विष्णु नागर
एक बेहद आज्ञाकारी गधा था. जतना उस पर लादो, आराम से लदवा लेता था. धीरज किसी भी स्थिति में नहीं खोता था. बस उसे जब चाहे, टिंभो-टिंभो करने दो, इसी से वह खुश रहता था. हालांकि यह अधिकार उसे सदियों से प्राप्त था मगर उसे बताया गया था कि पहली बार यह हक हमने तुम्हें दिया है.
इस अहसान से वह हमेशा दबा रहता था. बाकी उसकी कुछ नैसर्गिक जरूरतें थीं. इसमें पहले भी कभी कोई कठिनाई पैदा नहीं हुई थी और गधा जब आज्ञाकारी हो तो फिर यह सवाल ही नहीं उठता ! फिर भी उसे बताया गया था कि यह भी तुम पर हमारी कृपा है.
उसकी एक ही समस्या थी कि कोई उसे गधा न कहे. कोई कह देता था तो वह फिर सब भूल जाता था. कहनेवाले को उसी समय एक-दो लातें कस कर जमा देता था. सामनेवाले को चित करके दम लेता था. गिरनेवाला सहानुभूति की बजाय सबके सामने हंसी का पात्र बन जाता था.
उसे घोड़ा कहो तो वह खुश हो जाता था. हाथी कहो तो झूमने लगता था. शेर कहो तो नाचने लगता था. लोग भी होशियार थे. उसकी इस कमजोरी का खूब फायदा उठाते. खूब उस पर लादते रहते थे. जब तक वह जिंदा रहा, पूरे मोहल्ले की अहर्निश सेवा करता रहा. लोगों को खुश रखता रहा. वह मर गया तो लोगों ने उस पर शोक मनाने में समय नहीं बर्बाद किया. ऐसा एक दूसरा गधा ढूंढने में समय लगाया और शीघ्र ही सफलता भी प्राप्त की.
यह पहलेवाले से भी बेहतर गधा था. इसे खच्चर कहो तो भी खुश और घोड़ा कहो तो भी खुश. यहां तक कि गधा कहो तो भी वह लात नहीं जमाता था केवल थोड़ा-सा हताश हो जाता था. फिर भी इतना नहीं कि लद्दू गधा होने से पलभर के लिए भी इनकार कर दे, तुरंत चल देता था. शुरू में चाल सुस्त रहती, फिर वह अपने आप गति पकड़ लेता था.
वह मर गया तो लोग फौरन तीसरा गधा ढूंढ लाए क्योंकि संसार में न गधों की कमी थी, न उनका उपयोग अपने लिए करनेवालों की.
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