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हिजाब पर खिंचाव अर्थात, नया संसद, नया संविधान, नया देश बनाने की कवायद

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हिजाब पर खिंचाव अर्थात, नया संसद, नया संविधान, नया देश बनाने की कवायद
यह है शेरनी. अफगानिस्तान की महिला जो तालिबानियों का विरोध करते हुए उन्हें अफगानिस्तान छोड़ कर जाने को बोल रही है. कत्ल कर दिए जाने के पूरे खतरे के बावजूद यह महिला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक अच्छे जीवन के लिए खूंखार तालिबानियों के सामने डटकर खड़ी है. भारतवर्ष के मुस्कान समर्थकों को काबुल का यह फोटो भी पसंद आएगा.

इसे मानव स्वभाव की बिडंबना कहा जाये या कुछ और, जिस काम के लिए रोका जाता है मनुष्य उसी कार्य के लिए प्रवृत्त होता है, और जिस कार्य के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, उसके विरुद्ध खड़ा हो जाता है. मानव स्वभाव के इस प्रवृत्ति को महान शिक्षक कार्ल मार्क्स और फिर लेनिन अच्छी तरह समझते थे, इसीलिए जब वे सर्वहारा अधिनायकत्व की पुरजोर सिफारिश किये थे तब वे इस स्वभाव के बारे में भी आगाह कर रहे थे.

इसे एक बिडम्बना ही कहा जाये कि जिस सर्वहारा अधिनायकत्व की बात मार्क्स और लेनिन कर रहे थे, उसे वास्तविक धरातल पर लागू करने का उन्हें मौका नहीं मिला. परन्तु, जिन दो महान शिक्षकों को इसे लागू करने का महान अवसर मिला, उन्होंने इसके लिए जो रास्ते अपनाये उसने पूरी समाजवादी व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया.

एक शिक्षक स्टालिन ने बुरे विचारों और मानव स्वभाव को बदलने के लिए दमन और प्रोत्साहन का तरीका अपनाये, जिसने उनकी मृत्यु के साथ ही महान.सोवियत समाजवादी व्यवस्था को ही खूंखार लुटेरों के चंगुल में फंसा दिया तो वहीं दूसरे महान शिक्षक माओ त्से-तुंग ने जब तक इन कमियों को समझा और इसके खिलाफ महान सांस्कृतिक क्रांति का सफल सूत्रपात किया तब तक बहुत देर हो चुकी थी. फलतः करोड़ों वीर योद्धाओं के खून से सिंचित समाजवादी चीन सामाजिक साम्राज्यवाद में बदल गया.

सोवियत संघ और चीनी समाजवादी क्रांति ने महान समाजवादी व्यवस्था के तहत मानवों के लगभग तमाम समस्याओं को पूर्णतया हल कर दिया था. मानवों की बुनियादी समस्या – रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य – को पूर्णतया हल कर सर्वश्रेष्ठ गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था कर मानवों को मानव इतिहास में पहली बार अंतरिक्ष जीतने की ओर प्रवृत किया. स्त्री-पुरुष स्वतंत्रता और समानता को सही मायने में हल किया. परन्तु, मानव स्वभाव की इस विशेषता ने इतनी उन्नत व्यवस्था को ही जमींदोज कर फिर से गुलामी की चादर ओढ़ लिया.

यहां हम समाजवादी व्यवस्था की उन्नतिशील समानता, स्वतंत्रता की बात नहीं कर सड़ांध पूंजीवादी व्यवस्था के ही तहत मिली न्यूनतम समानता पर बात करना चाहेंगे – हिजाब (जो बुर्का का ही आधुनिक संस्करण है) को लेकर. हिजाब (बुर्का) और पर्दा व्यवस्था महिलाओं के खिलाफ पुरुषसत्तात्मक सामंती व्यवस्था का सबसे बड़ा प्रतीक है, जिसके खिलाफ पूंजीवादी व्यवस्था ने ही जबरदस्त आंदोलन चलाया. जिसका प्रभाव दुनिया भर में पड़ा और इस पर्दा प्रथा को उखाड़ फेंका गया. परन्तु, आज जब हम अपने ही देश में हिजाब (बुर्का) को लेकर बबाल काटा जा रहा है, तब किंकर्तव्यविमूढ़ शासक एक अलग ही रंग में रंगा दीख रहा है.

