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रूस को अमेरिकी पिछलग्गु बने युक्रेन हड़प लेना चाहिए

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युद्ध हमेशा बुरा नहीं होता इसलिए युद्ध दो तरीकों के होते हैं. एक युद्ध साम्राज्यवादी लूट के लिये चलाया जाता है, जिसका विरोध होना ही चाहिए. दूसरा युद्ध साम्राज्यवादी लूट के विरोध में होता है, जिसका सदैव समर्थन करना चाहिए क्योकि यही वह युद्ध है जो शोषित-पीड़ित लोगों के जीवन को अंधेरे से निकाल कर उजाले में ले जायेगा. साम्राज्यवादी लूट के लिए लड़ा गया प्रथम विश्वयुद्ध के बीच दुनिया में पहली बार एक प्रथम समाजवादी राज्य सोवियत संघ अस्तित्व में आया. वहीं दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आधी दुनिया के देशों के आकाश में समाजवादी पताका फहरा दिया गया, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य चीन भी था.

सोवियत संघ का हिस्सा रहे यूक्रेन जब सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद का पिट्ठू बन गया और सोवियत संघ के नेताओं खासकर लेनिन की प्रतिमाओं को ढ़ाह दिया और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के उकसावे पर रुस के खिलाफ साजिश रचने में लग गया. अमेरिकी उकसावे पर बौराए यूक्रेन के खिलाफ अब जब रूस ने हमला कर दिया है, साम्राज्यवादी गिरोह और उसके लग्गुओं-भग्गुओं में कोहराम मच गया है. उन लग्गु-भग्गुओं में भारत भी शामिल है. ऐसे में अतहर अब्बास बिल्कुल सटीक लिखते हैं –

युक्रेन में लेनिन की मूर्तियों को गिराने व कम्युनिस्ट स्मृति चिन्हों को नष्ट करने का कार्य युक्रेन के राष्टृपति जीलेंसकी के पूर्वजों ने किया. इन्हीं युक्रेनियों को लेनिन ने राष्ट्रों के आत्म-निर्णय का अधिकार दिया और रूस के कई जिले इन्हें देकर एक रिपब्लिक बनाया था और बदले में वहां की प्रो-अमेरिकी सत्ता ने सड़क-चौराहे से चुपके से हमारे नेताओं के सारे मोनुमेंट उठा कर फेंक आए.

आज आपको युक्रेन प्रताड़ित नज़र आ रहा है. रूस के हमले का फोटो आप अपने दीवार पर टांग रहे हैं. कविता पाठ कर रहे हैं, पर आप और हम, यह कभी नहीं भूल सकते कि उन्होंने हमारी अस्मिता पर हमला किया है. आप कहेंगे कि इसमें युक्रेनी जनता का क्या दोष ?

कोई दोष नहीं है. युक्रेन की 17% आबादी रूसी है और वो रूस में मिल जाना चाहती है. वहां युक्रेन और रूस की जनता में रोटी-बेटी का संबंध है. और अभी तक इस रिश्ते को पुतिन ने सम्हाला हुआ है. अवाम के साथ खुरेंजी अभी तक नहीं हुआ है.

मैं पुतिन का समर्थक नहीं हूं. मैं महान सोवियत रूस का समर्थक हूं और सोवियत रूस पर हुए हर हमले का दु:ख मुझे सताता है. इसलिए मैं रूस के साथ हूं. उसे युक्रेन हड़प लेना ही चाहिए.

साम्राज्यवादी गिरोहों में विश्वयुद्धों के कारण लगातार उभरते समाजवादी राज्यों का दहशत

युद्धों के बीच से उभरते समाजवादी राज्यों के खौफ से सबक सीखते हुए तमाम साम्राज्यवादी खेमाओं में एक आम सहमति बन गई कि विश्वयुद्ध को किसी भी कीमत पर रोका जाये अन्यथा दुनिया की पटल से ही पूंजीवादी लूट की व्यवस्था समाप्त हो जायेगी. इसी आम सहमति के आधार पर 1945 के बाद से युद्धों पर रोक लगाई गई लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादी, जिसकी बादशाहत ही युद्धों पर टिका हुआ है और उसके कमाई का मुख्य जरीया ही हथियार बेचना है, जो युद्धों के बिना संभव नहीं है, इसलिए उसने दुनिया भर में युद्धों का व्यापार शुरू कर दिया.

