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दांतेवाड़ा का ‘मितानिन’ कार्यक्रम, जो भारत की ‘आशा’ बनी

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दांतेवाड़ा का 'मितानिन' कार्यक्रम, जो भारत की 'आशा' बनी

हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ताहिमांशु कुमार, गांधीवादी चिंतक

गांव में स्वास्थ्य सुविधाएं सुधारने के लिए गांव के ही लोगों को तैयार किया जाए, इस विचार के साथ सबसे पहले छत्तीसगढ़ में मितानिन कार्यक्रम शुरू हुआ था. डॉक्टर सुंदर रमन और उनकी टीम ने काम की शुरुआत की. डॉक्टर बिनायक सेन, इलीना सेन और बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ता भी इसमें जुड़े. बाद में तो भाजपा सरकार ने इन्हीं डॉ. बिनायक सेन को जेल में डाल दिया और उम्रकैद की सजा सुना दी थी.

हमारी संस्था ने दंतेवाड़ा जिले के दो ब्लॉक में इस कार्यक्रम को चलाने की जिम्मेदारी ली थी. बाद में भारत सरकार ने इस कार्यक्रम को ‘आशा’ के नाम से सारे भारत में लागू किया. लेकिन ‘मितानिन’ और ‘आशा’ में यह फर्क है कि आशा को सरकारी प्रक्रिया के द्वारा एक गांव के लिए एक आशा कार्यकर्ता नियुक्त की जाती है, जबकि ‘मितानिन’ का चयन गांव के लोग एक पारा के लिए जिसे मजरा टोला मोहल्ला या ढाणी कहा जाता है, खुद करते थे.

हम लोगों ने इन मितानिनों के साथ उनकी जागरूकता सूचना और उनके साथ कार्य करके एक ऐसी स्थिति पैदा की थी कि हमारे दोनों ब्लॉक में एक भी बाल मृत्यु की घटना होनी बंद हो गई. जन्म देते समय माताओं की मृत्यु शून्य पर पहुंच गई थी.

हमने मितानिनों को अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया था. कई संस्थाओं में संस्थाएं समुदाय का नेतृत्व करती हैं लेकिन हमारे यहां गांव की महिलाएं आगे आगे चलती थी और हमें पीछे पीछे चलना होता था.

गांव की महिलाएं अस्पताल में दवाई ना मिलने पर या जच्चा के लिए समय पर गाड़ी एंबुलेंस ना पहुंचने पर या किसी स्वास्थ्य कार्यकर्ता या डॉक्टर के द्वारा पैसा मांगने पर रैली करना धरना प्रदर्शन करना, अधिकारियों से मिलकर जोरदार तरीके से अपनी बात रखती थी. इस सब से परेशान होकर कई बार सरकारी अधिकारी कहते थे दंतेवाड़ा में मितानिन कार्यक्रम नक्सलाइट लोग चला रहे हैं.

हम लोगों के साथ उस समय जो महिलाएं जुड़ी थी, आज भी वे अपना काम बखूबी कर रही हैं. गांव में आपको डॉक्टर की जरूरत नहीं होती और डॉक्टर जो काम कर सकता है, वहीं स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी कर सकती है. गांव में बुखार, दस्त, चर्म रोग से ज्यादा बड़े रोगों का इलाज डॉक्टर भी नहीं कर सकते. इसके अलावा किसी भी बीमारी के लिए उन्हें भी बड़े अस्पताल की जरूरत पड़ती है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों की भयानक अनदेखी की जा रही है.

एक तरफ बढ़ती बेरोजगारी के कारण लोगों के आय में कमी आई है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लगातार कमजोर किया जा रहा है, उससे लोगों का पोषण स्तर गिर रहा है. दूसरी तरफ स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राइवेटाइजेशन को बढ़ाया जा रहा है. देश की जनता को अगर आप मुनाफा कमाने की चीज समझ लेंगे तो आपके हाथों उसकी दुर्गति होना तय है.

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ROHIT SHARMA

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