इसकी शुरुआत सामंती मिजाज आरएसएस के अपराधी नरेंद्र मोदी के भारत की सत्ता को हथियाने से ही शुरू होती है, जब वह एक हिन्दुत्ववादी धार्मिक आडम्बरों की आड़ में मुस्लिम आडम्बरों को पोषित करना शुरु किया. और इसी हिन्दुत्ववादी आडम्बरों की आड़ में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने एक बार फिर हिजाब के नाम पर बुर्का को महिलाओं पर जबरन थोपने के लिए आन्दोलन चलाया जा रहा है. कर्नाटक के एक कॉलेज से निकली बुर्कापोशी का यस आन्दोलन मुस्लिम कट्टरपंथियों के नेतृत्व में अब पूरे देश में चलाया जाने लगा है.

हिजाब पर खिंचाव अर्थात, नया संसद, नया संविधान, नया देश बनाने की कवायद
यह है भारत में बुर्का को अपना ताज बतलाने वाली कट्टरपंथियों का समूह

जिस बुर्कापोशी का आन्दोलन आज भारत भर में स्कूली छात्राओं के माध्यम से चलाया जा रहा है, इसके विपरीत दुनियाभर में इस बुर्कापोशी के खिलाफ महिलाएं आन्दोलन कर रही है. बुर्का को उतार कर फेंक रही है, जिसकी कीमत कई जगह महिलाएं अपनी जिन्दगी देकर चुका रही है, कोड़े की मार खा रही है. इसे इस तरह समझा जा सखता है कि समाजवादी व्यवस्था की उच्चतम जीवनशैली से लुढ़कती हुई महिला स्वतंत्रता और समानता कदम दर कदम पूंजीवादी व्यवस्था और फिर सामंती गुलामी के दौर में पहुंच रही है.

आईये, एक बार हम भारत में चलाये जा रहे बुर्कापोशी आन्दोलन से इतर बुर्कापोशी के खिलाफ दुनिया भर में चल रहे महिलाओं के शानदार आन्दोलन की एक झलक देखते हैं, जिसे बीबीसी वेबसाइट से हम यहां दे रहे हैं.

फ़्रांस

11 अप्रैल 2011 को फ़्रांस सार्वजनिक स्थानों पर पूरे चेहरे को ढकने वाले इस्लामी नक़ाबों पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला यूरोपीय देश बना था. इस प्रतिबंध के तहत कोई भी महिला फिर वो फ्रांसीसी हो या विदेशी, घर के बाहर पूरा चेहरा ढककर नहीं जा सकती थी. नियम के उल्लंघन पर जुर्माने का प्रावधान किया गया. उस समय निकोला सारकोज़ी फ़्रांस के राष्ट्रपति हुआ करते थे. प्रतिबंध लगाने वाले सारकोज़ी प्रशासन का मानना था कि पर्दा महिलाओं के साथ अत्याचार के समान है और फ़्रांस में इसका स्वागत नहीं किया जाएगा.

इसके पांच साल बाद यानी साल 2016 में फ़्रांस में एक और विवादित क़ानून लाया गया. इस बार बुर्किनी के नाम से मशहूर महिलाओं के पूरे शरीर ढंकने वाले स्विम सूट पर बैन लगाया गया. हालांकि, बाद में फ़्रांस की शीर्ष अदालत ने इस क़ानून को रद्द कर दिया. फ़्रांस में क़रीब 50 लाख मुस्लिम महिलाएं रहती हैं. पश्चिमी यूरोप में ये संख्या सबसे ज़्यादा है, लेकिन महज़ 2 हज़ार महिलाएं ही बुर्क़ा पहनती हैं.

ऐसा करने के लिए 150 यूरो का जुर्माना तय किया गया. अगर कोई किसी महिला को चेहरा ढकने पर मजबूर करता है तो उस पर 30 हज़ार यूरो के जुर्माने का प्रावधान है.

बेल्जियम

बेल्जियम में भी पूरा चेहरा ढकने पर जुलाई 2011 में ही प्रतिबंध लगा दिया गया था. नए क़ानून में सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे किसी भी पहनावे पर रोक थी जो पहनने वाले की पहचान ज़ाहिर न होने दे.

दिसंबर 2012 में बेल्जियम की संवैधानिक अदालत ने इस प्रतिबंध को रद्द करने की मांग वाली याचिका को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि इससे मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं हो रहा है. बेल्जियम के कानून को यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय ने साल 2017 में भी बरकरार रखा.

