Home गेस्ट ब्लॉग संसदीय चुनावों के रणकौशलात्मक इस्तेमाल की आड़ में क्रांतिकारी कार्यों को तिलांजलि दे चुके कम्युनिस्ट संगठनों के संबंध में कुछ बातें

संसदीय चुनावों के रणकौशलात्मक इस्तेमाल की आड़ में क्रांतिकारी कार्यों को तिलांजलि दे चुके कम्युनिस्ट संगठनों के संबंध में कुछ बातें

8 second read
0
2
398
रितेश विद्यार्थी

1871 में पहली इंटरनेशनल की 7वीं जयंती मनाने के लिए दिए गए अपने भाषण में मार्क्स ने पेरिस कम्यून के सबकों का निचोड़ निकालते हुए वर्ग प्रभुत्व और वर्ग दमन के खात्मे की शर्तों का जिक्र किया था. उन्होंने कहा था, ‘ऐसा परिवर्तन होने से पहले सर्वहारा का अधिनायकत्व आवश्यक है, तथा उसका पहला अवयव सर्वहारा वर्ग की सेना है. मजदूर वर्ग को अपनी मुक्ति का अधिकार युद्ध भूमि में प्राप्त करना चाहिए.’

माओ (संकलित सैनिक रचनाएं) के मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार सेना राजसत्ता का मुख्य अवयव है. जो कोई राजसत्ता को हथियाना चाहता है और उसे अपने अधिकार में रखना चाहता है, उसके पास एक शक्तिशाली सेना होनी चाहिए. कुछ लोग हमें ‘युद्ध की सर्वशक्तिमानता’ का हिमायती कहकर भला बुरा कहते हैं. हां, हम क्रांतिकारी युद्ध की सर्वशक्तिमानता के हिमायती हैं; यह अच्छी बात है, बुरी बात नहीं; यह मार्क्सवादी रवैय्या है.’

भारत के ‘वामपंथी’ अहंवादियों की बातों व लेखों से पता चलता है कि ‘अर्द्ध सामंती, अर्द्ध औपनिवेशिक व नौकरशाह दलाल पूंजीवादी व्यवस्था’ को लेकर इनके अंदर समझ का बहुत अभाव है, जिसकी वजह से ये अर्द्ध सामंती को सामंती समझ लेते हैं. अर्द्ध औपनिवेशिक को पूर्ण औपनिवेशिक समझ लेते हैं और नौकरशाह दलाल पूंजीवादी व्यवस्था को पूंजीवादी व्यवस्था का न होना या कठपुतली होना समझ लेते हैं.

हमारा ऐसा बिल्कुल मानना नहीं है कि देश में पूंजीवाद का विकास नहीं हो रहा है लेकिन सवाल यह है कि किसकी पूंजी का विकास हो रहा है ? निश्चित तौर पर सम्राज्यवादी पूंजी का और भारत के बड़े दलाल पूंजीपतियों की पूंजी का विकास हो रहा है, बाकियों की पूंजी को तहस-नहस किया जा रहा है.

दूसरी बात आप यह नहीं समझते कि कठपुतली और दलाल में फर्क होता है. कठपुतली दूसरों के इशारे पर नाचती है जबकि दलाल के अंदर बारगेनिंग की क्षमता होती है इसलिए वो एक सम्राज्यवादी से दूसरे सम्राज्यवादियों के बीच दौड़ भाग करते हुए दिख जाते हैं. दलाल पूंजीपति, साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर संसाधनों का बंदरबांट करके लगातार सरकारी उद्दयमों व कृषि को लूट रहे हैं, जिससे बेरोजगारी की समस्या बढ़ती जा रही है.

आप संसदीय चुनावों के होने मात्र से यह समझ लेते हैं कि भारत में बुर्जुआ जनवादी व्यवस्था कायम हो गयी है. आप पिछले 40 सालों से यह घिसा-पिटा सवाल उठाते हैं कि आखिर आपातकाल के समय में ऐसा क्या छीन लिया गया था, जिसका जनता विरोध कर रही थी. पलट कर यह आप से भी पूछा जा सकता है कि साइमन कमीशन व रोलेट एक्ट के माध्यम से या अन्य कानूनों के माध्यम से अंग्रेज़ ऐसा क्या छीन लेते थे, जिसका जनता विरोध करती थी ? आपके ये सवाल बड़े हास्यास्पद होते हैं.

