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असफल ब्रिटिश निजी रेल व्यवस्था का भारत में प्रयोग

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ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने हाल ही में अपने देश के ध्वस्त हो रहे रेलवे नेटवर्क की व्यापक जांच और मरम्मत की घोषणा करते हुए कहा, ‘ब्रिटेन के विफल होते ट्रेन नेटवर्क को सरकार के नियंत्रण में लाया जाएगा.’ उनका यह कदम सन 1980 और 1990 के दशक में कंजरवेटिव पार्टी की सरकारों द्वारा शुरू की गई निजीकरण की विवादास्पद नीति को पलट देगा और ग्रेट ब्रिटिश रेलवेज (जीबीआर) नामक एक नई सार्वजनिक संस्था गठित की जाएगी.

जीबीआर में समूचा रेलवे तंत्र शामिल होगा. यानी बुनियादी ढांचे से लेकर समय सारणी बनाने और टिकट से होने वाली आय संग्रहित करने तक का सारा काम. यह नई संस्था रेलवे नेटवर्क के पूंजीगत कार्य की योजना बनाने और उसका क्रियान्वयन करने के लिए भी उत्तरदायी होगी.

फिलहाल बुनियादी ढांचे यानी ट्रैक, सिग्नल और बड़े स्टेशनों का प्रबंधन कर रही नेटवर्क रेल को इसमें समाहित कर लिया जाएगा. नई कंपनी निजी ट्रेन संचालकों को अनुबंधित करने का काम भी करेगी. ज्यादातर ट्रेनों के संचालन का काम उनके हवाले ही होगा.

गत 20 मई को घोषित इन प्रस्तावों को बीते 25 वर्ष में ब्रिटेन के रेलवे उद्योग के इतिहास की सबसे बड़ी घटना माना जा रहा है. रेलवे एक बार फिर सरकार के हाथ में आ रही है, हालांकि इस दौरान निजी क्षेत्र का सहयोग लिया जाएगा.

30 वर्षीय योजना का मसौदा परिवहन मंत्री ग्रांट शैप्स और ब्रिटिश एयरवेज के पूर्व मुख्य कार्याधिकारी कीथ विलियम्स ने तैयार किया है. इस योजना को 2023 तक पूरी तरह क्रियान्वित करना है. सन 1979 में जब तत्कालीन थैचर प्रशासन ने ब्रिटिश रेलवे का निजीकरण करने का निर्णय लिया था, तब मिजाज बिल्कुल अलग था.

उस वक्त कहा गया था कि प्रबंधन कौशल, उद्यमिता की भावना हासिल करने और जनता को बेहतर सेवा प्रदान करने के लिए रेलवे का निजीकरण किया जाएगा. चार वर्ष बाद 1993 में रेलवे अधिनियम लागू हो गया. ट्रैक अथॉरिटी मॉडल अपनाया गया जबकि यात्री रेल सेवाओं को निजी कंपनियों को सौंप दिया गया.

स्थायी परिसंपत्तियों मसलन रेलवे ट्रैक, स्टेशन, सुरंगें, पुल, सिग्नल
और डिपो आदि जो पुरानी सरकारी कंपनी ब्रिटिश रेल के आधिपत्य में थे, उन्हें एक स्वतंत्र कंपनी रेलट्रैक के हवाले कर दिया गया. सन 1995 में रेलटैक ने यात्री रेल सेवाओं की फ्रेंचाइज निजी यात्री रेल परिचालन कंपनियों को देनी शुरू की. अब इस फ्रेंचाइजी मॉडल में दिक्कतें देखी जा रही हैं क्योंकि इससे पूरा नेटवर्क बहुत हद तक विखंडित हो गया है.

ऐसे में फ्रैंचाइज का संचालन कर रही कंपनी के पास परिचालन को लेकर बहुत सीमित अधिकार रह जाते हैं और ट्रैक और ट्रेन परिचालकों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है. ऐसा भी प्रतीत होता है कि ब्रिटेन में हर दो में से एक यात्री ट्रेन का संचालन फ्रांस और इटली की विदेशी कंपनियों द्वारा किए जाने के कारण ब्रिटेन के राष्ट्रीय गौरव को भी ठेस पहुंची.

