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यूपी की राजनीति – सावधान आगे सांड है

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यूपी की राजनीति - सावधान आगे सांड है
खेतों की खड़ी फसल को चरता छुट्टा पशु / एक आदमी को मारता सांड़
रवीश कुमार

किसान जब गौ रक्षा की राजनीति की चपेट में आ रहे थे, तब उन्हें नहीं पता होगा कि इसकी क़ीमत केवल वही चुकाने जा रहे हैं. अपनी जेब से पचास हज़ार से कई लाख तक की तारें ख़रीदेंगे ताकि फसलों को छुट्टा मवेशियों के प्रकोप से बचा सके. हर तरह के किसानों ने इसकी क़ीमत चुकाई है. यह मार सब पर पड़ी है. किसानों की सीमित कमाई का पैसा तारों में लगा है. अनुत्पादक चीजों में. ये पैसा ख़रीदारी या खेती में लगता तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तरलता आती.

यह एक संकेतक हो सकता है कि इस तरह के मसले के लिए लोग अपनी जेब से हज़ारों और लाखों रुपये चुका रहे हैं. इस देश के युवाओं ने रोज़गार जैसे मुद्दे को दस साल पीछे धकेल कर क़ीमत चुकाई. अब इस संकट को किसी की सरकार में ठीक नहीं किया जा सकेगा. जीएसटी के बाद के दौर में ख़ज़ाना ख़ाली है. मुझे तो लगता है कि सांप्रदायिक धार्मिक मुद्दों के बदले लोग अपनी बचत और संपत्ति भी सरकार को दे देंगे, बस राजनीति से उन्हें धार्मिक मुद्दों की सप्लाई होती रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह भी करके देख लें. युवा लिख कर दे देंगे कि जॉब नहीं हिजाब का मुद्दा दो. फ़िक्स डिपॉजिट ज़ब्त कर लो लेकिन साइकिल से लेकर कपड़े को आतंक से जोड़ते रहो. लोगों को इसमें जो सुख मिल रहा है उसे आप सांड को आतंक से जोड़ कर नहीं मिटा सकते हैं.

क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह स्वीकार करने लगे हैं कि यूपी में सांड और बेसहारा पशुओं का मुद्दा गंभीर है? विपक्ष की तरफ से समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के समय से बेसहारा पशुओं और सांड की समस्या पर बोल रहे हैं. तीसरे चरण के प्रचार के भाषणों में प्रधानमंत्री जनता से वादा कर रहे हैं कि दस मार्च का समाधान करेंगे वो ये बात लिख कर देने के लिए तैयार हैं. लेकिन कैसे दूर करेंगे ये बात लिख कर नहीं दे सके हैं. 2017 में बीजेपी के घोषणा पत्र में लिखित रूप में बेसहारा पशुओं के संरक्षण का वादा किया गया था, 2022 घोषणा पत्र में इस पर कुछ लिखा ही नहीं है. फिर भी प्रधानमंत्री मोदी जनता से कह रहे हैं कि उनके शब्दों को वह लिख कर रख ले.

प्रधानमंत्री अब लिख कर रखने की बात कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के घोषणा पत्र में क्यों नहीं लिखा हुआ है. इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री के मुद्दों की सूची में यह बीच चुनाव में जुड़ा है. बहुत कम होता है कि प्रधानमंत्री विपक्ष के उठाए जा रहे मुद्दों को इस तरह से स्वीकार कर लें. क्या यह भी मतलब निकाला जाए कि चौथे चरण तक आते आते प्रधानमंत्री सरकारी भर्ती और पुरानी पेंशन की बहाली के मुद्दे पर भी लिख कर रखने की बात करने लगेंगे. वैसे तो बेसहारा पशुओं की समस्या पूरे देश की है लेकिन यूपी के बहाने अब इस पर प्रधानमंत्री भी बोलने लगे हैं.