नीदरलैंड्स

नवंबर 2016 में नीदरलैंड्स के सांसदों ने स्कूल-अस्पतालों जैसे सार्वजनिक स्थलों और सार्वजनिक परिवहन में सफ़र के दौरान पूरा चेहरा ढकने वाले इस्लामिक नक़ाबों पर रोक का समर्थन किया. हालांकि, इस प्रतिबंध को क़ानून बनने के लिए बिल का संसद में पास होना ज़रूरी था. आख़िरकार जून 2018 में नीदरलैंड्स ने चेहरा ढकने पर प्रतिबंध लगाया.

इटली

इटली के कुछ शहरों में चेहरा ढकने वाले नक़ाबों पर प्रतिबंध है. इसमें नोवारा शहर भी शामिल है. इटली के लोंबार्डी क्षेत्र में दिसंबर 2015 में बुर्क़ा पर प्रतिबंध को लेकर सहमति बनी और ये जनवरी 2016 से लागू हुआ था. हालांकि, ये नियम पूरे देश में लागू नहीं है.

जर्मनी

6 दिसंबर 2016 को जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने कहा कि ‘देश में जहां कहीं भी क़ानूनी रूप से संभव हो, पूरा चेहरा ढकने वाले नक़ाबों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए.’ हालांकि, जर्मनी में अभी तक ऐसा कोई क़ानून नहीं है, लेकिन ड्राइविंग के दौरान यहां पूरा चेहरा ढकना ग़ैर-क़ानूनी है.

जर्मनी की संसद के निचले सदन ने जजों, सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों के लिए आंशिक प्रतिबंध की मंज़ूरी दी थी. यहां पूरा चेहरा ढकने वाली महिलाओं के लिए ज़रूरत पड़ने पर चेहरा दिखाए जाने को भी अनिवार्य किया गया है.

ऑस्ट्रिया

अक्टूबर 2017 में ऑस्ट्रिया में स्कूलों और अदालतों जैसे सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढकने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.

नॉर्वे

नॉर्वे में जून 2018 में पारित एक क़ानून के तहत शिक्षण संस्थानों में चेहरा ढकने वाले कपड़े पहनने पर रोक है.

स्पेन

यूं तो स्पेन में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध की कोई योजना नहीं है, लेकिन साल 2010 में इसके बार्सिलोना शहर में नगर निगम कार्यालय, बाज़ार और पुस्तकालय जैसे कुछ सार्वजनिक जगहों पर पूरा चेहरा ढकने वाले इस्लामिक नक़ाबों पर प्रतिबंध की घोषणा की गई थी. हालांकि, लीडा शहर में लगे प्रतिबंध को स्पेन की सुप्रीम कोर्ट ने फ़रवरी 2013 में पलट दिया था. कोर्ट ने कहा था कि यह धार्मिक आज़ादी का उल्लंघन है.

ब्रिटेन

ब्रिटेन में इस्लामिक पोशाक़ पर कोई रोक नहीं है लेकिन वहां स्कूलों को अपना ड्रेस कोड ख़ुद तय करने की इजाज़त है. अगस्त 2016 में हुए एक पोल में 57 प्रतिशत ब्रिटेन की जनता ने यूके में बुर्क़ा प्रतिबंध कके पक्ष में मत ज़ाहिर किया था.

अफ़्रीका

साल 2015 में बुर्काधारी महिलाओं ने कई बड़े आत्मघाती धमाकों को अंजाम दिया. इसके बाद चाड, कैमरून के उत्तरी क्षेत्र, नीजेर के कुछ क्षेत्रों और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो में पूरा चेहरा ढकने पर रोक लगा दी गई थी.

तुर्की

85 साल से भी ज़्यादा लंबे वक्त तक तुर्की आधिकारिक तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष देश हुआ करता था. तुर्की के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने हिजाब को पिछड़ी सोच वाला बताते हुए इसे ख़ारिज कर दिया था. आधिकारिक भवनों और कुछ सार्वजनिक जगहों पर हिजाब पर रोक लगाई गई, लेकिन इस मुद्दे पर देश की मुस्लिम बहुल आबादी की अलग-अलग राय देखने को मिलती है. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की पत्नियों और बेटियों सहित सभी तुर्क महिलाओं में से दो-तिहाई अपने सिर को ढकती हैं.

