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‘जॉबलेस ग्रोथ’ : धर्म आधारित राष्ट्र बनाने के लिये मरने और मारने को तैयार

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'जॉबलेस ग्रोथ' : धर्म आधारित राष्ट्र बनाने के लिये मरने और मारने को तैयार

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

हाल में जारी कुछ आंकड़ों के अनुसार भारत के प्रत्येक जिला में औसतन 1 लाख 75 हजार डिग्रीधारी बेरोजगार हैं. यानी देश के कुल 740 जिलों में लगभग 12 करोड़ डिग्रीधारी बेरोजगार हैं. जिनके पास कोई डिग्री नहीं है ऐसे बेरोजगार युवाओं की संख्या भी अच्छी खासी ही होगी. तो कुल मिला कर आज की तारीख में बेरोजगारी का मसला इतना गम्भीर हो चुका है, जितना बीते 50 वर्षों में कभी नहीं हुआ था.

कारपोरेट समुदाय को मजदूरों की कमी न हो इसलिये सरकारों ने आबादी नियंत्रण पर ध्यान देना कम कर दिया है. मनमोहन सिंह पहले प्रधानमंत्री थे जो भारत की बेहिसाब बढ़ती आबादी पर गर्व करते देखे-सुने गए थे. जब ये आंकड़े सामने आते थे कि भारत में युवा आबादी दुनिया में सर्वाधिक है तो सिंह साहब हमें आश्वस्त करते थे कि इतने हाथ हमें दुनिया का अग्रणी राष्ट्र बना देंगे.

लेकिन हाथों को तो काम चाहिये, जिसके अवसर तो अपेक्षानुरूप बढ़े ही नहीं. मनमोहन सिंह 1991 से ही देश को यह उम्मीद दिलाते आ रहे थे कि उदारीकरण का कारवां जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाएगा, बाजार जैसे-जैसे खुलता जाएगा, रोजगार के अवसर भी बढ़ते जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. देश की विकास दर बढ़ी पर उस अनुपात में रोजगार सृजित नहीं हुए.

‘जॉबलेस ग्रोथ’ अर्थशास्त्रियों ने विकास की इस प्रक्रिया को इसी विशेषण से नवाजा. यानी ऐसी विकास प्रक्रिया, जो रोजगार पैदा करने में बांझ साबित हो, जिसमें देश की आय का बड़ा हिस्सा ऊपर के कुछ मुट्ठी भर लोगों की जेब में जाता जाए. तो  बीते 30 वर्षों में बाजार खुले, खुलते गए लेकिन इसका असली लाभ बाजार के बड़े खिलाड़ी उठाते रहे. रोजगार का बाजार लेकिन मंदा ही रहा.

निजीकरण को मुक्ति का मार्ग माना गया और इस मुक्तिपर्व में नेता-अफसर-कारपोरेट की तिकड़ी ने जम कर चांदी काटी. विभिन्न सर्वे में तथ्य सामने आए कि जिन सरकारी कम्पनियों का निजीकरण किया गया, उनमें रोजगार के अवसर उल्टे और संकुचित होते गए, पूर्व से कार्यरतकर्मियों के मन में असुरक्षा बोध और असंतोष भी बढ़ा.

इधर, एक नामचीन पत्रकार कल एक परिचर्चा में आंकड़े बता रहे थे कि देश भर में कुल 80 लाख सरकारी पद खाली हैं. इनमें केंद्र सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र और राज्य सरकारों के पद शामिल हैं.

सरकारें इन पदों को भरने के प्रति उत्साहित नजर नहीं आ रही. इसका पहला कारण तो यह है कि सरकारों को पता है रोजगार चुनावों में बड़ा मुद्दा नहीं बनता. दूसरा, अधिकतर सरकारों की माली हालत खस्ता है. सबसे खस्ता हालत तो केंद्र सरकार की है जिसके 11 लाख से अधिक पद खाली हैं लेकिन वह वैकेंसी देने में क्रूरतापूर्ण कंजूसी कर रही है.

बैंकों को कारपोरेट प्रभुओं ने राजनीतिक मिलीभगत से जिस निर्ममता से लूटा है, वे भी इस हालत में नहीं कि अपनी जरूरतों के अनुसार वैकेंसी दे सकें. ऊपर से, निजीकरण का फंदा है जो उन पर कसता ही जा रहा है.