सांड, नीलगाय, लाचार गाएं इन्हें कभी आवारा तो कभी बेसहारा, कभी अन्ना तो कभी छुट्टा कहा जाता है. इंटरनेट में आवारा जानवर और दुर्घटना सर्च करेंगे तो अनेक ऐसी खबरें आ जाएंगी कि इनकी वजह से लोगों की जान गई है. फसल बर्बाद हो गई है. यह समस्या आज की नहीं है औऱ न आज विकराल हुई है. कई साल से यह समस्या इस कदर विकराल है कि किसान बर्बाद हो रहा है. बहुत से किसान रातों को सोना भूल गए हैं, सांड खदेड़ने में लगे हैं.

प्रधानमंत्री यह नहीं बता रहे है कि बीजेपी ने इनसे निजात दिलाने का वादा 2017 में किया था, योगी सरकार ने कदम उठाए भी फिर भी यह समस्या विकराल क्यों बनी रही ? क्या वे कदम दिखावे थे ? आचार संहिता लागू होने से पहले यूपी में प्रधानमंत्री के कई सरकारी कार्यक्रम हुए उनमें आवारा पशुओं की समस्या के समाधान का ज़िक्र शायद ही आया हो. ऐसा क्या हुआ कि तीसरे चरण के चुनाव प्रचार के समय से प्रधानंमत्री आवारा पशुओं को लेकर आश्वासन देने लगे हैं.

प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि इसकी कीमत आम लोग और किसान चुका रहे हैं लेकिन उन्हें बताना चाहिए कि वो कीमत क्या है, क्यों है. उसकी नौबत किस राजनीति से आई ? इस पर अब कोई खुलकर बात नहीं करना चाहता लेकिन इस एक राजनीति ने खेत खलिहानों की सूरत बदल दी है. खुले हुए खेत अब तारों से घिरे नज़र आते हैं.

ढाई बीघे खेत को तारों से घेरने का खर्चा 35,000 है. अगर इसी का हिसाब जोड़ लिया जाए कि हर ज़िले में यूपी के कितने किसानों ने कंटीली तार लगाने में कितने लाख खर्च किए हैं, तब पता चलेगा कि किस तरह गौ रक्षा की राजनीति के चक्र में किसान फंस गए हैं. इस कंटीली राजनीति से घिरते घिरते वे अब खेतों को कांटों से घेरने लगे हैं. अपनी जेब से पचीस पचास हजार रुपये लगाकर.

2017 के बीजेपी के घोषणा पत्र में इसका ज़िक्र था ही कि फसलों की क्षति रोकने के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर भूमि आरक्षित कर पशु संरक्षण की योजना बनाई जाएगी. नीलगाय एवं अन्य आवारा पशुओं से फसल की क्षति रोकने के लिए पर्याप्त कदम उठाये जाएंगे. यूपी सरकार के आदेशों को लेकर मीडिया में छपी ख़बरों से पता चलता है कि 2017 से ही सरकार आवारा पशुओं को नियंत्रित करने के लिए आदेश जारी करती रही है. अभियान चलाती रही है.

2 जनवरी 2019 को योगी सरकार का एक आदेश है कि ग्राम पंचायत से लेकर नगर निगम में अस्थायी गोवंश आश्रय स्थल की स्थापना और उसके चलाने की नीति बनाई गई है. जनवरी 2019 में नवभारत टाइम्स और पत्रिका में दो खबरें छपी है कि योगी आदित्यनाथ ने सभी ज़िला अधिकारियों को आदेश दिया है कि दस जनवरी तक सभी आवारा पशुओं को पकड़ कर आश्रय स्थल में पहुंचा दिया. इन खबरों में योगी का बयान छपा है कि ने कहा, ‘गो-संरक्षण केंद्रों में जहां बाउंड्री नहीं है, वहां फेंसिंग लगाई जाए. पशुओं की देखरेख करने के लिए जरूरी नियुक्ति हो. साथ ही आवारा पशुओं के मालिकों का पता लगाकर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए. अगर कोई व्यक्ति गो-संरक्षण केंद्र से अपने पशु को छुड़ाने के लिए आता है, तो उससे फाइन लिया जाए. सारी खबरें अखबारों में छप चुकी हैं.