इतिहास में हमेशा यह हुआ है कि जनता के संघर्षों से जो भी कुछ सीमित मात्रा में मिलता है, जब वो वापस छीना जाता है तो जनता लड़ती है. जैसे आज जब संविधान प्रदत्त सीमित अधिकारों को भी जनता से छीना जा रहा है तो जनता लड़ रही है.

आज हमारे देश में कुछ ऐसे कम्युनिस्ट ग्रुप मौजूद हैं जो कथनी में तो क्रांति की बात करते हैं लेकिन करनी में उसे अस्वीकार कर चुके हैं और संसदीय सूअरबाड़े में लोट-पोट करने के लिए लालायित हैं हालांकि अभी तक वो ये अवसर प्राप्त नहीं कर पाए हैं. क्रांतिकारी कामों से मुंह मोड़ने के लिए वो ये बहाना बनाते हैं कि क्रांति के लिए अभी वस्तुगत परिस्थिति तैयार नहीं है इसलिए उनका कार्यभार बस इतना ही है कि ऐतिहासिक महत्व की अलग- अलग तिथियों पर कुछ पर्चे बांटे जाएं और जनता के कुछ आर्थिक मुद्दों को उठाते रहा जाए ताकि हम कुछ कर रहे हैं, यह दिखता रहे. इस तरह वो सिर्फ अर्थवादी बन कर रह गए हैं.

मार्क्सवाद की मामूली जानकारी रखने वाले लोग भी यह जानते हैं कि शोषक- शासक वर्ग खुद से सत्ता कभी नहीं छोड़ेंगे. मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों के अनुसार, हर क्रांति का मुख्य प्रश्न राजसत्ता का प्रश्न होता है और सर्वहारा क्रांति का मुख्य प्रश्न होता है, क्रांति के जरिये राजसत्ता हथियाना और पूंजीवादी राज्य मिशनरी को चकनाचूर कर देना तथा पूंजीवादी राज्य की जगह सर्वहारा राज्य कायम करना.

जैसा कि हम जानते हैं कि यह इजारेदार पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का दौर है, जहां सम्राज्यवादी और उनके दलाल भारतीय शासक वर्ग दिन- प्रतिदिन अपने राज्य मशीनरी को ताकतवर बना रहे हैं, रोज ब रोज अपनी फौजों की संख्या बढ़ा रहे हैं. साथ ही साथ गैर कानूनी ढंग से खुल्लम खुल्ला अपनी फासिस्ट गुंडा वाहिनियां भी तैयार कर रहे हैं. ऐसे में आप की तैयारी क्या है ?

मान लेते हैं कि आज क्रांति के लिए वस्तुगत परिस्थिति तैयार नहीं है लेकिन कोई भी क्रांति खास तौर पर सर्वहारा क्रांति सिर्फ वस्तुगत परिस्थिति तैयार होने मात्र से नहीं हो जाती, जब तक उसके लिए आत्मगत तैयारी पूरी न कर ली गयी हो. ‘वस्तुगत परिस्थिति तैयार नहीं है’ इस बात की आड़ लेकर क्रांतिकारी शक्तियों को तैयार न करना, क्रांति की रूपरेखा तैयार न करना क्या एक मार्क्सवादी रवैय्या है ?

रूसी क्रांति में जो लाखों हथियार मजदूरों ने इस्तेमाल किये थे क्या वो अचानक से आ गए थे ? उत्तर है बिल्कुल नहीं. बोल्शेविकों ने लेनिन-स्टालिन के नेतृत्व में लंबे समय से उसकी तैयारी की थी क्योंकि वो राज्यसत्ता के चरित्र को समझने में बिल्कुल मनोगतवादी नहीं थे. उन्होंने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों पे दृढ़ एक गुप्त क्रांतिकारी पार्टी व उसका व्यापक ढांचा तैयार किया था.