जाहिर है, जो भी निजी खिलाड़ी किसी सरकारी बैंक का स्वामित्व खरीदेगा, वह चाहेगा कि स्टाफ का लोड कम से कम मिले. इस चक्कर में भी वैकेंसी पर ताले लगे हुए हैं. जब बिकना ही है तो बैंक वर्त्तमान या आगामी जरूरतों को ध्यान में रख कर भर्त्तियां क्यों करें. जैसा चल रहा है, घिसट-घिसट कर चलता रहेगा, फिर एक दिन बिक जाना है.

तो, न सरकारें उस अनुपात में वैकेंसी दे रही हैं, न बैंक, न रेलवे, न अन्य इकाइयां. प्राइवेट सेक्टर अलग हांफ रहा है. वहां भी सन्नाटा-सा छाया है. जानकार बता रहे हैं कि रोजगार के बाजार में ऐसी मंदी पहले कभी नहीं देखी गई थी.

इस संदर्भ में, 2013-14 में नरेंद्र मोदी का 2 करोड़ नौकरियां सालाना पैदा करने का वादा याद करके अब खीज़ भी पैदा नहीं होती. रोजगार अगर कोई पैमाना है तो मोदी निर्विवाद रूप से अब तक के सबसे असफल प्रधानमंत्री साबित हुए हैं.

इधर, एक फलसफा बेरोजगारी से जूझते विद्वतजन भी आजकल दुहराते हैं – ‘सरकारी नौकरी बेरोजगारी दूर करने का माध्यम नहीं.’ ठीक है, सरकारी नौकरी से बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती, इसके लिये प्राइवेट सेक्टर और स्वरोजगार की भी भूमिका होती है. लेकिन इसका क्या औचित्य कि 80 लाख सरकारी पद सरकारों की अकर्मण्यता और नैतिक बेईमानी से खाली पड़े रहें और पढ़े-लिखे युवा सिर्फ कंपीटिशन की तैयारियां करते-करते मानसिक रूप से टूटते जाएं.

विधिवत सृजित सरकारी पदों का खाली रहना सरकार के कामों की गति को भी मन्थर करता है, जनता की कठिनाइयों को भी बढ़ाता है और लाखों बेरोजगारों के सपनों की भ्रूण हत्या भी करता है. रोजगार और निजीकरण एक दूसरे के पूरक साबित नहीं हो पाए, यह बीते वर्षों के अनुभवों का प्रामाणिक निष्कर्ष है. नए रास्तों की तलाश करनी होगी.

स्थितियां जितनी तेजी से और विद्रूपताओं के साथ बिगड़ रही हैं, वे बेहद गम्भीर सामाजिक संकटों को जन्म दे रही हैं. गंगा स्नान से पाप शायद धुलते हों, देशवासियों को रोजगार नहीं दिए जा सकते. इसके लिये विजन चाहिये, इच्छाशक्ति चाहिए. ये दोनों वर्त्तमान सरकार के पास नहीं हैं. देश को आगे देखना होगा, न सिर्फ नेतृत्व के स्तर पर, बल्कि नीतियों के स्तर पर भी.

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धर्मध्वजाधारियों के सम्मेलन में आह्वान किया गया कि अपने बच्चों के हाथों में आधुनिक हथियार दें. सामने खड़े नौजवानों को मंचासीन ‘संतों-बाबाओं’ ने शपथ दिलाई कि धर्म आधारित राष्ट्र बनाने के लिये मरने और मारने को तैयार रहना है. एक सन्तिन तो लाखों लोगों के ‘संहार’ के लिये नौजवानों के जत्थे बनाने को विकल थी.

जब ज़ाहिलों के हाथों में धर्म की ध्वजा हो और क्रिमिनल लोग मठाधीशों की भूमिका में हों तो ऐसे ही दृश्य उपस्थित होते हैं. इसमें आश्चर्य की भी बात नहीं. ज़ाहिलों और अपराधियों से और कैसी अपेक्षा हो सकती है. लेकिन, किसी वीडियो में नजर आया कि एक पदासीन मुख्यमंत्री इनमें से ही किसी एक ज़ाहिल के चरणों पर झुका है. फिर सार्वजनिक मंच से नफरत और जनसंहार की बातें करने वालों पर एफआईआर का आदेश कौन देगा ?

