीन तरफ से आक्रमण करने की रणनीति का हिस्सा था. अन्यथा, जर्मनी को राइनलैंड, आस्ट्रिया या चेकोस्लोवाकिया में ही आसानी से रोका जा सकता था.
वर्साय की सन्धि के बाद जर्मनी की जो आर्थिक और राजनीतिक स्थिति थी और जिस दिशा में जर्मनी की आमजनता का रुझान बढ़ता जा रहा था, वह स्पष्टत: समाजवादी क्रांति की ओर इशारा करता था. यह स्थिति जर्मनी के पूंजीपतियों के साथ-साथ ही ब्रिटेन और फ्रांस के पूंजीपतियों और सरकारों के लिए भी चिंता का विषय था.
वर्साय की सन्धि के अनुसार जर्मनी पर क्षतिपूर्ति की जो विशाल राशि तय की गई थी, उसके कारण पूंजी का संकट पूरी दुनिया में पैदा हो गया था. प्रथम विश्व युद्ध के बाद जो स्थिति थी, उसके अनुसार पूंजी का केन्द्रीकरण अमेरिका में हो गया था. कारण यह था कि प्रथम युद्ध के लंबे समय के दरम्यान अमेरिका युद्धरत दोनों ही गुटों को हथियारों की बिक्री कर रहा था, और इसके माध्यम से अकूत पूंजी जमा कर लिया था.
जर्मनी के साथ वर्साय की संधि की शर्तों के माध्यम से जो कुछ किया गया और जैसी शर्तें लादी गई थीं, उसके अनुसार जर्मनी आर्थिक दृष्टि से इतना पंगु हो गया था कि वह एक धेला भी किसी को क्षतिपूर्ति के रूप में देने लायक नहीं था. तब डाज योजना के अंतर्गत अमेरिका जर्मनी को कर्ज देना स्वीकार किया, जिसके माध्यम से कर्ज की एक साइकिल बन गया.
अमेरिका से मिले कर्ज से जर्मनी ब्रिटेन, फ्रांस और इटली को क्षतिपूर्ति की राशि लौटाता था पर वह राशि भी उन देशों में निवेश नहीं हो पाता था. इन देशों को भी अमेरिका से लिए गए कर्ज की राशि लौटानी होती थी, और ऐसा वे उसी राशि से करते थे, जो उन्हें जर्मनी से मिलती थी. यह एक ऐसा चक्र बन गया, जो चलता तो था, पर कहीं निवेश नहीं हो पाता था.
इसी चक्र ने 1929 में विश्व में आर्थिक मंदी का दौर पैदा किया, जिसकी विभीषिका से विश्व पूंजीवाद चरमरा गया था. इसी संकट को टालने के प्रयास का अंतिम नतीजा था द्वितीय विश्व युद्ध.जर्मनी में दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी ताकतों के उदय, नाजी पार्टी का गठन और जर्मनी के राजनीतिक मंच पर हिटलर के उदय के साथ ही युद्ध का रंगमंच सजने लगा था.
नाजी पार्टी और हिटलर के उदय के साथ ही सोवियत संघ के नेता स्टालिन ने बार-बार यूरोपीय देशों को फासीवाद के खतरे से सावधान करते हुए हिटलर के विरुद्ध एक संयुक्त यूरोपीय मोर्चा गठन करने का आग्रह किया था, लेकिन यूरोपीय राज्यों ने अपनी पूर्व साम्राज्यवादी योजना के अनुसार हिटलर को आगे बढ़ाने का कार्य जारी रखा. जब चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी के कब्जे को भी ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका ने स्वीकार कर लिया, तो सोवियत संघ की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता की रक्षा के लिए अंतिम रणनीति के तहत अनचाहे जर्मन-रसियन अनाक्रमण संधि पर सोवियत संघ ने अपने हस्ताक्षर किए थे.
यह स्टालिन को भी पता था कि, और उन सभी को भी पता था, जो हिटलर की आत्मकथा पढ़ चुके थे, हिटलर के ‘लेवेनस्राम’ का वास्तविक अर्थ सोवियत संघ को खत्म करना ही था. 1924 में सोवियत संघ का नेतृत्व संभालने के बाद से इतने कम समय में स्टालिन ने सामरिक दृष्टि से सोवियत संघ को इतना शक्तिशाली नहीं बना पाए थे कि वे जर्मनी जैसे युद्धोन्मादी राज्य के साथ युद्धरत होते. हां, इस संधि से सोवियत संघ को इतना समय तो मिल ही गया था कि वह अपनी अर्थव्यवस्था को सामरिक उद्योग के रूप में बदल सकता.
उसी संधि का असर था कि हिटलर भी तब पूरब की तरफ बढ़ने के पहले पश्चिम में फ्रांस और ब्रिटेन की ओर बढ़ना निश्चित किया. अगर पोलैंड पर जर्मन आक्रमण के विरुद्ध ब्रिटेन और फ्रांस जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा नहीं करते, तो संभावना यही थी कि सोवियत संघ के साथ अनाक्रमण संधि के बावजूद भी हिटलर सोवियत संघ की ही ओर बढ़ता.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी अमेरिका मनमाना मुनाफा कमाने के लिए मित्र और धुरी राष्ट्रों दोनों ही को हथियार तब तक बेचता रहा, जबतक कि पर्ल हार्बर पर जापान द्वारा बमबारी न की गई थी. उसके बाद ही अमेरिका युद्ध में मित्र राज्यों की तरफ से युद्ध में शामिल हुआ. फिर भी जब सोवियत संघ युद्ध के सबसे बुरे दौर में था, और जीवन-मरण के लिए लड़ रहा था और बार-बार मित्र राज्यों से जर्मनी के खिलाफ पश्चिम में दूसरा मोर्चा खोलने का आग्रह करता रहा, पर दूसरा मोर्चा तभी खुला, जब सोवियत संघ की फौजों ने पश्चिम की ओर बढ़ना शुरू किया.
