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हत्या और बलात्कार बीजेपी सरकार की निगाह में जघन्य अपराध नहीं हैं ?

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हत्या और बलात्कार बीजेपी सरकार की निगाह में जघन्य अपराध नहीं हैं ?

प्रियदर्शन, एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर, NDTV इंडिया

हरियाणा की बीजेपी सरकार हत्या और बलात्कार को जघन्य अपराध नहीं मानती. अपनी दो शिष्याओं से बलात्कार और दो लोगों की हत्या के जुर्म में उम्रक़ैद काट रहे डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम उसकी नज़र में जघन्य अपराधी नहीं हैं. यह बात हरियाणा सरकार ने पंजाब हरियाणा हाइकोर्ट के सामने मानी है. हरियाणा सरकार ने पिछले दिनों गुरमीत राम रहीम की 21 दिन की फर्लो मंज़ूर की. इसके विरोध में अर्ज़ी आई तो सरकार ने बताया कि राम रहीम ने खुद हत्या नहीं की, बस हत्या की साज़िश की- वे ‘हार्ड कोर क्रिमिनल’ नहीं हैं.

पता नहीं, प्रधानमंत्री को यह ख़बर मालूम है या नहीं. उनकी सरकार बेटी पढ़ाओ और बेटी बढ़ाओ का नारा देती है. लेकिन ऐसे लोगों के साथ खड़ी हो जाती है जो अपने आश्रय में आई बेटियों से ही बलात्कार करते हैं. इसके पहले आसाराम बापू के साथ भी बीजेपी सरकारों की उदारता छुपी नहीं रही है. आसाराम और उसके बेटे को अपनी ही नाबालिग शिष्याओं से बलात्कार का दोषी पाया गया, लेकिन पुलिस वालों के लिए उनकी गिरफ़्तारी किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं थी. उनको गिरफ्तार करने वाले पुलिस अफसर ने बाद में इस प्रसंग पर पूरी किताब लिख डाली.

ये दोनों अकेले मामले नहीं हैं. उन्नाव से बीजेपी विधायक रहे कुलदीप सिंह सेंगर का अरसे तक बीजेपी बचाव करती रही. बीजेपी सांसद साक्षी महाराज उनसे मिलने जेल पहुंचे और उन्होंने अपनी जीत के लिए उन्हें धन्यवाद दिया. वैसे एक दौर में खुद साक्षी महाराज ऐसे आरोप भुगत चुके हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में गृह राज्य मंत्री चिन्मयानंद स्वामी पर भी ऐसे आरोप लगे लेकिन वे सबूत के अभाव हाईकोर्ट द्वारा बरी कर दिए गए. उन्होंने बस ये माना कि वे ‘मसाज’ करवाते थे और यह करवाना गुनाह नहीं है.

सवाल है, बीजेपी ऐसा क्यों करती है ? गुरमीत राम रहीम के मामले में इसका जवाब है. पंजाब में चुनाव हो रहे हैं जहां डेरा सच्चा सौदा का प्रभाव माना जाता है. बताया जा रहा है कि बीजेपी गुरमीत राम रहीम के समर्थन से इस बाज़ी में अपना दांव मज़बूत करने की कोशिश कर रही है.

लेकिन क्या चुनाव ही सब कुछ हैं? निश्चय ही नहीं. बीजेपी के लिए और भी कुछ है. राजनीतिक लाभ के अलावा सांप्रदायिक नफ़रत भी वह पट्टी है जिसको बांध कर वह ऐसे मामलों का इंसाफ़ करने निकलती है. कठुआ में उसके विधायक बलात्कार के आरोपियों के समर्थन में निकले जुलूस में शामिल पाए जाते हैं. उसे 16 दिसंबर 2012 के वीभत्स बलात्कार कांड के लिए उचित ही- फांसी की सज़ा ज़रूरी लगती है, लेकिन बिलकीस याक़ूब के मामले में वह ख़ामोश हो जाती है. बिलकीस याकूब के साथ गुजरात दंगों के दौरान जो वहशत हुई, वह भी डरावनी थी. लेकिन जिस तरह पूरे गुजरात दंगे के लिए बीजेपी जो संवेदनहीन रवैया प्रदर्शित करती रही है, वही इस मामले में भी दिखाई पड़ती है.

