1. छत्तीसगढ़ के रायपुर जिला में लोग रायपुर के धरना स्थल पर जमा हो गए. इनके हाथों में तख्तियां भी थीं. इन तख्तियों में लिखा था – मास्क स्वैच्छिक है, नो मास्क, नो वैक्सीन, टीका नहीं लगवाएंगे, हमारा शरीर हमारा है सरकार का नहीं, TV मीडिया ही कोरोना है, कोरोना सिर्फ सामान्य सर्दी खांसी है. इन तख्तियों के अलावा लोग पोस्टर भी लिए हुए थे, जिनमें लिखा था – जबरन टीकाकरण बंद करो, कोरोना महामारी या महा साजिश, मेरा शरीर मेरा अधिकार, कोरोना एक षडयंत्र है.
इस धरना के बाद पुलिस प्रदर्शनकारियों के ऊपर मुकदमा दर्ज कर दिया है और पकड़ने के लिए अभियान चला रही है. जबकि केंद्र की मोदी सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी कोविड-19 टीकाकरण दिशानिर्देशों में किसी व्यक्ति की सहमति के बिना उसका जबरन टीकाकरण कराने की बात नहीं की गई है. दिव्यांगजनों को टीकाकरण प्रमाणपत्र दिखाने से छूट देने के मामले पर केंद्र ने न्यायालय से कहा कि उसने ऐसी कोई मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) जारी नहीं की है, जो किसी मकसद के लिए टीकाकरण प्रमाणपत्र साथ रखने को अनिवार्य बनाती हो.
2. कनाडा की राजधानी ओटावा में शनिवार को 50 हजार से ज्यादा लोगों ने कोविड वैक्सीन को अनिवार्य बनाने और कोविड-19 पाबंदियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. इस दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों ने कोविड प्रतिबंधों की तुलना फासीवाद से की.
प्रदर्शनकारियों ने कनाडा के झंडे के साथ नाजी प्रतीक दिखाए और नारेबाजी की. सुरक्षा के लिहाज से प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को अपने परिवार के साथ ओटावा हाउस छोड़कर भागना पड़ा.
मॉन्ट्रियल से आए एक प्रदर्शनकारी डेविड सेन्टोस ने कहा कि उसे लगता है कि टीकाकरण अनिवार्य करना स्वास्थ्य से संबंधित नहीं है, बल्कि यह सरकार द्वारा ‘चीजों को नियंत्रित’ करने का एक पैंतरा है. विरोध प्रदर्शन के आयोजकों ने सभी कोविड-19 पाबंदियों और टीकाकरण को अनिवार्य बनाने के फैसले को वापस लेने और प्रधानमंत्री ट्रूडो के इस्तीफे की मांग की.
ओटावा पुलिस का कहना है कि प्रदर्शन शांतिपूर्वक हो रहे हैं इसलिए किसी के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है.
3. बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए एक मेडिकल प्रोफेसर के पिता ने 1,000 करोड़ रुपए के मुआवजे की मांग की है. याचिका में उन्होंने ये आरोप लगाया है कि उनकी बेटी की मौत कोरोना वैक्सीन के साइड इफेक्ट से हुई है.
याचिका में कोवीशील्ड वैक्सीन बनाने वाले सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, इसके सहयोगी बिल गेट्स, केंद्र सरकार और राज्य सरकार के अधिकारियों को पक्षकार बनाया गया है.
याचिकाकर्ता दिलीप लूनावत के अनुसार, उनकी 33 वर्षीय बेटी स्नेहल लूनावत नागपुर के एक मेडिकल कॉलेज में सीनियर लेक्चरर थी. उसने 28 जनवरी, 2021 को कोवीशील्ड की पहली डोज नासिक में ली थी. 5 फरवरी को उसके सिर में तेज दर्द हुआ. डॉक्टर से संपर्क करने पर उसे माइग्रेन की दवा दी गई, जिसे खाकर उसे बेहतर महसूस हुआ. इसके बाद 6 फरवरी को उसने गुड़गांव यात्रा की और 7 फरवरी की सुबह 2 बजे उसे थकान के साथ उल्टी हुई.