ताज्जुब तो यह है कि इस पूरे दौर में अमेरिका ने सोवियत संघ के हाथों हथियार नहीं बेचे. युद्ध समाप्ति के बाद जिस शान के साथ सोवियत संघ विजेता के रूप में उभरा, उससे अमेरिका के माथे पर बल पड़ गए और, इसी के साथ ही शीतयुद्ध का एक नया दौर शुरू हुआ, जिसका एकमात्र मकसद था दुनिया के नक्शे से सोवियत संघ को हटा देना.
अपनी अजेयता की छबि से स्वभावत: ही सोवियत संघ गुलाम देशों के लिए प्रेरणास्रोत बन गया, और यह स्थिति पूरे विश्व पूंजीवाद के लिए एक खतरे के रूप में देखा गया. पूरी दुनिया में समाजवाद को लोकतंत्र के शत्रु के रूप में प्रक्षेपित और प्रतिष्ठापित किया गया. इसके लिए अमेरिका ने अपनी सेना, खुफिया एजेंसियों, मीडिया समूहों और दुनिया के विश्वविद्यालयों में बौद्धिक युद्ध का सहारा लिया.
अब यह कोई पगला ही यह सोच सकता है कि समाजवादी व्यवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था का निषेध हैं लेकिन, अपने साम्राज्य के विभिन्न देशों में साम्राज्यवादी चिंतकों और बौद्धिकों ने ऐसा ही प्रचारित-प्रसारित किया, और इसके लिए बेतहाशा पैसे भी खर्च किए गए. यह भी एक स्थापित ऐतिहासिक सच्चाई है कि अगर सोवियत संघ न होता तो एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों को आज तक भी आजादी नहीं मिलती. यह भी एक प्रमाणित ऐतिहासिक सच्चाई है कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में आजादी के आंदोलनों का जो दौर शुरू हुआ, उसकी उत्प्रेरक शक्ति सोवियत संघ ही रहा था.
यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में अमेरिकी नव-साम्राज्यवाद की विश्व भर में दमनकारी नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं तथा दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का विरोध अगर किसी एक राज्य ने सबसे अधिक किया, तो वह सोवियत संघ ही था. कोरिया, वियतनाम, भारत, ईरान, इराक, फिलीस्तीन, मिस्र तथा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अन्य देशों में आजादी की लड़ाई में अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अगर कोई खड़ा हुआ, तो वह सोवियत संघ ही था.
यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि जितनी सहायता इन देशों को सोवियत संघ से मिली, उतनी सहायता किसी और से नहीं मिली. लेकिन, इनमें से अधिकतर देशों ने अपने देशों की सत्ताधारी वर्ग के नुमाइंदगी करने वाली सरकारों के दोगलेपन के कारण अंततः अमेरिकी नव-साम्राज्यवाद के पिट्ठू बन गए, और आज तक भी जलील हो रहे हैं.
भारत का बौद्धिक वर्ग तो लगभग पूर्णतः ही अमेरिकी नव-साम्राज्यवाद के साथ मिलकर भारत को अमेरिकी खेमे से जोड़ने में सफल रहा. आजादी के बाद से ही अमेरिका को लोकतंत्र और शांति का दूत और सोवियत संघ को लोकतंत्र के हत्यारे के रूप में प्रक्षेपित किया जाता रहा.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र के चरित्र में आए बदलाव, बदलती आर्थिक परिस्थितियों, नव-स्वतंत्र देशों के सत्ताधारी वर्ग और उनसे जुड़ी राजनीतिक पार्टियों तथा अमेरिका द्वारा नए-नए साम्राज्यवादी विमर्शों के माध्यम से तथा सोवियत संघ के अपने अंतर्विरोधों और अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं के कारण आए आर्थिक खोखलापन तथा सामान्यजनों की जिंदगी के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की सहज सर्वसुलभता न होने के कारण सोवियत संघ अंततः भहरा गया.
संविधान के प्रावधानों के अनुरूप ही सारे गणराज्यों को स्वतंत्र कर दिया गया, और वह भी बिना एक गोली चले. वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया. पूर्वी यूरोप के राज्य भी उस तथाकथित सोवियत संघ के लौह पर्दे से बाहर आ गए. यह मान लिया गया कि दुनिया से शीतयुद्ध का अंत हो गया. क्या इस तथ्य को अमेरिकी नव-साम्राज्यवाद ने स्वीकार किया ? उत्तर नकारात्मक ही है.
विश्व पूंजीवाद ने इसे अपनी जीत समझा, और रहे-सहे रूस को भी मटियामेट करने के लिए पूर्वी यूरोप के पूर्व समाजवादी देशों के साथ-साथ सोवियत संघ के पूर्व गणराज्यों को भी न सिर्फ पूंजीवादी व्यवस्था बल्कि अपने नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो का भी सदस्य बनाने का अभियान ही छेड़ दिया. दुनिया के किसी भी देश ने या वैसे संगठन जो अपने को विश्वशांति के लिए समर्पित मानते हैं और अमेरिका को साम्राज्यवादी राज्य मानते हैं, इसका विरोध नहीं किया.
क्या दुनिया ने यह मान लिया था कि सोवियत संघ के खत्म होते ही रूस भी दुनिया के नक्शे से गायब हो गया ? लाख कमी या गलती हो रूस में, लेकिन यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि सोवियत संघ ने दुनिया को जितना ही दिया, उतना कोई भी साम्राज्यवादी राज्य न कभी दिया है और न ही कभी देगा. अभी दुनिया का अंतिम फैसला बाकी है, जिसे हम देखेंगे.