रूसी क्रांति से सबक लेते हुए और ये देखकर की ‘संसार की पहली सर्वहारा क्रांति को किस तरह से सशस्त्र दमन का सामना करना पड़ा और अब इजारेदार पूंजीपति वर्ग व सम्राज्यवादी आने वाली क्रांतियों को पहले दिन से ही खून में डुबोने की कोशिश करेंगे,’ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ के नेतृत्व में लगभग शुरुआत से ही सशस्त्र जन सेनाएं गठित करने और क्रांति के तीन जादुई हथियारों (भूमिगत क्रांतिकारी पार्टी, जन सेना और संयुक्त मोर्चा) को अमल में लाया. ये तीनों जादुई हथियार न केवल चीन के लिए प्रासंगिक थे बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक व अनिवार्य हैं लेकिन आज हमारे देश के यह आधुनिक संशोधनवादी तमाम सर्वहारा क्रांतियों के विशाल अनुभव से मुंह मोड़ते हुए अपने व्यवहार में पूरी तरह से कानूनी लड़ाइयों तक सीमित हैं. लफ्फाजी में कभी-कभी क्रांति की बात अवश्य कर लेते हैं.

सवाल यह है कि आप क्रांति कैसे करेंगे जब अपनी उत्पत्ति के लगभग 40 वर्षों में आज तक आप के पास न तो कोई क्रांतिकारी पार्टी है, न क्रांतिकारी रणनीति और कार्यक्रम है. रणकौशल हमेशा रणनीति की सेवा करती है. कार्यनीति (रणकौशल) रणनीति की तरह क्रांतिकारी संघर्ष की सम्पूर्ण स्थिति से संबंध नहीं रखती, बल्कि उसके किन्हीं खास अंशों, मुहिमों और कार्यवाइयों से संबंध रखती है. जो किसी खास समय की ठोस स्थिति व संघर्ष के ऐतिहासिक अनुभवों के अनुसार अमल में लायी जाती है.

आप की सारी शक्तियां शासक वर्ग के सामने उजागर हैं. अपनी अर्थवादी प्रवृत्ति की वजह से आप मुख्यतः जनता की आंशिक या आर्थिक मांगों को ही उठाते हैं और राजसत्ता के खिलाफ जनता की गोलबंदी पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते. जब भी कोई सवाल करता है कि क्रांतिकारी पार्टी के गठन व क्रांति की रणनीति पर आप फिसड्डी क्यों हैं, जो क्रांति के सर्वाधिक महत्व की बात है तो आप चुप्पी साध लेते हैं. अपने कार्यकर्ताओं को भ्रमित करने के लिए उनसे कहते हैं कि यह सब बातें नहीं बतायी जातीं जबकि मार्क्सवादी अपने विचारों को कभी नहीं छुपाते.

जहां तक कानूनी संघर्ष की बात है उसका एक मात्र रूप संसदीय संघर्ष नहीं है, जैसा की आप लोगों को लगता है. देश की क्रांतिकारी शक्तियां आज फासिस्टों से हर मोर्चे पर टक्कर ले रही हैं, चाहे वो कानूनी मोर्चा हो या कोई और. आज के फासीवादी दौर में जब संसद में बुर्जुआ विपक्षियों को भी बोलने का मौका नहीं दिया जा रहा हो, बिना किसी चर्चा के कृषि कानून और राष्ट्रीय शिक्षा नीति जैसे तमाम कानूनों को बिना किसी चर्चा के पास कर दिया जा रहा हो तो आप संसद का कितना इस्तेमाल कर पाएंगे ?

आज भारत में संविधान के दायरे में संघर्ष करने वाले पचासों संगठनों को प्रतिबंधित किया जा चुका है और आप यह भ्रम पाले हुए हैं कि संसद का क्रांतिकारी इस्तेमाल करते हुए आप उस शासक वर्ग को एक्सपोज़ करेंगे, जो जनता के बड़े हिस्से में पहले से एक्सपोज़ है. आप उसी हद तक संसदीय तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर पाएंगे जिस हद तक वो चाहेंगे. यानी जब तक आप सुधारवाद तक सीमित रहेंगे.

जहां तक जनता द्वारा संसदीय चुनावों में वोट देने की बात है तो वो वोट इसलिए दे रही है कि उसके पास क्रांतिकारी विकल्प मौजूद नहीं है. आप देख सकते हैं कि कुछ इलाकों में जहां क्रांतिकारी संघर्ष चल रहे हैं, वहां मतदान का प्रतिशत बहुत कम है. ‘मतदान ठीक ठाक हुआ है और संसद पर जनता का भरोसा बना हुआ है’, यह साबित करने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा ही अक्सर फर्जी वोटिंग करा दी जाती है ताकि वोटिंग प्रतिशत ठीक-ठाक दिखे. इस बात के बहुत से साक्ष्य मौजूद हैं. मेहनतकश जनता अच्छी तरह जानती है कि सिर्फ वोट देने से उसका भला नहीं होने वाला.