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पशुओं की देखरेख के लिए कितनी नियुक्ति हुई है इसकी जानकारी तो सरकार ही दे सकती है. अखिल भारतीय पशुधन जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक यूपी में 2012-19 के बीच छुट्टा पशुओं की संख्या 17.34 प्रतिशत बढ़ी है जबकि देश भर में इसकी संख्या में 3.2 प्रतिशत की कमी आई है. अखिलेश यादव के ट्विटर हैंडल पर हमने देखा कि 2019 के चुनाव के दौरान उन्होंने सांड की समस्या को लेकर कई ट्वीट किए हैं.

अखिलेश तब से सांड की समस्या उठा रहे हैं लेकिन अब जाकर प्रधानमंत्री ने उनके उठाए मुद्दे का संज्ञान लिया है. 2019 के चुनाव में और उसके बाद हर साल यूपी के किसान चिल्ला रहे थे कि बेसहारा पशुओं ने खेती बर्बाद कर दी है. वे रात रात भर जाग रहे हैं लेकिन इसका समाधान नहीं निकल सका. किसान कर्ज़ लेकर और खेती की सीमित कमाई से पैसा बचाकर खेतों को तार से घेरने में पचीस से पचास हज़ार तक खर्च करने लगे.

अखिलेश का एक ट्वीट 30 जनवरी 2019 का है. अखिलेश ने ट्वीट किया है कि गोंडा में सांड के हमले से मारे गए किसान परिवार को हमारी पार्टी की तरफ से सहायता दी गई. असंवेदनशील भाजपा ने इस संबंध में कुछ नहीं किया. 22 अप्रैल 2019 का ट्वीट है कि हरदोई में सीएम योगी का हेलिकाप्टर जहां लैंड हुआ वहीं पर दो सांड आपस में लड़ने लगे. अखिलेश यादव का एक ट्वीट 26 अप्रैल 2019 का है.

लिखा है कि कल रैली में एक सांड अपना ज्ञापन देने घुस आया और भाजपा सरकार का गुस्सा सिपाही पर निकाल डाला. उन्होंने 13 मई 2019 को भी ट्वीट किया है कि पुराने लखनऊ और रायबरेली रोड से 140 सांड पकड़ कर कान्हा उपवन भेजे गए हैं. लेकिन जितने पकड़े गए हैं उससे ज्यादा सड़कों पर घूम रहे हैं. 2019 से लेकर 2022 के चुनाव तक में अखिलेश का ज्यादातर भाषण बगैर सांड के पूरा नहीं होता है.

2019 का माहौल अलग था. उस वक्त मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आत्मविश्वास से भरे थे. वे कुशीनगर की सभा में इस मुद्दे को धार्मिक रूप से चुनौती देने लगे. छुट्टा सांड के आरोप के मुकाबले में उसे नंदी बता रहे थे. सांड की समस्या उठाने वालों को कसाई का मित्र. यह मुद्दा भी ध्रुवीकरण के काम आता रहा लेकिन जेब किसानों की काटता रहा.

2022 तक काफी कुछ बदल चुका है. इस बार भी सांड की समस्या को नंदी बता कर योगी आदित्यनाथ हुंकार भर सकते थे लेकिन किसानों की समस्याएं हाहाकार बन कर हुंकार पर भारी पड़ रही हैं. क्या किसान समझ गए हैं कि हिन्दू मुस्लिम पोलिटिक्स के कारण उन पर यह समस्या लाद दी गई है. वे हज़ारों रुपये का कर्जा लेकर खेतों में कंटीली तार लगवा रहे हैं औऱ रात रात जाग रहे हैं.

9 फरवरी 2022 को दैनिक भास्कर के दिवांशु तिवारी की रिपोर्ट है. भास्कर ने लिखा है कि बीजेपी ने 16 पेज का लोक कल्याण संकल्प पत्र जारी किया है. इसमें 10 मुद्दों पर 130 एलान किए गए हैं और पेज नंबर 13 ख़ाली छोड़ा गया है. शायद जनता इस खाली पन्ने पर अपने मुद्दे लिख दे. दिवांशु ने लिखा है कि बुंदेलखंड समेत UP के 3 जिलों सीतापुर, हरदोई और कौशांबी से लगातार छुट्टा पशुओं पर खबरें छप रही हैं.