इन तमाम साम्राज्यवादी गुटों ने मिलकर नाटो जैसा एक संस्था खड़ा कर लिया और दुनिया के अलग-अलग देशों में युद्धों को भड़काने लगा. एक ओर अमेरिका दुनिया भर में युद्धरत अमेरिका अपनी दादागिरी के साथ-साथ अपने हथियारों का व्यापार करता रहा तो दूसरी तरफ उसने मुख्य समाजवादी राज्य सोवियत संघ समेत तमाम समाजवादी कैपों को नष्ट करने के लिए अन्दरूनी और बाहरी ताकतों का इस्तेमाल करता रहा. जब तक कॉ. स्टालिन रहे तमाम समाजवादी राज्य एकजुट रहा और अमेरिकी मंसूबों को ध्वस्त करता रहा परन्तु, ज्यों ही कॉ. स्टालिन की मृत्यु हो जाती है त्यों ही अन्दरूनी पूंजीवादी ताकतों ने अमेरिकी साम्रज्यवादी गिरोहों की मदद से सोवियत संघ की सत्ता ही पलट दी. यहां तक कि स्वयं कॉ. स्टालिन के शव को ही फांसी पर टांगवा दिया और सामाजिक साम्राज्यवाद में बदल गया. इसके बाद ही दुनिया में एक-एक कर समाजवादी राज्य अन्दर से ही टुटकर सामाजिक साम्राज्यवाद में बदलता गया.

कॉ. स्टालिन की मौत के बाद ही समाजवादी दुनिया में ही दो विचारों का जबरदस्त टकराव शुरू हो गया. फलस्वरूप आधे समाजवादी राष्ट्र चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओ त्से-तुंग के नेतृत्व में समाजवादी विचारधारा पर डटा रहा लेकिन आधे समाजवादी राष्ट्र जो संशोधनवाद को अपना चुके सोवियत संघ के सामाजिक साम्राज्यवादी राष्ट्र के रूप में पतन हो गया, के साथ रहा, जिसका अंत भी सोवियत संघ के पतन के साथ ही हो गया.

कॉ. स्टालिन के बाद समाजवादी राज्य के अस्तित्व को बनाये रखने की जवाबदेही कॉ. माओ त्से-तुंग के कंधे पर आ गई और उन्होंने भी अपनी जवाबदेही को बखूबी निभाया और दुनिया भर की जनता के संघर्ष की आवाज को बुलंद करते रहे. यहां तक कि भारत में जारी कम्युनिस्ट आन्दोलन को ‘वसंत का ब्रजनाद’ उन्होंने ही कहा भले ही भारतीय शासक वर्ग ने उसे नक्सलियों का आंदोलन कहकर न केवल बदनाम करने का असफल प्रयास ही किया अपितु 20 हजार से ज्यादा वीर योद्धाओं का कत्ल कर आंदोलन को जबरदस्त चोट भी पहुंचाया. लेकिन कॉ. माओ त्से-तुंग की मृत्यु के बाद अंतिम समाजवादी राज्य चीन का भी पतन हो गया और वह भी समाजिक साम्राज्यवाद के रुप में पतित हो गया.

ताजा मामला क्या है ?

अमेरिका ने यूक्रेन को नाटो में शामिल करने का झांसा दिया क्योंकि अमेरिका अपना परमाणु मिसाइल सिस्टम यूक्रेन में स्थापित कर रूस को घेरना चाहता था. 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, तब नाटो देशों के साथ रूस के राष्ट्रपति गोर्बाचेव के साथ एक सहमति बनी थी कि नाटो पूर्वी यूरोप (पूर्वी जर्मनी) से आगे अपने संगठन का विस्तार नहीं करेगा और सोवियत संघ से अलग हुए राष्ट्रों को नाटों में शामिल नहीं करेगा. लेकिन अमेरिका की शह पर नाटो ने इस समझौते का न केवल लगातार उल्लंघन किया बल्कि रुस के अन्दरखाने भी हस्तक्षेप करने का प्रयास करता रहा. इसके परिणामस्वरूप 1991 में.जहां नाटो देशों की संख्या 17 थी, वह अब बढ़कर 30 हो गयी है.

अमेरिकी साम्राज्यवाद के द्वारा इस विस्तार का एकमात्र उद्धेश्य था रूस को चारों ओर से घेरना. इस कारण उसने पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए यूक्रेन में बगावत खड़ाकर सोवियत नेता खासकर लेनिन की प्रतिमाओं तक को ढ़ाह दिया और एक अमेरिकी पिट्ठू सरकार का गठन कर दिया और यूक्रेन को भी नाटो में शामिल करने का निमंत्रण दे डाला.