वर्ष 2016 से ही यह बहस शुरू हो गई थी कि रेलवे को एक बार फिर राष्ट्रीयकृत किया जाए या नहीं. दोबारा राष्ट्रीयकरण करने की इस पहल का सतर्कतापूर्वक स्वागत किया गया है. कुछ धड़े, खासकर श्रम संगठन इस बात पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं कि दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाली कंजरवेटिव सरकार मौजूदा ढांचे को ध्वस्त करके दोबारा राष्ट्रीयकरण की व्यवस्था करेगी.

भारत के लिए इसमें क्या सबक हैं ?

नेटवर्क वाले बुनियादी ढांचे में तयशुदा बुनियादी ढांचे पर राज्य का स्वामित्व ही सही तरीका है. निजीकृत रेल नेटवर्क के विभाजित ढंग से काम करने को ही ब्रिटिश रेल के निजीकरण की नाकामी की वजह माना जाता है. भारत को रेल, तेल एवं गैस पाइपलाइन तथा बिजली पारेषण लाइनों का मुद्रीकरण करते हुए इस बात को ध्यान में रखना चाहिए. यदि भारत इस बात को ध्यान में रखे तो बेहतर होगा कि कुछ ही विकसित देशों ने उपयोगी नेटवर्क्स को निजी क्षेत्र को बेचने के तरीके का अनुसरण किया है.

यूरोप में आमतौर पर ऐसा मॉडल अपनाया गया है जहां परिसंपत्ति स्वामित्व को सेवा प्रावधानों से अलग रखा गया और निजी नेटवर्क्स को परिचालन रियायत प्रदान की गईं. उस तरह देखें तो नियमित जरूरत का पूंजीगत व्यय संप्रभु संस्थान ने किया जबकि निजी क्षेत्र को परिचालन क्षमता से भरपाई की गई.

भारत में निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) के प्रबंधन की संस्थागत क्षमता की कमी है. दस से अधिक केंद्रीय मंत्रालय और 28 राज्य तथा आठ केंद्रशासित प्रदेश अपने-अपने तरीके से पीपीपी का संचालन कर रहे हैं और इस बीच औपचारिक रूप से ज्ञान की साझेदारी नहीं की जा रही.

ब्रिटेन सन 1990 के दशक में पीपीपी की अवधारणा आने के बाद से ही उसके बेहतरीन व्यवहार का अगुआ रहा है और उसने कई समर्थक संस्थान विकसित किए, जिनका दुनिया भर में अनुकरण किया गया. निजी फाइनैंस इनीशिएटिव, निजी फाइनैंस पैनल, इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनैंस यूनिट और पाटनरशिप्स यूके आदि इसके उदाहरण हैं.

भारत को पीपीपी के संस्थानीकरण को गंभीरता से लेना होगा और उपी इंडिया के रूप में उस पीपीपी थिंकटैंक की स्थापना करनी होगी जिसकी घोषणा अरुण जेटली ने जुलाई 2014 के बजट में की थी.
देश के पीपीपी कार्यक्रम में जो तनाव व्याप्त है उसके लिए नियामकीय आजादी की कमी भी एक वजह है. साहसी निर्णयों के लिए ऐसी आजादी आवश्यक है. पीपीपी को नियामकीय सहारे की आवश्यकता है.

भारत की खुद की जरूरतें नवंबर 2019 की केलकर समिति की पीपीपी रिपोर्ट में शामिल की गई हैं. शायद भारत के नीति निमार्ताओं के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि दुनिया के सर्वाधिक परिपक्व बाजारों में भी निजी पूंजी को शामिल करने का प्रारूप अभी भी उभर रहा है और अनुभवों के आधार पर नया आकार ग्रहण कर रहा है. इसके लिए जरूरी है कि उच्च गुणवत्ता वाली संस्थागत क्षमता विकसित की जाए.

  • विनायक चटर्जी

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