साल 2008 में तुर्की के संविधान में संशोधन कर के विश्वविद्यालयों में सख़्त प्रतिबंधों में थोड़ी छूट दी गई. फिर ढीले बंधे हिजाब को मंज़ूरी मिल गई. हालांकि, गर्दन और पूरा चेहरा छिपाने वाले नक़ाबों पर रोक जारी रही. साल 2013 में तुर्की ने राष्ट्रीय संस्थानों में महिलाओं को हिजाब पहने पर प्रतिबंध को वापस ले लिया. हालांकि, न्यायिक, सैन्य और पुलिस जैसी सेवाओं के लिए ये रोक जारी रही. साल 2016 में तुर्की ने महिला पुलिसकर्मियों को भी हिजाब पहनने की इजाज़त दे दी.

डेनमार्क

डेनमार्क की संसद ने 2018 में नकाब और बुर्क़े पर रोक को मंज़ूरी दी थी. डेनमार्क की संसद ने 2018 में पूरा चेहरा ढकने वालों के लिए जुर्माने का प्रावधान करने के बिल को मंज़ूरी दी थी. इस क़ानून के मुताबिक़, अगर कोई व्यक्ति दूसरी बार इस पाबंदी का उल्लंघन करता पाया जाएगा तो उस पर पहली बार के मुक़ाबले 10 गुना अधिक जुर्माना लगाया जाएगा या छह महीने तक जेल की सज़ा होगी. जबकि किसी को बुर्क़ा पहनने के लिए मजबूर करने वाले को जुर्माना या दो साल तक जेल हो सकती है.

इससे दस साल पहले सरकार ने घोषणा की थी कि जजों को कोर्ट रूम में हेडस्कार्फ़ और इसी तरह के अन्य धार्मिक या राजनीतिक प्रतीकों जैसे क्रूस, टोपी या पगड़ी, को पहनने से रोकेगी.

रूस

रूस के स्वातरोपोल क्षेत्र में हिजाब पहनने पर रोक है. रूस में ये इस तरह का पहला प्रतिबंध है. जुलाई 2013 में रूस की सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को बरक़रार रखा था.

स्विट्ज़रलैंड

साल 2009 में, स्विस न्याय मंत्री रहीं एवलीन विडमर ने कहा था कि अगर ज़्यादा महिलाएं नक़ाब पहने दिखीं तो इसपर प्रतिबंध को लेकर विचार किया जाना चाहिए. सितंबर 2013 में स्विट्ज़रलैंड के तिसिनो में 65 प्रतिशत लोगों ने किसी भी समुदाय द्वारा सार्वजनिक स्थलों में चेहरा ढकने पर प्रतिबंध के समर्थन में वोट किया. यह इलाका इतालवी भाषी बहुल है.

यह पहली बार था जब स्विट्ज़रलैंड के 26 प्रांतों में से कहीं इस तरह का प्रतिबंध लागू किया गया हो. स्विट्ज़रलैंड की 80 लाख की आबादी में से क़रीब 3 लाख 50 हज़ार मुसलमान हैं.

बुल्ग़ारिया

अक्टूबर 2016 में बुल्ग़ारिया की संसद ने एक विधेयक को पारित किया जिसके मुताबिक़, जो महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर चेहरा ढकती हैं उनपर जुर्माना लगाया जाए या फिर उन्हें मिलने वाली सुविधाओं में कटौती की जाए.

भारत में हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी भारत सरकार

भारत में मूर्ख धार्मिक हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी का सरगना नरेन्द्र मोदी आये दिन धार्मिक पोंगापंथी को निर्लज्जता की हद तक बढ़ावा देता आ रहा है, जिसका परिणाम मुस्लिम कट्टरपंथी भी अपने बिल से निकलकर महिला अधिकारों के खिलाफ महिलाओं को ही खड़ा कर दे रहा है. ऐसे में भारत इन कट्टरपंथियों का सबसे सुलभ मैदान बन गया है. उधर सिख कट्टरपंथी भी म्यान से तलबार निकालकर धर्मग्रंथों के अपमान का बहाना बनाकर बर्बर हत्याओं को अंजाम देना शुरू कर दिया है.

