बागपत का राजीव तोमर अस्पताल के बिस्तर पर कसमसा रहा है, वह बार-बार करवट बदलता है. आंखें खोलता है तो उसे कुछ दिखाई नहीं देता. बोलना चाहता है लेकिन मुंह से आवाज़ नहीं निकलती. ये उस ज़हर का असर है जो उसने फेसबुक पर लाइव आकर सबके सामने अपने हलक से नीचे उतार लिया था. ज़हर की पुड़िया राजीव के हाथ से छीनने की कोशिश में नाकामयाब रही पत्नी ने भी बचा-खुचा ज़हर निगल लिया और अपनी जान गंवा दी. उधर बरेली के मोहम्मद तारिक ने अपने साढ़े तीन साल के बेटे की गुमशुदगी की रपट दर्ज करवाई. जांच में पता चला कि उसने ही अपने बेटे को मार डाला है क्योंकि वह हीमोफीलिया की उसकी बीमारी का इलाज नहीं करवा पा रहा था.
कुछ ही दिनों के अन्तराल पर हुई ये घटनाएं अलग-अलग हैं लेकिन कारण दोनों के पीछे समान हैं – बेरोज़गारी, कारोबार पर नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन की मार, बढ़ता कर्ज, बढ़ता घाटा और साथ ही बढ़ता अवसाद. इन्टरनेट खंगाला जाए तो ऐसी सैकड़ों खबरें पढ़ने को मिल जाएंगी. पिछले दिनों केंद्र सरकार ने खुद ही राज्यसभा में बताया कि साल 2018, 2019 और 2020 के दौरान 25 हज़ार से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की है. इन तीन वर्षों में खुदकुशी की सबसे ज़्यादा घटनाएं 2020 में हुई हैं. दिवालियापन, बेरोजगारी और कर्ज इन आत्महत्याओं की वजह बने हैं. तीन सालों में बेरोज़गारी ने अगर 9 हज़ार से ज़्यादा की जान ली तो कर्ज और दिवाला निकल जाने से 16 हज़ार लोगों ने अपनी जान दे दी.
सवाल ये है कि क्या सरकार को इन आत्महत्याओं से कोई फ़र्क पड़ रहा है ? चुनाव प्रचार में मसरूफ़ भाजपा के नेता विपक्षी दलों के गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं, लेकिन अच्छे-भले इंसानों के लाशों में तब्दील हो जाने पर एक बोल भी क्या उनके मुंह से फूट रहा है ? संसद के एक सदन में जब आत्महत्याओं के बारे में जानकारी दी जा रही थी तो सत्तापक्ष की तरफ़ से क्या किसी ने ‘उफ़’ भी की ? जो कारण इन घटनाओं के पीछे बताए गए, क्या सरकार ने अपने आप को उनके लिए ज़िम्मेदार माना ? कोरोना काल से लेकर हाल तक आत्मनिर्भरता का राग अलापने वाली सरकार ने क्या ये देखा कि ख़ुदकुशी करने वाले अनगिनत छोटे और असंगठित कारोबारी भी तो देश को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने में अपना योगदान दे रहे थे ?
साल 2020 में जब कनफेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने कहा था कि केंद्र और राज्य सरकारों से कोविड के कारण देश भर में लगभग एक चौथाई छोटे कारोबारियों की लगभग पौने दो करोड़ दुकानें बंद होने की कगार पर हैं और ऐसा होना देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत विनाशकारी होगा, तो हमारे हुक्मरानों ने उसे एक चेतावनी की तरह क्यों नहीं लिया ? दुकानें बंद होने के बाद व्यापारी कहां जाएंगे, क्या करेंगे, वे कोई आत्मघाती कदम उठाना तो शुरू नहीं कर देंगे – क्या इसकी चिंता सरकार में बैठे लोगों ने की ? क्या उन्होंने कभी ये जानने की कोशिश की कि 20 लाख करोड़ का जो राहत पैकेज बड़े नाटकीय तरीके से जारी किया गया था, उसका कैसा और कितना फ़ायदा छोटे व्यापारियों को मिला ?
आत्महत्याओं का दौर लॉकडाउन के साथ ही शुरू हो गया था. पहले सामूहिक आत्महत्या के इक्का-दुक्का मामले ही सामने आते थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान बीवी-बच्चों, यहां तक कि अपने व्यवसायिक भागीदार तक के साथ आत्महत्या के मामले हर दूसरे-तीसरे दिन सुर्खियों में रहे. लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद स्थितियां सामान्य होने की उम्मीदें भी धरी रह गईं क्योंकि लाखों लोग अपनी नौकरी खो चुके हैं, लाखों लोग अब भी नौकरी की बाट जोह रहे हैं. कोरोना के इलाज के फेर में न जाने कितने लोग अपनी जमा-पूंजी गँवा चुके हैं. जिन गहनों-जेवरों को गिरवी रखकर लोगों ने कर्ज लिया था, वे अब नीलाम हो चुके हैं. सूदखोरों के दबाव और धमकियों से निजात पाने के लिए कईयों को अपनी जान दे देना ही बेहतर लग रहा है.
आत्महत्या कोई समाधान नहीं है या ख़ुदकुशी कायरों का काम है – सैद्धांतिक रूप से ये बातें अपनी जगह सही हैं लेकिन सरकार की नीतियां और फ़ैसले ऐसे क्यों हों कि छोटे और असंगठित कारोबारियों का दम घुटने लगे ? क्या सरकार को ये बताने की ज़रुरत है कि देश की कितनी बड़ी आबादी अपनी ज़रूरतों के लिए इन्हीं छोटे व्यापारियों पर निर्भर है, इसलिए भी उनका ज़िन्दा रहना ज़रूरी है. हमने पहले भी कहा है कि लगातार हो रही आत्महत्याओं का संज्ञान सरकार को लेना चाहिए. वह हताशा से गुजर रहे छोटे व्यापारियों की पहचान करे, उन्हें राहत देने के इंतज़ाम करे. स्मार्ट सिटी से लेकर सेंट्रल विस्ता जैसी चकाचौंध वाली चीज़ों के लिए के लिए अगर अरबों-खरबों का प्रावधान हो सकता है तो राजीव और तारिक जैसों के लिए क्यों नहीं ?
- पलाश सुरजन
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