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ईश्वर और किसान

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ईश्वर और किसान

ईश्वर एक बार एक किसान से मिले. उससे उसके दुख-दर्द पूछने लगे. उसने कुछ बताए कुछ नहीं बताए.

शाम, रात में बदल रही थी. उसके यहां भोजन बन चुका था. किसान ने कहा – ‘आइए भोजन कीजिए. पत्नी ने आपकी थाली भी तैयार कर दी है.’

मेथी की भाजी और मक्के की रोटी की सुगंध भूख बढ़ाने वाली थी. ईश्वर ने संकोच में भूख न होने का बहाना किया लेकिन किसान का आग्रह ऐसा था कि ईश्वर पिघल गए, मगर पिघलते-पिघलते उन्हें ख्याल आया कि धरती पर भेजते समय उन्हें किसानों-मजदूरों के घर खाना न खाने की खास हिदायत दी गई थी.

उनसे कहा गया था कि अगर उन्होंने किसानों-मजदूरों के घर खाना खाया तो उनमें दुनिया को बदलने की भावना पैदा हो जाएगी. यह काम लंबा है और यह काम ईश्वर का है भी नहीं, इसलिए वह इस चक्कर में न पड़ें.

ईश्वर ने फिर से खाने से इंकार किया तो किसान ने कहा – ‘अन्न का कभी अपमान नहीं किया करते. अन्न का अपमान ईश्वर का अपमान होता है.’

ईश्वर ने अपना अपमान होने दिया मगर खाना जमींदार के यहां ही खाया.

  • विष्णु नागर
    (1997 में प्रकाशित ‘ईश्वर की कहानियां’ से)

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