मार्च 2021 सीतापुर में सरकारी स्कूल में बंद किए गए सैकड़ों पशुओं की खबर वायरल हुई थी. जनवरी में एक यू-ट्यूब चैनल पर कौशांबी के मूरतगंज के संतोष पटेल ने कहा था, ‘जो छुट्टा पशुओं से छुटकारा दिलाए, हम उसी को वोट दे देंगे.’ लेकिन इस पर कोई घोषणा नहीं है. ये भास्कर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है.

2017 के घोषणा पत्र में बीजेपी ने वादा किया था तो 2022 में वादा क्यों नहीं किया ? प्रधानमंत्री को क्यों कहना पड़ रहा है कि दस मार्च के बाद से इसका समाधान करेंगे. क्या सांड का मुद्दा अब बीजेपी को परेशान करने लगा है ?

समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया है कि सांड के हमले में मारे जाने वाले लोगों के परिवार को पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद की जाएगी. बीजेपी ने ऐसा कोई वादा नहीं किया है. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि दस मार्च के बाद इस परेशानी को दूर करेंगे. सितंबर 2020 में मुरादाबाद के अपार शुक्ला की मौत सांड से टकरा जाने के कारण हो गई. उनके परिजनों ने नगर निगम से एक करोड़ का मुआवज़ा मांगते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में अर्ज़ी लगा दी. कोर्ट अन्य मामलों में भी आवारा पशुओं की समस्या को लेकर प्रशासन को फटकार लगा चुका है.

जिस तेवर से गौ रक्षा की राजनीति हुई, हिन्दी बनाम मुसलमान हुआ, उस तेवर से गौशालाओं का निर्माण नहीं हुआ और उनके प्रबंधन में खामियों की खबरें आती रहीं. गौशालाओं में भी गायें मरती रहीं.

पिछले साल दिसंबर में ललित पुर के एक अस्थायी गोवंशन आश्रय स्थल में दस गायों की मौत हो गई थीं. उनके शवों को फेंक दिया गया था. जांच में यह बात सही पाई गई. खंड विकास अधिकारी सहित नौ लोगों पर केस हो गया. इस मामले को लेकर प्रियंका गांधी ने यूपी सरकार को पत्र भी लिखा था. गौ-वंश की राजनीति पर बीजेपी की कापीराइट है लेकिन गौशालाओं के कुप्रबंधन का मसला उठाकर विपक्ष बीजेपी को घेरने भी लगा है.

कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में लिखा है कि आवारा पशुओं से फसलों को नुकसान होने पर प्रति एकड़ तीन हज़ार का हर्जाना मिलेगा. आवारा पशुओं के लिए हर न्याय पंचायत में गौशाला होगी औऱ जो भी पशु गौशाला में रखा जाएगा प्रति पशु पांच सौ रुपये कुछ समय के लिए दिए जाएंगे. साथ ही छत्तीसगढ़ की तर्ज पर दो रुपये किलो की दर से गोबर खरीदा जाएगा.

विपक्ष लगातार इस मसले को उठा रहा है और अब प्रधानमंत्री आश्वासन देने लगे हैं. चंद अपवाद तो हर जगह होते हैं लेकिन बहुत सारी गौशालाओं की हालत ठीक नहीं है. मीडिया की खबरों के अनुसार 2018 में ही योगी सरकार ने प्रत्येक नगर निगम को दस करोड़ रुपये दिए हैं. उसके बाद के साल में करोड़ों रुपये देने की खबरें छपी हैं फिर भी बेसहारा पशुओं की समस्या में कमी नहीं आई है.

वाज़िदपुर गांव में यह गौशाला तीन साल पहले बनी थी. वाराणसी मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर हरहुआ ब्लाक में है. हमारे सहयोगी अजय सिंह के अनुसार इस गौशाला में 100 गाय रखने की व्यवस्था है लेकिन आज जब एनडीटीवी की टीम ने पड़ताल की तो सिर्फ 4 गोवंश ही मिले. ज्यादा जानकारी लेने पर पता चला कि साल भर पहले यहां तकरीबन 70 गाय मर गई थी उसके बाद यह गौशाला बंद हो गई थी. अभी 3 महीना पहले फिर खुली है तो 4 गाय हैं.

