कृष्णकांत
मोदी जी बेरोजगार युवाओं को पकौड़ा तलना सिखा रहे हैं. उन्होंने नाले पर भगोना उलट कर गैस का भी आविष्कार कर लिया था. गैस जलाने से प्रदूषण भी नहीं होता. रोजगार का पूरा सिस्टम तैयार था. नाली पर भगोना उलट दो, उसमें पाइप लगाकर चूल्हे से जोड़ दो. अखंड ज्योति की तरह गैस भभककर जल उठेगी, फिर मस्त पकौड़ा तलो लेकिन बीएचयू के प्रोफेसर युवाओं को कंडा (गोयठा) पाथना सिखा रहे हैं.
बिना लकड़ी के कंडा जलता नहीं, सिर्फ सुलगता है. उसे लकड़ी के साथ इस्तेमाल करने के लिए चूल्हे में घुसाइए, तभी जलता है, वरना सुलग सुलग कर धुआं फैलाता है. लब्बोलुआब ये कि कंडे पर पकौड़ा नहीं तला जा सकता. बीएचयू के गोबर वैज्ञानिक प्रोफेसर मोदी जी की पकौड़ा योजना और नाला गैस योजना को विफल करने का षडयंत्र रच रहे हैं ?
पकौड़ा रोजगार की अपार सफलता के बाद पेश है कंडा पाथो योजना. दिलचस्प तो ये है कि यह काम मुझे पांच छह साल की उम्र से आता है, उसे कोई प्रोफेसर सिखाएगा ? मतलब क्या ? उसमें क्या सिखाएगा ? और वे कौन लोग हैं जो कंडा पाथना सीखेंगे ?
कंडा या उपला हमारी पहली स्मृतियों में दर्ज है. जब से हमने होश संभाला तो कंडे की छवि हमारे दिमाग में पहले से मौजूद थी. दादी कंडा पाथती थीं तो हम बच्चे वहीं पर, कभी कभी उनके गोबर के ढेर से खेला करते थे. कभी कभार हम भी हाथ आजमा लेते थे. गोल वाली पोपरी तो आराम से बना लेते थे, जो दीवार में चिपका दी जाती है.
हमारी अनपढ़ दादी इतने सुंदर, लंबे-लंबे, गोल-गोल कंडे पाथती थीं। ये फूहड़ प्रोफेसर लोग डेढ़-दो लाख सैलरी लेकर इतने बेडौल, इतने घटिया कंडे पाथ रहे हैं. गांव के लोग बताएं ये मूस जइसा कंडा कौन पाथता है भाई ?
खबर कह रही है कि उपले बनाने में देसी गाय का गोबर प्रयोग में लाया गया. हे गोबरगणेश ! अगर आप व्यावसायिक दृष्टि से कंडा पाथना सिखा रहे हैं तो भी आप मूर्ख हैं. गाय के मुकाबले भैंस एक बार में ज्यादा गोबर करती है.
भारत की आम जनता जो काम बिना किसी प्रशिक्षण के सदियों से कर रही है, उसके नाम पर बीएचयू जैसे बड़े विश्वविद्यालय में करोड़ों रुपये क्यों फूंके जा रहे हैं ? यह कोई कोर्स नहीं है. यह कोई पढ़ाई नहीं है. यह एक विश्वविद्यालय में चल रहा घोटाला है.
भारत में गोबर गैस इसलिए लोकप्रिय नहीं हो पाया क्योंकि गोबर गैस की तकनीक काफी महंगी है. हमारी दादी के बाद कंडा पाथना बंद कर दिया गया क्योंकि कंडा जलता नहीं, सिर्फ सुलगता है. घर की दीवारें काली पड़ जाती हैं और बरसात में छतों से टार टपकता है. कंडे से ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले किसी ईंधन के बारे में मुझे नहीं मालूम है.
आज पूरी दुनिया प्रदूषण मुक्त ईंधन पर काम कर रही है, तब भारत के टॉप विश्वविद्यालय गाय पालना और कंडा पाथना सिखा रहे हैं, जो हम मध्ययुग में भी करते थे. क्या हम सबसे प्रदूषक ईंधनों में शुमार कंडे को वापस लाना चाहते हैं ? यह कोर्स शुरू करने का मकसद क्या है ?
जो सरकार उज्ज्वला योजना का फटा ढोल पीट रही है, वह युवाओं को कंडा पाथना सिखा रही है ? यह जिस गधे का आइडिया है, वह विशुद्ध पागल है. उसका तत्काल प्रभाव से सरकार इलाज कराए. वह युवा भारत के लिए खतरा है.
वे कौन गदहे प्रोफेसर और छात्र हैं जो सिखा रहे हैं और सीख रहे हैं ? मैं जानता हूं कि मैं अपमानजनक और कड़े शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं, लेकिन मैं सायास ऐसा कर रहा हूं. किसी दिन कोई और बड़ा गदहा कहेगा कि ‘आओ गोबर और माटी लीपना सिखाएं.’
जानवर खड़ा दाना खाते हैं तो वह पचता नहीं. गोबर के साथ खड़ा खड़ी ही बाहर आ जाता है. किसी दिन कोई चूतिया कहेगा कि ‘आओ गोबर से दाना बीनकर रोटी बनाना सिखाएं !’ ये हमारे टॉप के संस्थानों में हो क्या रहा है ? कौन इन्हें बर्बाद करने का अभियान चला रहा है ?
विश्वविद्यालय में कंडा पाथने का कोर्स चलाना जिस महापुरुष का आइडिया है, वह भारतीय युवाओं को अक्ल का अंधा बनाकर तीन चार सदी पीछे ले जाने की देशद्रोही परियोजना पर काम कर रहा है. ऐसे लोगों से, ऐसे विचारों से, ऐसे संस्थानों से सतर्क रहें. वायरल वीडियो में योगी जी के कथनानुसार, ‘ये क्या चूतियापना है ?’
पढ़ लिखकर प्रोफेसर बन गए, पाथ रहे हैं कंडा,
रोजी मांग रहे थे लौंडे, हाथ में आया अंडा.
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