ऐसे में जब कर्नाटक सरकार ने भगवा गमछा पहने छात्रों द्वारा हिजाब पहने लड़कियों का विरोध करने और उड्डपी ज़िले से शुरू होकर उत्तरी, मध्य और दक्षिण कर्नाटक में हिंसा फैलने के बाद स्कूल और कॉलेज बंद करने के आदेश दिए थे, संघियों के आंगन में मुजरा करता सुप्रीम कोर्ट जब हिजाब के सवाल पर किसी निर्णय देने का मना कर दिया है, तब कर्नाटक उच्च न्यायालय का तत्कालिक फैसला काबिलेतारीफ है. कोर्ट ने साफ कहा है कि अगले आदेश तक क्लास में स्कार्फ, हिजाब या धार्मिक झंडे जैसी अन्य चीजों पर रोक रहेगी. वहीं राज्य सरकार ने 5 फरवरी को आदेश दिया कि किसी भी शैक्षणिक संस्थान में स्टूडेंट हिजाब या भगवा गमछा, स्कार्फ पहनकर नहीं आ सकते.

भारत का संविधान क्या कहता है ?

हिजाब से जुड़े ताजा विवाद में मूल अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (a) कहता है कि सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन संविधान में ये भी कहा गया है कि ये अधिकार असीमित नहीं है. आर्टिकल 19(2) कहता है कि सरकार आर्टिकल 19 के तहत मिले अधिकारों पर कानून बनाकर तार्किक पाबंदियां लगा सकती है. इसी अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत की संप्रभुता, अखंडता के हितों, राष्ट्रीय सुरक्षा, दोस्ताना संबंधों वाले देशों से रिश्तों, पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता, कोर्ट की अवमानना, किसी अपराध के लिए उकसावा के मामलों में आर्टिकल 19 के तहत मिले अधिकारों पर सरकार प्रतिबंध लगा सकती है.

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की व्यवस्था है. सबसे पहले बात अनुच्छेद 25 की जो सभी नागरिकों को अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है. लेकिन ये पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है, इस पर शर्तें लागू हैं. आर्टिकल 25 (A) कहता है- राज्य पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता, स्वास्थ्य और राज्य के अन्य हितों के मद्देनजर इस अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकता है. संविधान ने कृपाण धारण करने और उसे लेकर चलने को सिख धर्म का अभिन्न हिस्सा माना है.

अनुच्छेद 26 में धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता का जिक्र है. इसके तहत पब्लिक ऑर्डर, नैतियकता और स्वास्थ्य के दायरे में रहते हुए हर धर्म के लोगों को धार्मिक क्रिया-कलापों को करने, धार्मिक संस्थाओं की स्थापना करने, चलाने आदि का इधिकार है. अनुच्छेद 27 में इस बात की व्यवस्था है कि किसी व्यक्ति को कोई ऐसा टैक्स देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता तो किसी खास धर्म का पोषण हो रहा हो.

अनुच्छेद 28 के तहत कहा गया है कि पूरी तरह सरकार के पैसों से चलने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती. राज्यों द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाओं में लोगों की सहमति से धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है (जैसा मदरसा, संस्कृत विद्यालय आदि) लेकिन ये शिक्षा सरकार की तरफ से निर्देशित पाठ्यक्रम के अनुरूप होने चाहिए.

केन्द्र की मोदी सरकार क्या कर रही है ?

केन्द्र की निकम्मी मोदी सरकार हर विवाद पर खामोश रहती है. वह बोलती तभी है जब कहीं कोई विवाद न चल रहा हो. अर्थात, हिजाब प्रकरण में उपजी विवाद को मोदी सरकार का पूर्णतया समर्थन है और आगे भी वह इस विवाद को और तेथ भड़काकर हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी ताकतों को मजबूत करना चाह रही है.

एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय अखबार के वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि मोदी सरकार की यह सब विवादित कवायद इसलिए की जा रही है ताकि जब संसद भवन सेन्ट्रल विस्टा में शिफ्ट होगी तब देश में एक नवीन संविधान की भी स्थापना की जायेगी, जो मनुस्मृति आधारित होगी. दूसरी सांसदों की संख्या बढ़ाकर दोगुनी की जायेगी. अर्थात, नया संसद, नया संविधान, नया देश बनाया जायेगा, जो विशुद्ध मनुस्मृति आधारित होगा.

प्रगतिशील ताकतों को क्या करना चाहिए ?

तमाम प्रगतिशील ताकतों को हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी के विरोध में मुस्लिम प्रतिक्रियावादी कट्टरपंथियों के शरण में जाने से बचना चाहिए और न केवल हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी बल्कि तमाम तरह के कट्टरपंथी प्रतिक्रियावादी ताकतों का प्रतिरोध करना चाहिए. वरना धर्म की आड़ में चलाई जाने वाली यह आन्दोलन अंततः मनुस्मृति को ही लागू करने का आधार बनेगी.

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