‘…गांधी राष्ट्रपिता नहीं हो सकते. राष्ट्र तो तब भी था, जब गांधी जन्मे ही नहीं थे. गांधी का एक समय था. राष्ट्र तो सनातन है.’
आपने अक्सर ऐसी बातें सुनी होंगी. आने वाले दिनों में और ज़्यादा सुनेंगे. बात जितनी मासूम लगती है, उतनी है नहीं. राष्ट्र सनातन तभी हो सकता है, जब राष्ट्र का मतलब जमीन का टुकड़ा हो. सिर्फ जमीन ही सनातन हो सकती है. भले ही किसी ख़ास नाम से जुड़े टुकड़े की जगह. आकार-प्रकार और उसकी सरहदें बदलती रही हों लेकिन राष्ट्र जमीन का टुकड़ा नहीं होता. आज फिलिस्तीनी राष्ट्र के पास जमीन का टुकडा नहीं है लेकिन वह एक राष्ट्र है.
राष्ट्र राज्य का पर्याय भी नहीं होता. आज तिब्बत के पास अपना राज्य नहीं है. फिर भी वह एक राष्ट्र है. राष्ट्र साम्राज्य को भी नहीं कह सकते. चन्द्रगुप्त मौर्य ,अशोक, अकबर और शिवाजी के पास उनके साम्राज्य थे, लेकिन वे राष्ट्र नहीं थे. उनके पास अपनी प्रजा थी, लेकिन वह किसी राष्ट्र की नागरिक न थी. उसका अपने सम्राट और उसके साम्राज्य पर कोई अधिकार न था. उलटे उसके जीवन पर सम्राट का पूरा अधिकार था.
राष्ट्र तब बनता है, जब कोई जनसमूह अपने को एक राष्ट्र के रूप में देखना शुरू करता है. एक ऐसे राष्ट्र के रूप में, जो उनके सपनों से निर्मित होता है. एक ऐसे राष्ट्र के रूप में जिसकी नियति पर पूरा अधिकार सिर्फ उनका होता है, किसी सम्राट का नहीं. ऐसा राष्ट्र तब बनता है, जब जनता अपनी सम्प्रभुता में विश्वास करना शुरू करती है. अगर जनता की संप्रभुता नहीं है, तब वहां एक राज्य हो सकता है, साम्राज्य हो सकता है, उपनिवेश हो सकता है, लेकिन राष्ट्र नहीं. इसलिए राष्ट्र सनातन नहीं होता, एक निर्माणाधीन प्रकल्प होता है.
वे सिर्फ और सिर्फ महात्मा गांधी थे, जिन्होंने भारत वर्ष की महान जनता को, स्त्री- पुरुष को, बालक-वृद्ध को, हिन्दू -मुसलमान- सिख- ईसाई को, कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक नागरिक समाज के रूप में निर्मित किया. एक ऐसे नागरिक -समाज के रूप में, जो एक राष्ट्र का स्वप्न देख सकता था. उसके निर्माण और विकास की जिम्मेदारी ले सकता था.
यही कारण था कि सिर्फ नेहरू-पटेल ने नहीं, भगत सिंह और सुभाष बोस ने भी गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार किया था. गांधी ने सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान को ही नहीं, अपने कठोरतम आलोचक बाबा साहेब को भी बनते हुए भारतीय राष्ट्र की नियति से जोड़ा.
निस्संदेह राष्ट्र-निर्माण की इस प्रक्रिया में हर एक का अपना मूल्यवान योगदान था लेकिन करोड़ो भारतवासियों के मन में अपने एक राष्ट्र का सपना भरने वाला कोई था, तो उसका नाम गांधी था. और वे लोग जो कहते हैं भारत हमेशा एक राष्ट्र था, वे असल में सभी भारतवासियों के भारत को नहीं, उनके केवल एक छोटे-से हिस्से को भारत मानते हैं. किसी एक विशेषाधिकार प्राप्त समूह को, जो अपनी प्रभुता के कारण खुद को प्रथम नागरिक कहने का हक़दार समझता है !
वे भारतीय स्वप्न को जोड़ने वाले नहीं, तोड़ने वाले हैं इसलिए जब भी कोई कहे कि गांधी राष्ट्रपिता नहीं हो सकते, उसके मुंह पर कहिए कि बापू हम शर्मिन्दा हैं.
