हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार संसद में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने मनरेगा को पिछली सरकार की ‘विफलताओं का स्मारक’ बताया था और साथ में यह भी जोड़ा था कि वे इस कार्यक्रम को बंद नहीं करेंगे क्योंकि वे इसे अपने पूर्ववर्त्ती की विफलताओं की याद दिलाने के लिये जारी रखना चाहते हैं.
वे सत्ता में बिल्कुल नए थे, संसद में और टीवी स्क्रीन पर यह सब बोलते हुए वे देश की आकांक्षाओं के प्रतीक लग रहे थे. खास कर यह देखते हुए कि उन्होंने दो करोड़ नौकरियां सालाना पैदा करने के वादे के साथ सत्ता संभाली है, उनके द्वारा मनरेगा का मजाक उड़ाया जाना लोगों को खला भी नहीं.
एक वह दिन था और एक आज का दिन है. साढ़े सात वर्ष बीत चुके. मोदी सरकार अब तक मनरेगा का कोई भी विकल्प सामने नहीं ला सकी है. पिछले वर्ष के मुकाबले 25 प्रतिशत की कटौती के साथ इस वर्ष भी इसके लिये बजट में राशि का प्रावधान किया गया है.
मनरेगा अगर विफलताओं का स्मारक है तो इस पर अब नरेंद्र मोदी सरकार का नाम भी खुदवाया जाना चाहिये. हालांकि, रोजगार पैदा करने के मामले में नरेंद्र मोदी की विफलताएं इतनी बड़ी हैं कि किसी एक स्मारक पर उनके उल्लेख से काम नहीं चल सकता.
बड़े शहरों की तंग गलियों में एक-एक कमरे में चार-पांच की संख्या में रहते हुए, बैंक, रेलवे और एसएससी आदि की परीक्षाओं की तैयारियों में दिन-रात एक करते हुए नौजवानों के टूटते सपनों की तमाम कब्रगाहों पर भी इतिहास नरेंद्र मोदी सरकार का नाम लिखता जा रहा है.
18 वर्ष की उम्र पार करने के बाद पहली बार वोटर बनने वाले नौजवानों के बड़े तबके ने 2014 में मोदी जी को वोट किया था. वे उनके ‘नए भारत’ के सपने के सहयात्री बन कर खुद के भविष्य के प्रति भी आशान्वित थे. उन नौजवानों को नौकरियां देने की जगह संकीर्ण राष्ट्रवाद और धर्मवाद की घुट्टी पिलाई जाने लगी.
पुलवामा और बालाकोट ने ऐसे नौजवानों के देश प्रेम को चुनावी मैदान में ‘एक्सप्लॉइट’ करने का मौका दिया और नरेंद्र मोदी सरकार को दूसरी बार सत्ता तक पहुंचाने में इस आयु वर्ग के वोटरों की बड़ी भूमिका रही. लेकिन, रोजगार ऐसा सच है जिसकी उपेक्षा की ही नहीं जा सकती क्योंकि यह किसी के दैनंदिन जीवन की जरूरतों से जुड़ा है, किसी की ‘आइडेंटिटी’ से जुड़ा है.
अपनी जरूरतों से, अपनी पहचान के संकटों से जूझते पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी की हताशा में नरेंद्र मोदी का नाम शामिल है क्योंकि, इतिहास में दर्ज हो चुका है कि निजीकरण के अंदेशों से जूझते बैंकिंग सेक्टर, रेलवे और सार्वजनिक क्षेत्र की अन्य इकाइयों ने बीते वर्षों में उम्मीदों के मुकाबले बेहद कम रिक्तियां घोषित की हैं और जो घोषित की भी हैं उनकी भर्त्ती-प्रक्रिया इतनी मंथर गति से चल रही है कि कितनों की तो उम्र भी खत्म होने के कगार पर पहुंचने लगी है.
2014 के बाद नौकरी की लाइन में लगा और अब तक बेरोजगार ही रह जाने को अभिशप्त हर नौजवान नरेंद्र मोदी सरकार की विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है. दो करोड़ नौकरियां सालाना पैदा करने का वादा कोई मामूली बात नहीं थी. इसने नौजवानों की आकांक्षाओं को जैसे नए पंख लगा दिए थे.
लेकिन 5 वर्ष के बाद अगले चुनाव में मोदी जी ‘पुलवामा के शहीदों’ के नाम पर वोट मांगते नजर आए, उनके गृहमंत्री समुदायों को विभाजित करने वाली भाषा बोल-बोल कर वोट मांगते नजर आए.
मतलब, अगला चुनाव आते-आते योजनाबद्ध तरीके से कोलाहल को इतना कर्कश बना दिया गया कि नौकरियों की मांग नौजवानों के हलक में ही अटक कर रह गई और ‘देश खतरे में है’ से ‘धर्म खतरे में है’ टाइप के विमर्श माहौल पर हावी हो गए.
जिनके लिये मनरेगा की शुरुआत की गई थी उनकी संख्या इस देश में सर्वाधिक है. साढ़े सात वर्षों के अपने कार्यकाल में मोदी सरकार उनके लिये कोई वैकल्पिक प्रभावी कार्यक्रम लाने में विफल रही है. मुफ्त नमक और अनाज आदि जैसे कार्यक्रम कोई समाधान नहीं हो सकते.
मध्य वर्ग को चूस कर, नौकरी पेशा वालों पर टैक्स लाद-लाद कर आप विशाल निर्धन आबादी के लिये ‘मुफ्त’ वाले कार्यक्रम कब तक चलाते रह सकेंगे ? अंततः उनके हाथों को काम ही उनकी आर्थिक मुक्ति का जरिया बन सकता है. लेकिन, इस विशाल निर्धन तबके की आर्थिक मुक्ति के लिये नरेंद्र मोदी सरकार अब तक कोई ठोस और प्रभावी कार्यक्रम नहीं ला पाई है.
इन अर्थों में मुफ्त के अनाज की लाइन में लगा निर्धनों का हर झोला मोदी सरकार की विफलताओं का स्मारक है जिस पर उनका नाम उकेरा जाना चाहिये.
कोई भी सरकार वृद्धों, असहायों आदि को मुफ्त राशन दे कर व्यवस्था को मानवीय चेहरा दे सकती है लेकिन अगर काम करने में सक्षम और रोजगार के जरूरतमंद लोगों को काम की जगह मुफ्त का झोला हाथों में पकड़ा दिया जाए तो यह पूरी व्यवस्था की विफलताओं का स्मारक है.
मनरेगा कार्यक्रम चल रहा है तो अब यह किसी पूर्ववर्त्ती सरकार की विफलताओं का स्मारक नहीं बल्कि इस दुःकाल में भी निर्धन बेरोजगारों को फौरी रोजगार देने की दिशा में एक सार्थक पहल का प्रतीक है.
विफल है तो नरेंद्र मोदी सरकार, जिसने देश को आर्थिक कंगाली के उस कगार पर पहुंचा दिया है कि इस नए बजट में मनरेगा की राशि में भी एक चौथाई कटौती करनी पड़ी है, जो अंततः इस देश के सबसे निर्धन बेरोजगारों पर ही भारी पड़ने वाली है.
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