पास के आर्यन अस्पताल में भर्ती होने पर स्नेहल को कहा गया कि उसके ब्रेन में ब्लीडिंग हो सकती है. न्यूरोसर्जन मौजूद न होने के कारण उसे दूसरे अस्पताल ले जाया गया. वहां डॉक्टर्स ने स्नेहल को दिमाग में खून का थक्का होने की आशंका जताई, जिसके बाद उसे ब्रेन हैमरेज हुआ. डॉक्टर्स ने खून का थक्का हटाने की सर्जरी की. इसके बाद स्नेहल 14 दिन वैंटिलेटर पर भी रही, लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. 1 मार्च 2021 को उसकी मौत हो गई.
सारी दुनिया में शासकों के द्वारा अपने ही नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए घेराबंदी और जासूसी के लिए कोरोना और उसके टीकाकरण को हथियार बना लिया है, जिसके खिलाफ आम जनों ने भी मोर्चा खोल लिया है. आम जन अब कोरोना के नाम पर की जाने वाली दमन, गबन को समझने लगे हैं. उपरोक्त तीन उदाहरण तो केवल एक झलक मात्र है. यह आन्दोलन अब और तेज होता जा रहा है. पत्रकार गिरीश मालवीय अपने सोशल मीडिया पेज पर लिखते हैं –
कनाडा में 70 किलोमीटर का ट्रकों का जुलूस फ्रीडम कॉनवॉय के रूप मे निकल रहा है. वहां इक्कीसवीं सदी की स्वतंत्रता की महान लड़ाई लड़ी जा रही है, और यहां हम भारत में बैठे हुए इस बात पर आश्चर्यचकित हो रहे हैं कि जब कनाडा में नब्बे प्रतिशत जनता को टीके की दोनों डोज लग चुकी है और वहां के 95 प्रतिशत ट्रक ड्राईवर वैक्सीन ले चुके है तो वो विरोध क्यो कर रहें है ?
दरअसल वहां के लोग समझ गए हैं कि टीकाकरण अनिवार्य करना स्वास्थ्य से संबंधित नहीं है बल्कि यह सरकार द्वारा ‘चीजों को नियंत्रित’ करने का एक पैंतरा है. लेकिन यहां हम इस बात को समझ ही नहीं पाए है कि कनाडा के लोग बिल्कुल सही कह रहे हैं.
इंदौर के लोकल अखबार में छपी आपको एक खबर सुना देता हूं शायद उसके बाद आपकी आंखें खुल जाए. इंदौर कलेक्टर कह रहे हैं कि जिन हेल्थ वर्कर और कर्मचारियों ने एलिजिबल होने के बावजूद बूस्टर डोज नहीं ली है उनके वेतन रोक दिए जाए. इंदौर में चार स्कूलों पर शिक्षा विभाग कार्यवाही कर रहा है क्योंकि उन स्कूलों ने अपने यहां पढ़ने वाले अधिकतर बच्चों को वैक्सीन नहीं लगवाई.
सरकार कहती है कि वेक्सिनेशन अनिवार्य नहीं है उसके बावजूद यह कार्यवाही की जा रही है और भारत के लिबरल बुद्धिजीवी मुंह पर टेप लगाकर बैठे हैं. कनाडा में इसी तरह के अनिवार्य वेक्सिनेशन के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर रहे हैं तो हमें आश्चर्य हो रहा है.
बिग फार्मा के हाथों में बिका हुआ मुख्यधारा के मीडिया इस आंदोलन की उल्टी रिपोर्टिंग कर रहा है. प्रदर्शनकारी कोविड प्रतिबंधों की तुलना फासीवाद से कर रहे हैं और इसीलिए और कनाडा के झंडे के साथ नाजी प्रतीक प्रदर्शित कर रहे हैं लेकिन यहां खबर दिखाई जा रही है कि प्रदर्शनकारी ही नाजी है.
ऐसी ही एक तरफा रिपोर्टिंग टेनिस खिलाड़ी नोवाक जोकोविच के खिलाफ़ की गई कि उनका पैसा तो वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों में लगा है, वो कैसे वेक्सिन लेने से मना कर रहे हैं. मीडिया पूरी तरह से बिग फार्मा के हितों की रक्षा कर रहा है और एक नए न्यू वर्ल्ड ऑर्डर को बनाने में विश्व सरकारों का सहयोगी बन रहा है.