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42 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब कांग्रेस के नेतृत्व में सभी बड़े नेता या तो जेल में थे या भूमिगत थे, तब सिंध में सरकार चलाने की जिम्मेदारी मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने मिल कर उठाई थी. उन दिनों सावरकर महासभा के अध्यक्ष थे.
महासभा और लीग की सरकार के रहते ही सिंध विधानसभा ने पाकिस्तान के समर्थन में प्रस्ताव पास किया था. महासभा के सदस्यों ने इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोट तो किया, लेकिन इसके बाद भी लीग के साथ मिलकर सरकार चलाते रहे. उधर बंगाल में महासभा नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी फज़लुल हक़ नीत लीग सरकार में शामिल हुए.
द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत सावरकर मुस्लिम लीग से बहुत पहले प्रतिपादित कर चुके थे. आज तक हिन्दुत्ववादी उसी लाइन पर चल रहे हैं.
जिन्ना ने सन 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में टू नेशन थियरी की जमकर वक़ालत की. उनका कहना था कि हिंदू मुसलमान हर मानी में एक दूसरे से अलग हैं. इतिहास, स्मृति, संस्कृति, सामाजिक सन्गठन , जीवन उद्देश्य – सब कुछ दोनों के अलग हैं. इसलिए वे केवल दो धर्म नहीं, दो राष्ट्र हैं, जो एक साथ रह ही नहीं सकते. अगर जबरन उन्हें साथ रखा गया तो यह दोनों के लिए विनाशकारी होगा. पता नहीं, कांग्रेस के नेता इस सचाई का सामना क्यों नहीं करना चाहते.
इसके कुछ पहले, सन 1937 में , हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में, उसके नए बने अध्यक्ष सावरकर यह कह चुके थे -‘हम साहस के साथ वास्तविकता का सामना करें. भारत को आज एकात्म और एकरस राष्ट्र नहीं माना जा सकता, प्रत्युत यहां दो राष्ट्र हैं.’
ये दोनों बातें जगतप्रसिद्ध हैं. लेकिन इसी सन्दर्भ में सरदार पटेल के एक अत्यंत महत्वपूर्ण वक्तव्य की कम चर्चा होती है. यह वक्तव्य अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उस बैठक में दिया गया था, जिसमें विभाजन के प्रस्ताव को मंजूर किया गया. इस बैठक की अध्यक्षता सरदार पटेल ने की थी .
अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा – ‘यह बात हमें पसंद हो या नापसंद, लेकिन पंजाब और बंगाल में वास्तव में -डि फैक्टो- पाकिस्तान मौजूद है. इस सूरत में मैं एक क़ानूनी – दे जूरे – पाकिस्तान – अधिक पसंद करूंगा, जो लीग को अधिक जिम्मेदार बनाएगा. आज़ादी आ रही है. 75 से 80 प्रतिशत भारत हमारे पास है. इसे हम अपनी मेधा से मजबूत बनाएंगे. लीग देश के बचे हुए हिस्से का विकास कर सकती है.’
यह देखना कम हैरतअंगेज़ नहीं है कि सरदार केवल पाकिस्तान के प्रस्ताव को ही नहीं, एक तरह से, उसके पीछे की टू नेशन थियरी को भी मंजूर करते लग रहे हैं. और भी हैरतअंगेज़ यह देखना है कि बंटवारे की बात इस तरह की जा रही है, जैसे मातृभूमि नहीं, कोई जागीर बंट रही हो. हम अपने अस्सी फीसद को सम्हालेंगे, बाकी का जो करना हो, लीग करे.
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कुल चार सौ सदस्य थे, जिनमें उस दिन की ऐतिहासिक मीटिंग में केवल 218 मौजूद थे. इनमें से 29 सदस्यों ने विभाजन के प्रस्ताव का विरोध किया. 30 सदस्यों ने एब्सटेन किया और 159 ने प्रस्ताव का समर्थन किया. यानी कुल सदस्यों के केवल 40 प्रतिशत के समर्थन से देश बंट गया.