कर्मचारियों का आरोप है कि उनका 1 साल से पैसा नहीं मिला है. ग्राम प्रधान कहते हैं कि केयरटेकर से लेकर भूसा वाले तक के पैसे बाकी हैं. अपनी जेब से कब तक खर्च करें. अब वह यहां कोई गोवंश रखना नहीं चाहते. जो गाय मरी थी उसे भी वह कहते हैं कि उन्होंने अपने पैसे से उन्हें दफनाया.

मीडिया में इस तरह की और भी खबरें छपी हुई मिलती हैं कि गौशाला कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला है. भूसे का पैसा नहीं मिला है. 2019 में योगी आदित्यनाथ इस मुद्दे पर तुरंत प्रतिक्रिया देते थे. मवेशियों को गौशाला में लाकर पालने का पुण्य उठाने की बात करते रहे लेकिन उसके बाद भी पशुओं का सड़कों पर विचरना जारी रहा.

2019 का यह भाषण है. तब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सांड की समस्या को पाप और पुण्य के रूप में पेश कर रहे थे लेकिन अब यह समस्या पाप और पुण्य और धार्मिक प्रतीकों से आगे निकल गई है. 2022 के उत्तर प्रदेश में सांडों की समस्या को नंदी बताकर टाला नहीं जा सकता है. प्रधानमंत्री के भाषण से लग रहा है कि अखिलेश यादव के उठाए गए इस मुद्दे को अब समस्या के रुप में स्वीकार कर लिया गया है.

इसकी कई खबरें मिलती हैं कि यूपी सरकार ने अस्थायी गौ आश्रय स्थल बनाने के आदेश दिए हैं. बने भी हैं. लेकिन सरकार ने विधानसभा में जो जवाब दिया है, उसे कम से कम प्रधानमंत्री को तो देख ही लेना चाहिए. पूछना चाहिए कि योगी सरकार ने पशुधन मंत्री ने विधानसभा में क्यों कहा है कि आवारा पशुओं से फसलों को नुकसान नहीं हो रहा है. इसलिए इनसे फसलों की सुरक्षा के लिए किसी नीति का प्रश्न ही नहीं उठता है.

यह सवाल बीजेपी के ही विधायक जवाहर लाल राजपूत ने किया था कि क्‍या पशुधन मंत्री बताने की कृपा करेंगे कि प्रदेश में छुट्टा/अन्‍ना जानवरों से फसलों को हो रहे भारी नुकसान के कारण किसानों को आर्थिक हानि उठानी पड़ रही है और उनमें भारी असुरक्षा की भावना व्‍याप्‍त है ? यदि हां,तो क्‍या सरकार छुट्टा/अन्‍ना पशुओं से फसलों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस नीति बनाये जाने पर विचार करेगी ? यदि नहीं, तो क्‍यों ? इसके जवाब में पशुधन मंत्री लक्ष्मी नायारण चौधरी कहते हैं कि जी नहीं. प्रश्न ही नहीं उठता. प्रश्न ही नहीं उठता.

मार्च 2021 में पहले विधानसभा में योगी सरकार के पशुधन मंत्री कह रहे हैं कि छुट्टा जानवरों से कोई समस्या ही नहीं है. 2022 में प्रधानमंत्री को कहना पड़ रहा है कि यह समस्या है और दस मार्च के बाद दूर करेंगे. जिन किसानों ने अपनी जेब से कंटीली तारों को लगाने में बीस हज़ार से लेकर लाख दो लाख तक खर्च कर दिए हैं, क्या उनका पैसा वापस हो जाएगा ? किसानों और उनके बच्चों ने रात रात जागकर जो पहरेदारी की है, उसकी भरपाई कैसे होगी.

अच्छी बात है कि इसे समस्या के रूप में प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहे हैं लेकिन उस राजनीति का क्या जिसके कारण यह समस्या पैदा हुई है? सबसे पहले सरकार को ऑडिट कराना चाहिए कि किसानों ने अपने खेतों की तारबंदी पर कितना पैसा खर्च किया है. एक ज़िले में कितने हज़ार एकड़ ज़मीन की तारबंदी की गई है.

