Home लघुकथा अक्‍लमंद, मूर्ख और गुलाम

अक्‍लमंद, मूर्ख और गुलाम

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लू-शुन

एक गुलाम हरदम लोगों की बाट जोहता रहता था, ताकि उन्‍हें अपना दुखड़ा सुना सके. वह बस ऐसा ही था और बस इतना ही कर सकता था. एक दिन उसे एक अक्‍लमंद आदमी मिल गया.

‘मान्‍यवर !’ वह उदास स्‍वर में रोते हुए बोला, उसके गालों पर आंसुओं की धार बह चली, ‘आप जानते हैं, मैं कुत्‍ते की जिन्‍दगी जी रहा हूँ. मुझे दिन भर में एक बार भी खाना नसीब नहीं, और अगर मिलता भी है तो बस वही बाजरे की भूसी, जिसे सुअर भी नहीं खाता. और उसकी भी क्‍या कहूं जो एक छोटी कटोरी भर से ज्‍यादा नहीं मिलती…’.

‘यह तो वाकई बहुत बुरा है,’ अक्‍लमंद आदमी ने सहानुभूति जतायी.

‘और क्‍या ?’, वह कुछ उत्‍तेजित हो उठा, ‘जबकि मैं सारा दिन और सारी रात खटता रहता हूं. पौ फटते ही मुझे पानी भरना पड़ता है, सांझ को मैं खाना पकाता हूं, सुबह मैं सौंपेे गये काम निपटाता हूं, शाम को मैं गेहूं पीसता हूं, जब मौसम अच्‍छा होता है तो मैं कपड़े धोता हूं, और जब बारिश होती है तो मुझे छाता थामना पड़ता है, जाड़े में मैं अंगीठी सुलगाता हूं, और गर्मी में पंखा झलता हूं. आधी रात को मैं खुम्मियां उबालता हूं और जुआरियों की पार्टियों में व्‍यस्‍त अपने मालिक का इन्‍तजार करता हूं. लेकिन कभी मुझे कोई बख्‍़शीश नहींं मिलती, बस जब-तब चाबुक ही खानी पड़ती है…’.

‘मेरे प्‍यारे…’ अक्‍लमंद आदमी ने नि:श्‍वास छोड़ी. उसकी आंखों के किनारे कुछ-कुछ लाल हो चुके थे, मानो अब वह रो देने वाला हो.

‘मैं ऐसे नहीं जी सकता, मान्‍यवर. मुझे कोई न कोई उपाय ढूँढना ही होगा लेकिन मैं क्‍या करूं ?’

‘मुझे विश्‍वास है कि हालात जरूर सुधरेंगे…’.

‘क्‍या आप ऐसा सोचते हैं ? निश्‍चय ही मैं इसकी उम्‍मीद करता हूं, लेकिन अब जबकि मैंने आपको अपना दुखड़ा सुना दिया है और आपने इतनी हमदर्दी के साथ मेरा हौसला बढ़ाया है, मैं पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूं. इससे जाहिर होता है कि अभी भी दुनिया मेें कुछ इंसाफ है.’

हालांकि थोड़े ही दिन बाद वह फिर उदासी से भर उठा और अपना दुखड़ा सुनाने के लिए किसी दूसरे आदमी से मिला.

‘मान्‍यवर !’ उसने आंसू बहाते हुए सम्‍बोधित किया, ‘आप जानते हैं, जहां मैं रहता हूं वह सुअरबाड़े से भी बदतर जगह है. मेरा मालिक मुझेे आदमी नहीं समझता. वह अपने कुत्‍ते को मुझसे दस हजार गुना बेहतर समझता है…’.

‘उसका सत्‍यानाश हो !’ दूसरे व्‍यक्ति ने इतने जोर से गाली दी कि गुलाम भौचक्‍का रह गया. यह दूसरा आदमी मूर्ख था.

‘मैं जिसमें रहता हूं, मान्‍यवर, वह टूटी-फूटी एक कमरे वाली झोपड़ी है, जिसमें सीलन, ठंडक और बेशुमार खटमल है. ज्‍यों ही मैं सोने जाता हूं वे काटने लगते हैं. वह जगह बदबू से भरी हुई है और उसमें एक भी खिड़की नहीं है…’.

‘क्‍या तुम अपने मालिक से एक खिड़की बनवाने के लिए कह सकते हो ?’

‘मैं कैसे कह सकता हूं ?’

‘ठीक है, मुझे दिखाओ वह जगह कैसी है.’

मूर्ख आदमी गुलाम के पीछे-पीछे उसकी झोपड़ी में गया और मिट्टी की दीवार पर चोट करने लगा.

यह आप क्‍या कर रहे हैं, मान्‍यवर ?’

गुलाम डर गया था.

‘मैं तुम्‍हारे वास्‍ते एक खिड़की खोल रहा हूं.’

‘यह ठीक नहीं होगा. मालिक मुझे मारेगा.’

‘मारने दो.’ मूर्ख आदमी दीवार पर चोट करता रहा.

‘दौड़ो ! एक डाकू घर तोड़ रहा है. जल्‍दी आओ नहीं तो वह दीवार ढहा देगा…’.

चिल्‍लाते-सिसकते वह गुलाम पागलों की भांति जमीन पर लोटने लगा. गुलामों का एक पूरा दल ही उमड़ आया और उस मूर्ख को खदेड़ दिया. इस हल्‍ले-गुल्‍ले को सुनकर जो सबसे आखिर मेंं धीरे-धीरे बाहर आया, वह मालिक था.

‘एक डाकू हमारा घर गिरा देना चाहता था. मैंने सबसे पहले खतरे की सूचना दी, और हम सबने मिलकर उस मूर्ख को खदेड़ दिया.’ गुलाम ने ससम्‍मान और विजय गर्व से कहा.

‘तुम्‍हारा भला हो !’ मालिक नेे उसकी प्रशंसा की.

उस दिन हमदर्दी दिखाने कई लोग आये, जिनमें वह अक्‍लमंद आदमी भी था.
‘मान्‍यवर, चूंकि मैंने अपने को काम लायक सिद्ध किया, इसलिए मालिक ने मेरी प्रशंसा की. आप सचमुच दूरदर्शी हैं, आपने उस दिन कहा था कि हालात सुधरेंगे,’ वह बहुत आशान्वित और खुश होकर बोला.

.यह सही है…’. अक्‍लमंद आदमी ने जवाब दिया, और वह भी अपने पर खुश लग रहा था.

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