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने अमेरिका से बार-बार अनुरोध किया कि वह यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की चेष्टा न करें क्योंकि यूक्रेन में नाटो के सैन्य अड्डे बनने से रूस की सुरक्षा को स्थायी रूप से खतरा उत्पन्न हो जाएगा लेकिन अमेरिका ने रूस के सभी अनुरोधों को न सिर्फ ठुकरा दिया बल्कि वह यूक्रेन के एक अनुभवहीन पूर्व कॉमेडियन राष्ट्रपति जेलेन्सकी को उनकी सुरक्षा का आश्वासन देता रहा. मजबूर होकर रूस को यूक्रेन पर हमला करना पड़ा. दो दिन की लड़ाई में ही रूस की सेनाएं यूक्रेन की राजधानी कीव में घुस चुकी हैं.

राष्ट्रपति जेलेन्सकी ने राष्ट्र के नाम सन्देश में अमेरिका और नाटो राष्ट्रों के प्रति गहरा दुःख और नाराजगी प्रकट करते हुए यह निराशा प्रकट किया है कि उन्हें अकेला छोड़ दिया गया है. अमेरिका और जापान, ऑस्ट्रेलिया सहित पश्चिम के नाटो राष्ट्रों (विशेषरूप रूप से इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, स्पेन इत्यादि) ने रूस पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है लेकिन इनमें से कोई भी राष्ट्र अपनी सैन्य शक्ति के साथ यूक्रेन की सहायता में आगे नहीं आया है.

कोई भी पश्चिमी राष्ट्र रूस के साथ प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष में उलझना नहीं चाहता है क्योंकि इसका परिणाम यह होगा कि रूस-यूक्रेन का युद्ध यूरोपीय युद्ध में बदल जायेगा. रुसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने साफ कह दिया है कि अगर कोई भी यूक्रेन और उसके बीच आयेगा तो उसे मिटा दिया जायेगा.

मालूम हो कि कॉ. लेनिन और कॉ. स्टालिन की बनाई सोवियत संघ का ढ़हा हुआ देश आज भी बेहद ताकतवर है और पश्चिम के विकसित राष्ट्र कभी भी नहीं चाहेंगे कि रूस के लड़ाकू विमान लंदन, पेरिस, बर्लिन, यहां तक की अमेरिका इत्यादि पर बमबारी कर उनकी विकसित अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दें.

पश्चिमी देश रुस के खिलाफ क्या कर रहा है ?

अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके पिट्ठुओं को इतनी हिम्मत नहीं है कि वह यूक्रेन के समर्थन में रुस के खिलाफ सैन्य अभियान संचालित करे तो अब वह अपने दलाल मीडिया के माध्यम से रुस के इस अभियान के खिलाफ दुश्प्रचार भी भिड़ गया है. मसलन, रुस ने नागरिकों को मार डाला, रुसी सैनिक यूक्रेन की महिलाओं के मोबाइल पर अश्लील मैसेज भेज रहा है आदि-आदि जैसी हास्यास्पद बातें कर रहा है.

जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है. रुसी सैनिकों का यूक्रेन अभियान नागरिक ठिकानों पर नहीं बल्कि एकदम सटीक तरीकों से यूक्रेन के सैन्य शक्ति को निशाना बना रही है और उसे तबाह कर रही है. चुकि यूक्रेन पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहा है, इसीलिए रुसी लोगों के साथ यूक्रेन का संबंध बेटी-रोटी का है. ठीक वैसे ही जैसे भारत और नेपाल का है. बल्कि उससे भी बेहतर. इसीलिए पश्चिमी दलाल मीडिया के इस दुश्प्रचार का भी कोई आधार नहीं हो सकता.

अमेरिकी साम्राज्यवाद का चीन के खिलाफ अभियान

जहां अमेरिका अपने मुख्य दुश्मन चीन की घेरेबन्दी करने के लिए पूरी दुनिया में चीन के खिलाफ माहौल तैयार करने के लिए, दुनिया के विभिन्न देशों में सैकड़ों फौजी अड्डे बना लिया है, और साम, दाम, दण्ड, भेद, छल-छद्म-झूठ-फरेब का इस्तेमाल कर चीन को बदनाम करने तथा चीन की घेरेबन्दी करने में लगा है, वहीं चीन ‘बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव’ नामक दुनिया की सबसे बड़ी परियोजना के जरिये 65 देशों तथा तीन महाद्वीपों को स्थल मार्ग से जोड़कर अमेरिकी घेरेबन्दी को तोड़ता चल रहा है.