अनिवार्य वेक्सिनेशन के खिलाफ एक जन आंदोलन पूरे कनाडा में फैल रहा है हजारों कनाडाई नागरिक इसमें शामिल हो रहे हैं, जो इस विरोध का भारी समर्थन करते हैं. हाइवे पर वह उनके लिए चीयर्स कर रहे हैं, इस आंदोलन को 65 से अधिक देशों के लोगों का समर्थन प्राप्त है. निदरलैंड के डचों ने कनाडा के ट्रक ड्राइवरों के प्रति अपनी एकजुटता दिखाना शुरू कर दिया है, जो कोविड को लेकर बनाई गई दमनकारी की नीतियों और वैक्सीन के मेंडेटरी आदेश का विरोध कर रहे हैं. अमेरिका से भी हजारों लोग इनके समर्थन में आगे आए हैं.
इससे पहले भी विश्व के कई देशों में ऐसे आंदोलन कोरोना फासीवाद के विरुद्ध हुए हैं लेकिन मीडिया उसकी गलत तरह की छवि बना रहा है. देखा जाए तो कनाडा में इस वक्त जो फ्रीडम कोनवॉय निकाली जा रही है वो इक्कीसवीं सदी में मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा आन्दोलन है. ट्रक ड्राईवरों का करीब 70 किमी लम्बा काफिला कनाडा के प्रधानमंत्री के घर को घेर कर बैठे हुए हैं और पचास हजार ट्रक ड्राईवर इसमें शामिल हैं लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है कि मजदूरों के इतने बड़े आंदोलन से मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा हितैषी कहा जाने वाला कम्युनिस्ट वर्ग इस आंदोलन से गायब है.
कोरोना के विरुद्ध संघर्ष में किंकर्तव्यविमूढ़ वामपंथी
मेरे एक मित्र है अभिषेक लकड़ा कोरोना काल में हमारे सामने आए समूचे घटनाक्रम में लेफ्ट की भूमिका पर एक माकूल टिप्पणी की है जिसे पढ़ा जाना और समझा जाना जरूरी है. वे अभिषेक लिखते हैं –
‘भारतीय लेफ्ट हो या इंटरनेशनल लेफ्ट, कोरोना महामारी में ये वर्किंग क्लास की परेशानी, उसकी फ्रीडम, उसके राइट्स, उसकी डिमांड्स को समझने में असफल रहा. भारत में भी ये लॉकडाउन, स्ट्रिक्ट रेस्ट्रिक्शन, फोर्स्ड वैक्सिनेशन, पर्सनल फ्रीडम को महामारी के नाम पर इग्नोर करता रहा.
अब जब दुनियाभर की वर्किंग क्लास सड़कों पर आ रही है, और संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर रही है, तब भी लेफ्ट चुप है. वो बड़ी फार्मा कंपनियों के षड्यंत्र को नकार रहा है, और साइंस के नाम पर सरकारी पूंजीवादी ऑथॉरिटेरीयन अप्रेशन पर चुप्पी साध रहा है.
महामारी एक्ट जैसे कानून के खिलाफ इलीट लेफ्ट ने आज तक कोई आलोचना और निंदा तक नहीं की. उल्टे घर पर रहो, मास्क पहनो, वैक्सीन लो, और सड़कों पर मत आओ, इससे कोरोना फैल जाएगा, का समर्थन कर रहा है.
इसका बड़ा नुकसान दुनियाभर के लेफ्ट को होने वाला है. ऐसा नहीं है कि लेफ्ट हर जगह एक रुख पर है, कुछ देशों में उसने जनता को इन षड्यंत्रों के खिलाफ इकट्ठा भी किया है. जहां लेफ्ट चुप रहा, वहां कंजरवेटिव/पैट्रोटिक पार्टियां और समूहों ने वर्किंग क्लास को लीड किया है.
कुल मिलाकर सारा परिदृश्य अब ऐसी सिचुएशन में आ गया है जहां लेफ्ट को अपने एक स्टैंड लेना ही होगा कि वह अब भी किनके साथ खड़ा हुआ है ?
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