1920 में कॉमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस ने इंगित किया था, संसद ने विकसित होते पूंजीवाद के दौर में एक प्रगतिशील संस्था के रूप में कार्य किया, यानी पूर्व-एकाधिकार पूंजीवाद के युग में जब उभरते पूंजीपति वर्ग ने सामंती बेड़ियों को तोड़ने में क्रांतिकारी भूमिका निभाई. इस प्रकार संसद को सुधारों को लागू करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सका. तथापि, ‘बेलगाम साम्राज्यवाद की आधुनिक परिस्थितियों में, संसद झूठ, धोखे और हिंसा का औजार बन गई है. … साम्राज्यवाद द्वारा की गई तबाही, गबन, लूट और विनाश को देखते हुए, संसदीय सुधार ने कामकाजी जनता के लिए समस्त व्यवहारिक महत्व खो दिया है. कॉमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस ने आगाह किया है – ‘वर्तमान समय में कम्युनिस्टों द्वारा संसद का उपयोग उस अखाड़े के रूप में नहीं किया जा सकता है, जिसमें मजदूर वर्ग के जीवन स्तर में सुधार और बेहतरी के लिए संघर्ष किया जाता है.’
भारत में, संसद चरित्र में बुर्जुआ-लोकतांत्रिक भी नहीं है. यहां ‘संसद दलाल नौकरशाही पूंजीपतियों और बड़े जमींदार वर्गों के हाथ में एक उपकरण है और अंतरराष्ट्रीय पूंजी की सेवा करती है. यहां तक कि संसद में पारित होने वाले प्रगतिशील कानूनों की ग्रामीण भारत के विशाल इलाकों में कोई वैधता नहीं है, जहां जमींदार वर्गों का परमादेश लोगों की नियति को आकार देता है. इस सवाल पर कि क्या संसद को रण-कौशल के हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, कॉमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस ने ये पुष्टि की कि ‘संसदीय संस्था वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने में किसी भी तरह से योगदान नहीं देगी.’
खास तौर से ख्रुश्चेव संशोधनवाद के उद्भव के बाद से संसदीय रास्ता और चुनावों में भागीदारी आधुनिक संशोधनवाद की रणनीति बन गयी है. अब हम इस पहलू को महज एक रण कौशलात्मक मामला कहकर नजरअंदाज नहीं कर सकते. अर्द्ध औपनिवेशिक व अर्द्ध सामंती भारत की ठोस परिस्थितियों में, जहां पूंजीवादी जनवादी क्रांति भी सम्पन्न नहीं हुई है और असमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक हालात मौजूद हैं, वस्तुगत परिस्थितियां विशाल देहाती इलाकों में कम्युनिस्ट पार्टी को क्रांतिकारी संघर्ष शुरू करने और उसे टिकाए रखने की इजाजत देती हैं. क्रांति की तैयारी के नाम पर चुनाव में भागीदारी करने से और कुछ नहीं केवल क्रांतिकारी संघर्ष का विध्वंस होगा. पूंजीवादी देशों के विपरीत भारत में क्रांति की तैयारी के लिए किसी शांति काल की आवश्यकता नहीं है.
आम रूप से कहें तो हमारे देश में मौजूद परिस्थितियों में चुनाव में भागीदारी न तो क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के विकास में मदद पहुंचाएगी और न ही जनता के अंदर जनवादी चेतना को ऊपर उठाने में. इसके विपरीत, यह क्रांतिकारी कतारों और जनता के बीच बड़े पैमाने पर संवैधानिक भ्रमों व क़ानूनवादी रुझानों को ही सिर्फ बढ़ावा देगी और क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष को तेज करने व राजसत्ता के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष को आगे बढ़ाने के कष्ट साध्य कार्यभारों से उन्हें भटका देगी.
पिछले पचास वर्षों से चुनाव में भागीदारी के अनुभव हर तरह से इस तथ्य को साबित करते हैं कि चाहे किसी भी तर्क के आधार पर जिन लोगों ने संसदीय चुनावों में भाग लिया, वो या तो संसदवाद के पैरोकार बन गए या उन्होंने सिर्फ संसदीय व्यवस्था के प्रति भ्रमों को बढ़ावा दिया. यह तर्क कि भारतीय जनता में संसदीय संस्थानों के प्रति मोह है और इसीलिए इन भ्रमों को दूर करने के लिए इनमें अवश्य ही भाग लेना चाहिए, और भी ज्यादा खतरनाक है.
भारत में संसदीय संस्थाओं व व्यवस्था की साख जनता की निगाह में काफी हद तक खत्म हो गयी है. संसदीय चुनावों में जनता की भागीदारी का मुख्य कारण क्रांतिकारी विकल्पों का अभाव है. जनता के समक्ष क्रांतिकारी विकल्प पेश करने की जगह इन चुनावों में भागीदारी जनता में सिर्फ भ्रमों को ही पैदा करेगी या उन्हें बढ़ावा देगी. यहां संसदीय व्यवस्था को उसके अंदर से बेनकाब करने का कोई वास्तविक आधार मौजूद नहीं है. भारतवर्ष में अब तक के ऐतिहासिक अनुभव ने सिर्फ यही साबित किया है कि कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी ग्रुप जो संसदीय चुनाव में भाग लेने की कार्यनीति को अपनाए हुए हैं और भी ज्यादा दक्षिणपंथी अवसरवादी दलदल में धंसते जा रहे हैं और संशोधनवादी हो गए हैं.
- रितेश विद्यार्थी
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