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आज भी दलित उद्धार की सबसे बड़ी आवाज़ उच्च वर्ण के लोगों की है

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आज भी दलित उद्धार की सबसे बड़ी आवाज़ उच्च वर्ण के लोगों की है
मेधा पाटकर – हिमांशु कुमार
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

मनुवादी सरकार ने दलित शोधकर्ताओं को विदेश में जा कर भारतीय समाज, इतिहास और राजनीति पर शोध करने के लिए वज़ीफ़ा नहीं देने का फ़ैसला किया है. राजद सांसद मनोज झा ने इस फ़ैसले का पुरज़ोर विरोध किया है. हैरत की बात ये है कि संसद में बैठे सैकड़ों दलित नेतागण इस मामले पर ख़ामोश हैं.

भारत के तथाकथित दलित चिंतक, साहित्यकार, ब्लॉगर, जो दिन रात ब्राह्मण को गाली दे कर विकृत आनंद पाते हैं, उनकी तरफ़ से भी कोई प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है. इस फ़ैसले को आए हुए दो दिन हो चुके हैं.

सच तो ये है कि भारत में दलित उद्धार के लिए सबसे बड़ी आवाज़ उच्च वर्ण के लोगों ने ही आज तक उठाई है. एकाध सावित्री बाई फूले और बाबा साहेब भी रहे हैं, लेकिन दलितों के अधिकारों को ज़मीन पर उतारने की लड़ाई में सैकड़ों अ-दलित रहे हैं.

इस क्रम में मुझे सी. राजगोपालाचारी विशेष रूप से याद आते हैं. तत्कालीन मद्रास नगरपालिका अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने दलित बच्चों को जेनरल स्कूल में दाख़िला दिया. जब सवर्णों ने उन्हें उन स्कूलों से अपने बच्चों को निकालने की धमकी दी तो चक्रवर्ती जी का जवाब था कि ‘ब्राह्मण अगर अपने बच्चों को अशिक्षित रखना चाहते हैं तो वे बेशक रखें, दलित बच्चों को पढ़ा कर आगे बढ़ाने की ज़रूरत है.’

दूसरी घटना मद्रास स्टेशन से संबंधित है. मद्रास के गवर्नर रहते हुए उन्होंने देखा कि मद्रास स्टेशन पर यात्रियों को पानी पिलाने वाले सारे ब्राह्मण थे क्योंकि दूसरी जाति के लोगों के हाथों लोग पानी नहीं पीना चाहते थे. चक्रवर्ती ने नियम बदल दिया. दलितों को भी पानी पिलाने का ज़िम्मा दिया गया. इस फ़ैसले का भारी विरोध हुआ. चक्रवर्ती पीछे नहीं हटे. उनका कहना था कि ‘जो जाति देख कर पानी पीते हैं, वे प्यासे मरने को स्वतंत्र हैं.’ मजबूरन सबको मानना पड़ा.

आज जो तथाकथित दलित चिंतक स्टालिन के दलितों को मंदिर के पुजारी बनाने पर लहालोट हो रहे हैं, उन बेवक़ूफ़ों को नहीं मालूम कि ऐसा कर के स्टालिन सिर्फ़ ब्राह्मणवाद को ही बढ़ावा दे रहे हैं. पुजारी बन कर जाति में उठना कोई सामाजिक क्रांति नहीं है, वरन एक प्रतिक्रांति है. ये ठीक वैसा ही है जैसे कि आप खुद शोषक बन कर अपने साथ हुए शोषण का बदला ले रहे हैं. यह मूर्खता की चरम सीमा है.

अक्सर ये तथाकथित दलित चिंतक वामपंथी दलों की आलोचना इस बात पर करते हैं कि इनका नेतृत्व भी ऊंची जातियों के हाथों में है, इसलिए वे मूलतः दलित विरोधी हैं. दीपांकर भट्टाचार्य ब्राह्मण होने के वावजूद जीवन भर दलितों की लड़ाई लड़ रहे हैं और मायावती छाप दलित अपने लोगों को धोखा देते हुए राजनीतिक हाशिये पर जा चुकी है.

दरअसल, आख़िरी सच दलितों और सवर्णों की लड़ाई नहीं है, यद्यपि भारत में जाति प्रथा एक कोढ़ है. असल लड़ाई शोषक और शोषित लोगों के बीच है. असल मुद्दों से भटकाने के लिए राज्य वित्त संपोषित तथाकथित दलित चिंतक कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, जो किसी दलित की बेटी की हत्या और रेप पर न यूपी जाते हैं और न ही बस्तर. वे सोशल मीडिया पर और सेमिनारों में ब्राह्मणों को गाली दे कर दलितों के हितैषी बन जाते हैं.

बस्तर जाने के लिए हिमांशु कुमार और मेघा पाटकर हैं ही और यूपी के लिए प्रियंका गांधी हैं ही, जो ब्राह्मण समाज से आते हैं.

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