दुनिया के 140 देशों ने चीन की इस परियोजना का समर्थन किया है जबकि अमेरिका, आस्ट्रेलिया, भारत और जापान जैसे चार देशों का ‘क्वाड’ संगठन इसके विरोध में बनाया गया है. इसके अलावा आस्ट्रेलिया, अमेरिका और UK को मिलाकर, AUKUS नाम का संगठन भी चीन को घेरने के लिए अमेरिका ने ही बनाया है. और अब अमेरिकी साम्राज्यवाद यूक्रेन के कन्धे पर बन्दूक रखकर नाटो सेना के बल पर इसी ‘बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव’ को रोकने की कोशिश कर रहा है.

चीन की घेरेबन्दी के लिए ही नेपाल को 50 करोड़ डालर कर्ज देकर पटाने की कोशिश हो रही है तो उधर श्रीलंका को भारत के माध्यम से 2.5 अरब डालर दिया जा रहा है तथा चीन को अन्दर से कमजोर करने के लिए वीगर मुसलमानों को भड़काने की नाकाम कोशिश अमेरिका कर रहा है. चीन के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद लम्बे समय से रूस को अपने खेमें में शामिल करना चाहता है. लेकिन रूस किसी भी कीमत पर अमेरिका के साथ जाने को तैयार नहीं. यद्यपि रूस के शासक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा, अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो सैन्य संगठन में शामिल होना भी चाहता है, मगर रूस की जनता अमेरिकी साम्राज्यवाद से घृणा करती है.

यदि रूस का शासकवर्ग अमेरिका विरोधी जनधारणा को नजरअंदाज करके अमेरिकी खेमे में जायेगा तो रूस में क्रान्तिकारी शक्तियों का प्रभाव बढ़ जायेगा, और वहां क्रान्तिकारी तख्तापलट भी हो सकता है. अमेरिका अपने खेमे में रूस को भी लाने में नाकाम होने पर यूक्रेन को कमजोर कड़ी समझ कर तोड़ना चाह रहा है, ताकि BRI प्रोजेक्ट को रोका जा सके. अब रूस यूक्रेन युद्ध एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया है. यूक्रेन की क्रान्तिकारी शक्तियां देश को अमेरिकी चंगुल में नहीं जाने देना चाहती हैं. वे अपने देश की सरकार के खिलाफ जनयुद्ध चला रही हैं.

यूक्रेन का एक बड़ा हिस्सा जीत कर वे अपनी ‘पीपुल्स रिपब्लिकन स्टेट’ का गठन कर चुकी हैं, उनकी सरकार को कई देशों ने मान्यता भी दे दिया है. अब यूक्रेन में युद्ध जितनी तेजी से आगे बढ़ेगा, क्रान्ति भी उतनी ही तेजी से सफलता की ओर बढ़ेगी. अक्सर युद्धों के बीच से ही क्रान्तियों का जन्म होता रहा है, जिसकी आहट यूक्रेन में सुनाई दे रही है.

भारत कहां खड़ा है ?

अमेरिका के भरोसे रुस के खिलाफ जंग लड़ने का ऐलान करने वाला यूक्रेन अब जब अकेला हो गया है तब अमेरिकी पिट्ठू यूक्रेनी शासक अपना मानसिक संतुलन खो बैठा है और नाटो के विश्वासघात से निराश होकर वह अब वह भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मदद की अपील जारी कर रहा है. खैर यह रीढ़विहीन मोदी जाने और उसका काम जाने क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री ग्लोबल लेवल पर कोई बयान नहीं दे रहा हैं औऱ खुर्जा बुलंदशहर में यूक्रेन संकट के नाम पर वोट मांग रहा है और भारतीय मीडिया यूक्रेन का मर्सिया गा रहा है.

लेकिन भारत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अमेरिकी गुट के साथ खड़ा है क्योंकि भारत अमेरिका से लेमोआ, कामकासा, सिस्मोआ, बेका आदि कई सैन्य समझौते कर चुका है, और ‘नाटो के सहयोगी देश’ का दर्जा भी प्राप्त कर चुका है. यानी भारत को मोदी सरकार युद्ध की स्थिति में आने पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थन में रुस के खिलाफ युद्ध की आग में झोंकने की तैयारी कर चुका है. अत: भारत की जनता को यह सच जानना और तय करना जरुरी है कि क्या वह अपने चिरपरिचित भरोसेमंद दोस्त रुस के खिलाफ विश्वासघाती अमेरिका के झंडे तले युद्ध लड़ना चाहता है या नहीं ?

 

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