डाउन टू अर्थ हिन्दी ने इस पर कवर स्टोरी की है. जितेंद्र और आदित्यन पीसी की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे बेसहारा मवेशी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गए हैं. इस रिपोर्ट में मथुरा के गौ अनुसंधान संस्थान के एक आंकलन का ज़िक्र है. अनुपयोगी मवेशियों पर हर दिन साठ रुपये का खर्च होता है. देश को 53 लाख बेसहारा मवेशियों के रखरखाव पर करीब 11000 करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं.

इस रिपोर्ट के अनुसार यूपी सरकार ने हर निगम को 11 करोड़ रुपये दिए हैं ताकि आवारा पशुओं का प्रबंधन हो सके. इसके लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी भी बनी है. नेपाल की सीमा से लगे यूपी के सेमरी गांव के लोग इस समस्या से इतना तंग आ गए कि किराए पर 22 ट्रैक्टर का बंदोबस्त किया और 225 अनुपयोगी मवेशियों को नेपाल की सीमा में छोड़ आने का फैसला कर लिया.

खेती में ट्रैक्टर का इस्तेमाल बढ़ा है. अब बैल का इस्तेमाल नहीं होता है और घर पर इनका भरण पोषण आसान नहीं है. मवेशी दूध देने की क्षमता तक ही उपयोगी हैं. नतीजा लोग मवेशी को खुला छोड़ देते हैं जिससे फसलें बर्बाद हो रही हैं और दुर्घटना में लोग मर रहे हैं.

2014 के बाद देश के कई राज्यों में खेतों को कंटीली तारों से घेरने का चलन तेज़ी से बढ़ा है. बूचड़खाने बंद करने और गौ रक्षा की राजनीति के खतरों ने जानवरों को सड़कों पर बेसहारा छोड़ने के लिए मजूबर कर दिया. राजस्थान में ही 2018-19 से तारबंदी की योजना चल रही है.

इसके तहत तीन किसानों के समूह को न्यूनतम तीन हेक्टेयर ज़मीन की तारबंदी के लिए सरकार सब्सिडी देती है. एक किसान को 400 मीटर तार यानी 40,000 और तीन किसानों को 1 लाख 20000 की सब्सिडी सरकार देती है. यह भी लागत का पचास परसेंट ही है यानी किसान और सरकार मिल कर तीन हेक्टेयर खेत की तारबंदी करने में अस्सी हज़ार तक खर्च कर रहे हैं. क्या यह कोई छोटी राशि है ?

राज्य सरकार ने कोई आठ दस हज़ार किसानों को ही यह सब्सिडी दी है लेकिन बाकी किसान तो अपनी जेब से ही तारें लगवा रहे हैं. इस बजट ने किसानों को बर्बाद किया है इसलिए इनका हिसाब करना बहुत ज़रूरी है. इस बेशुमार पैसे से ढंग की गौशालाएं बन गई होतीं लेकिन गौशालाओं के नाम पर ख़ानापूर्ति होने से किसानों को मजबूर होना पड़ा कि वे फसलों को बचाने के लिए खेतों को कंटीली तारों से घेर दें.

2016-17 में हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री खेत संरक्षण योजना लांच की गई है ताकि खेतों की बाड़बंदी हो सके. वहां भी सरकार काफी पैसा सब्सिडी के तौर पर देती है. देश भर के स्तर पर इस खर्चे को जोड़ा जाना चाहिए तब पता चलेगा कि किसान बेसहारा पशुओं के कारण कितनी कीमत चुका रहा है.

यह समस्या अब राजनीति के काबू में नहीं आने वाली है क्योंकि उसी की वजह से यह विकराल हुई है. इस राजनीति में किसान भी शामिल रहे हैं इसलिए कीमत उन्हें भी चुकानी पड़ रही है. बस यही कि उन्हें ही सारी कीमत चुकानी पड़ रही है. इस राजनीति से राज कोई और कर रहा है.

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ROHIT SHARMA

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