भारतीय राष्ट्र-राज्य की संवैधानिक संस्थाएं इतनी पंगु कैसे हो गईं कि ऐसी घटनाओं पर अब तक चुप्पी छाई है. सुना है, कोर्ट को बहुत ‘पावर’ होता है कि वह स्वयं भी इन घटनाओं का संज्ञान लेकर कार्रवाई का आदेश दे सकता है. यह भी सुना है कि पुलिस और प्रशासन के पदाधिकारीगण कानून और संविधान के प्रति उत्तरदायी होते हैं. फिर इतना खौफ़नाक सन्नाटा क्यों ?

क्या इसकी पृष्ठभूमि में यूपी के चुनावों को लेकर किसी राजनीतिक दल के हित जुड़े हैं ?
इधर से कोई बाबा बोलेगा, ‘हम तो अपने धर्म के झंडे तले राष्ट्र बनाएंगे.’ उधर से कोई मुल्ला चीखेगा, ‘मां का दूध पिया है तो बना कर देख लो.’

बाबा भी प्रायोजित, मुल्ला भी प्रायोजित, उनके चेले-चपाटे भी प्रायोजित. फिर तो कहां गई बेरोजगारी, कहां गए स्कूल-अस्पताल, कहां गई आर्थिक नीति पर बहसें. माहौल ही अलग सा, भीतर ही भीतर सुलगता सा कुछ. उसके बाद तो लो जी अपनी तो बन आई. अब तो हम हैं, हमारी पार्टी है और वोटों की फसल है.

यह 21वीं सदी का भारत है. सदी की शुरुआत में दुनिया के विचारक कहते थे कि नई सदी भारत की होगी. दो दशक बीत चुके. हम सबसे अधिक कुपोषित हैं दुनिया में. इधर, हाल के वर्षों में ग्राफ में और नीचे ही आ गए हैं. सबसे अधिक बेरोजगार भी हैं. सबसे अधिक अनपढ़ों के मामले में भी हम शीर्ष पर हैं.

विकास के लाभों की बंदरबांट में लगा कारपोरेट समुदाय हमारी राजनीति के सूत्र अपने हाथों में ले चुका है. तभी तो हमारी राजनीति बातें तो विकास की करती है लेकिन ऐसे कुचक्र रचती है कि नौजवान एक दूसरे को काटें, मारें. राजनीति जानती है कि अगर नौजवानों को आपस में नहीं लड़ाया गया तो ये मिल कर बेरोजगारी से लड़ने को उठ खड़े होंगे.

रोजगार की जरूरत, इलाज की जरूरत, शिक्षा की जरूरत सबको है लेकिन, बाबा लोग बता रहे हैं कि सबसे पहले धर्म आधारित राष्ट्र की जरूरत है. ज़ाहिलों और अपराधियों को धर्म के नाम पर मंच पर स्थान मिलना, उनका कानून, संविधान, धर्म और इंसानियत की खुलेआम ऐसी की तैसी करना और इन सब पर जिम्मेदार लोगों की चुप्पी शासन तंत्र की निष्क्रियता.

नई सदी के भारत की यात्रा अपना मार्ग भटक चुकी है. उम्मीद देश के लोगों से है, नौजवानों और बच्चों से है, जो इन पाखंडियों की हकीकत से वाकिफ हो रहे हैं. दौर बदलेगा जल्दी ही. किसी देश और समाज के इतिहास में दस-बीस वर्षों की बिसात ही क्या है. पन्ने पलटेंगे तो नए दौर की कहानी सामने होगी.

लड़ाई किसी धर्म आधारित देश के लिये नहीं, असल लड़ाई तो इलाज और रोजगार के लिये होगी, रोटी और शिक्षा के लिये होगी. होगी ही क्योंकि हमारा अस्तित्व इन्हीं पर निर्भर है. और, अब तो अस्तित्व पर संकट है. पाखंड की राजनीति ने नई पीढ़ी को ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है जहां और कोई विकल्प भी नहीं, सिवाय पढ़ने के, लड़ने के.

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