प्रस्ताव के समर्थन में महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के वोट भी थे, जिन्हें मनाने का काम, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कहते हैं, कि सरदार पटेल ने किया था. माउंटबेटन ने भी अपने संस्मरणों में इस बात की ताईद की है कि कांग्रेस में विभाजन ने उनके प्रस्ताव के लिए सबसे पहले राजी होनेवाले नेता सरदार पटेल थे, जिन्होंने नेहरू और गाँधी को तैयार करने की जिम्मेदारी ली और उसे निभाया. मौलाना ख़ुद एब्सटेन करने वालों में थे, जबकि ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान ने विरोध में वोट डाला था.
गांधी जी ने अंतिम क्षण तक कांग्रेस को विभाजन के प्रस्ताव से दूर ले जाने की कोशिश की. उन्होंने इस बात पर अपनी निराशा सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर की थी कि ख़ुद को गांधी जी का अनुशासित सिपाही बताने वाले पटेल अब उनकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे. गांधी ने देख लिया था कि माउंटबेटन, लीग और कांग्रेस को विभाजन के फैसले से अलग करना मुमकिन नहीं रह गया है.
कांग्रेस कमेटी में नेतृत्व के निर्णय के ख़िलाफ़ वोट डालकर उस नाज़ुक मोड़ पर उसे गहरे राजनीतिक संकट में डालने की जगह उन्होंने हमेशा की तरह जनता के पास लौटने का फैसला किया. सिर्फ इस एक वोट के आधार पर गांधीजी को विभाजन का जिम्मेदार मान लिया जाता है लेकिन उन सरदार पटेल पर उंगली नहीं उठाई जाती, जिन्होंने न केवल इस बैठक की अध्यक्षता की थी बल्कि विभाजन के प्रस्ताव के पारित होने पर प्रसन्नता भी जाहिर की थी.
सन 42 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय का गांधी जी का ऐतिहासिक भाषण अगर आप पढ़े हैं तो साफ हो जाएगा कि वह आंदोलन केवल अंग्रेजो के खिलाफ नहीं था, बल्कि जिन्ना की मुस्लिम लीग और सावरकर की हिंदू महासभा के खिलाफ भी था. जिस समय गांधी जी विभाजन पर आमदा इन तीन बड़ी शक्तियों से लोहा ले रहे थे, उस समय यह तीनों ही यानी कि हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और अंग्रेज सरकार एकजुट होकर देश को विभाजन की ओर ले जाने के काम में जुटे हुए थे.
ऊपर-ऊपर महासभा और संघ अखंड भारत की बात करते थे, लेकिन लीग के साथ मिलकर सरकार चलाते थे, और जमीन हिन्दू मुस्लिम तनाव बढाते हुए देश को विभाजन की ओर ढकेलने में उसके प्रतियोगी थे.
हिंदू महासभा ने सन 44 में गांधीजी की जान लेने की गंभीर कोशिश तक की थी, जब गांधी जी राजा जी प्रस्ताव के साथ विभाजन टालने की अपनी आखिरी गंभीर कोशिश करने जिन्ना से मिलने जाने वाले थे.
सन 1948 की जनवरी में गांधीजी की जान तब ली गई जब वे पाकिस्तान से भारत आए हिंदू शरणार्थियों का कारवां लेकर पाकिस्तान जाने की घोषणा कर चुके थे और वहां जा चुके मुसलमान शरणार्थियों का कारवा लेकर वापस भारत आने की भी. जनता के भरोसे विभाजन को निरस्त करने का यह गांधी जी का अपना तरीका था.
जैसे सफलता गांधी जी को नोआखली में मिली थी वैसे ही सफलता अगर उन्हें इस अभियान में भी मिली होती तो इस बात की पूरी संभावना थी कि जनता ने विभाजन को अप्रासंगिक बना दिया होता. ऐसा ना होने पाए इस बात को सुनिश्चित करने का पक्का तरीका एक ही था और वह था गांधी जी की हत्या कर देना.
सच्चाई यह है कि सावरकर और उनके अनुयाई विभाजन के विरोधी नहीं, बल्कि समर्थक थे, क्योंकि उनके सपनों का हिंदू साम्राज्य स्थापित करने का यही एकमात्र व्यावहारिक तरीका था.
- आशुतोष कुमार
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