यह लेख बीजेपी नेताओं के निजी पाखंड को उधेड़ने के लिए नहीं लिखा जा रहा है. यह उस वैचारिक आग्रह की कलई खोलने के लिए लिखा जा रहा है जिसमें राष्ट्र, देश, धर्म, स्त्री- सबको बहुत पवित्रतावादी भाव से- किसी आडंबर की तरह- प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन अवसर आते ही सारी पवित्रता तार-तार हो जाती है, महान नेतागण एक दुराचारी साधु की महफ़िल में नाचते नज़र आते हैं, पाखंडी साधु अल्पसंख्यकों के संहार का आह्वान करते हैं और लोकतांत्रिक ढंग से विरोध करने वाले किसानों को एक केंद्रीय मंत्री का मगरूर बेटा अपनी गाड़ी से कुचल डालता है. बाद में साबित होता है कि उसका गुरूर सही था, भारतीय लोकतंत्र की सारी व्यवस्थाएं उसे पूरे चुनाव तक भी जेल में नहीं रख सकीं. उसके मंत्री पिता बेख़ौफ़ चुनाव प्रचार में जुटे हैं.

अगर गुरमीत राम रहीम जघन्य अपराधी नहीं है तो जघन्य अपराधी कौन है? क्या 84 साल के फादर स्टैन स्वामी जो इतने अशक्त थे कि अपने कांपते हाथों से चम्मच तक मुंह में नहीं लगा पाते थे और अदालत से एक छोटी सी राहत मांगते-मांगते जेल में ही उनकी मौत हो गई? या छत्तीसगढ़ के गरीबों के बीच काम कर रही सुधा भारद्वाज जघन्य अपराधी हैं जिन्हें तीन साल से ज्यादा जेल काटनी पड़ी? या फिर गौतम नवलखा या आनंद तेलतुंबडे जैसे लोग ख़ौफ़नाक और डरावने अपराधी हैं जिन्हें ज़मानत तक नहीं मिल पा रही है?

शायद बीजेपी की संवेदना का पात्र कुछ ऐसा ही है. इन दिनों उसके यहां नाथूराम गोडसे की पूजा का चलन बढ़ गया है. गुजरात में अब बच्चों के बीच वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय रखा जाता है- नाथूराम गोडसे मेरा हीरो. नाथूराम गोडसे भी जघन्य हत्यारा नहीं था. उसने भी 79 साल के एक बूढ़े को बस तीन गोलियां मारी थीं जो ‘हे राम’ करता हुआ ज़मीन पर गिरा था.

दरअसल बीजेपी का दोहरा रवैया बहुत प्रत्यक्ष है. वह आतंकवाद के ख़िलाफ़ ज़ीरो टॉलरेंस की बात करती है. लेकिन पंजाब में बेअंत सिंह की हत्या में जिस बलवंत सिंह राजोआना को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई है, उसके पक्ष में अकाली दल के साथ विधानसभा में प्रस्ताव पास करती है. जबकि बलवंत सिंह राजोआना वह शख्स है जिसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है. वह कश्मीर में पकड़े गए आतंकियों के आका माने जा रहे पुलिस अफसर देविंदर सिंह पर मामला ख़त्म करने की वकालत करती है क्योंकि इससे कुछ सुरक्षा के कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं.

लेकिन बीजेपी को, हरियाणा सरकार को या किसी और को दोष देना बेकार है. अंततः यह हमारा लोकतंत्र है जो ऐसे नेताओं को जगह ही नहीं देता, यह भरोसा भी दिलाता है कि वे अपनी हिंसक करतूतों के बावजूद सत्ता में बने रहेंगे. हमने इन्हें चुना है, कुछ ख़ून के छींटे हमारी आत्मा पर भी पड़ेंगे. कुछ चोट हमें भी झेलनी हो होगी.

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