जिन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने संसद का रणकौशलात्मक इस्तेमाल करने की कोशिश की, उनके साथ कैसा रुख अख्तियार किया गया यह आप चिली के उदाहरण से समझ सकते हैं, जहां 1946 में कम्युनिस्ट पार्टी संसद में गयी और एक साल से भी कम समय में उन्हें संसद छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया. कम्युनिस्टों की धड़-पकड़ शुरू हो गयी और दो साल बाद 1948 में चिली की कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबन्धित कर दिया गया.

फासिस्ट शासक वर्ग आज के दौर में आपको यह कत्तई इजाजत नहीं देगा कि संसदरूपी उसके प्लेटफार्म का इस्तेमाल आप उसी को एक्सपोज़ करने और क्रांतिकारी प्रचार करने के लिए कर सकें (और जिस हद तक आप कर सकते हैं उतना आप बिना चुनाव लड़े भी करते हैं). मुख्य बात तो यह है कि आप विश्व सर्वहारा क्रांति के विशाल अनुभवों से सबक लेने से कतरा रहे हैं.

आप अपनी बात को सही साबित करने के लिए लेनिन की पुस्तक ‘वामपंथी कम्युनिज्म एक बचकाना मर्ज’ को खास तौर पर कठमुल्लावादी ढंग से कोट करते रहते हैं लेकिन इस किताब का गलत इस्तेमाल कर आप वर्ग-संघर्ष को केवल संसदीय व कानूनी संघर्ष तक सीमित रखना चाहते हैं.

महान बहस के दौरान माओ के नेतृत्व वाली चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कहती है कि ‘जिन कॉमरेडों के वामपंथी भटकाव की लेनिन अपने इस किताब में आलोचना करते हैं, वे सभी क्रांति चाहते थे लेकिन ख्रुश्चेव व काउत्स्की मार्का आधुनिक संशोधनवादियों को जो अपने करनी में बिल्कुल कानूनपरस्त हो गए हैं, उन्हें ‘वामपंथी’ बचकाने मर्ज के खिलाफ संघर्ष में बोलने का कोई हक नहीं है.

‘नरोदवाद’ की आड़ लेकर कुछ लोग अपनी कायरता व संशोधनवादी विचारों पर पर्दा डालते हैं. रणकौशल, हमेशा रणनीति के मातहत होती है. अगर क्रांति की कोई रणनीति ही न हो तो संसदीय रणकौशल सिर्फ बुर्जुआ सुधारवाद और संसदवाद तक पतित होकर रह जाता है. आज के भारत व विश्व का ‘वामपंथी’ बचकाना मर्ज संसदवाद है. यह एक खुला तथ्य है. देश, काल व परिस्थितियों से काटकर किसी पुस्तक को कोट करना महज ‘पुस्तक पूजा’ है.

लेनिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद को ‘शांति और स्वतंत्रता के प्रति कम से कम लगाव और सैन्यवाद के अत्यधिक व व्यापक विकास के जरिये’ पहचाना जाता है. शांतिपूर्ण अथवा हिंसात्मक परिवर्तन के प्रश्न पर विचार करते समय ‘इस बात पर ‘ध्यान न देने’ का मतलब है पूंजीपति वर्ग के बिल्कुल निकम्मे और बाजारू गुर्गे की स्थिति में जा गिरना.’ (सर्वहारा क्रांति और गद्दार काउत्स्की)

स्टालिन ने कहा था “सर्वहारा वर्ग की हिंसात्मक क्रांति व सर्वहारा अधिनायकत्व पूंजीवादी शासन वाले तमाम देशों के समाजवाद की तरफ अभियान करने के लिए “एक अनिवार्य व अपरिहार्य” शर्त है. (हमारी पार्टी में सामाजिक जनवादी भटकाव). शासक वर्ग की राज्य मशीनरी का मुख्य अंग सशस्त्र बल है, संसद नहीं. संसद तो केवल उसका आभूषण है, एक मुखौटा है, जिसके अंदर क्रूरता व बर्बरता छिपी हुई है.

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

किस चीज के लिए हुए हैं जम्मू-कश्मीर के चुनाव

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए चली चुनाव प्रक्रिया खासी लंबी रही लेकिन इससे उसकी गहमागहमी और…