डॉ. मुमुक्षु आर्य
सर्वप्रथम द्विराष्ट्र की संकल्पना सावरकर ने की, जिसका लाभ मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना ने लिया और पाकिस्तान बनाया. साम्प्रदायिकता की आग में देश को झोकने वाला सावरकर ही है. महात्मा गांधी की हत्या का सूत्रधार, अपने चेले गोडसे को फिरौती देकर बापू को मरवाना, अंग्रेज अफसरों को जेल से बार-बार माफीनामा पत्र लिखना, उस पत्र में यह लिखना कि_ ‘मै आपका भटका हुआ बेटा हूं, आप मुझे छोड़ दीजिए तो मैं आपके संग आपके कार्पोरेशन में मिलकर काम करूंगा.’ ब्रिटिश सरकार से साठ रुपये मासिक पेंशन लेना जो उस जमाने में बहुत ज्यादा होता था, इतना वहां के कलक्टर को भी नही मिलता था, गोमांस खाने का समर्थन करना, ये सभी कलंक माफीवीर सावरकर के खाता में जाता है.
सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को जेल से माफीनामा पत्र से उनके काॅरपोरेशन से मिलकर कार्य करने का जो आश्वासन दिया था, जेल से छूटने के बाद पूरा भी किया. एक तरफ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने विदेशो में जाकर अंग्रेजी शासन से देश की आजादी के लिए सेना का निर्माण कर रहे थे, दूसरी तरफ़ सावरकर अंग्रेजी सरकार की मदद के लिए भारत मे रहकर ब्रिटिश सेना में रिक्रूटमेंट का कार्य कर रहे थे.
सावरकर 60 रुपये की पेंशन से असंतुष्ट थे. सावरकर अंग्रेजों से 60 रुपए पेंशन लेते थे. यह तब की बात है जब सोना 18 रुपए तोला था. अब वर्तमान में सोना 50000 रुपए है तो पेंशन हुई 2,00,000 रुपये महीना ! मगर मजेदार बात यह है कि ‘वीर’ भाई इतने पर भी संतुष्ट नहीं थे इसलिये सावरकर ने रत्नागिरी के कलेक्टर को ‘हुजूर, इसमें मेरा गुजारा नहीं चलता’ का याचना पत्र देकर इसे बढ़ाने की गुहार सरकार से लगाई थी. कलेक्टर ने उसके जवाब में लिखा था कि – मैं यह नहीं कर सकता क्योंकि खुद मेरी मासिक तनखा भी 60 रुपये से काफी कम है.’
ऐसी अनेक ‘वीरताएं’ इनके खाते में जमा हैं. ये वे ही हैं जिन्होंने ‘हिंदुत्व’ शब्द का ईजाद किया था और स्वयं कहा था कि इस हिंदुत्व का हिन्दू धर्म या परंपरा से कोई संबंध नहीं है. यह मण्डली जितना ‘सावरकर – सावरकर’ चिल्लाएगी, उतनी ही उनकी बची खुची इज्जत भी उतरवाएगी.
इनकी असल समस्या क्या है ? इनकी असल समस्या है नायकों, मनुष्यता के हित वाले विचारों, गर्व करने लायक इतिहास और देश के हित में किये गए योगदानों के मामले में इनकी अतिदरिद्रता और कंगाली ! आरएसएस (संघ) और भाजपा, इस देश की इकलौती -एकमात्र- राजनीतिक धारा है, जिनके पास अपने पूरे कुल कुटुंब में एक भी बन्दा ऐसा नही है, जिसे वे बता सकें कि वे हमारे पुरखे थे और इन्होंने यह महान काम किया था. इनका अपना एक भी नाम ऐसा नहीं जिन पर गर्व किया जा सके. ढंग का साधु संत भी नही है : आसारामों, गुरमीत, रामरहीमों और चिन्मयानंदों से काम चलाना पड़ता है.
इसकी वजह यह है कि कुंठित मनुष्य, हिंसक विचार और कुत्सित व्यवहार कभी अनुकरणीय व्यक्तित्व नहीं गढ़ सकते. कभी अंग्रेजों, कभी ट्रम्प और हमेशा अडानियों – अम्बानियों की कुल्हाड़ियों पर लगे बेंट कोई उदाहरण नहीं रच सकते. इसलिये हिंदुत्व के पोलिटिकल ड्रामे में न उलझे, देश के समावेशी विकास और आपसी सौहार्द यही आपके परिवार और देश के लिये हितकर होगा. हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, जैन, बौद्ध, ईसाई सब मत सम्प्रदाय हैं, राजनीतिक लोग उसका पोलिटिकल इस्तेमाल करते हैं.
मुस्लिम लीग की तरह ये लोग भी द्विराष्ट्र सिद्धांत में यक़ीन रखते हैं. मुहम्मद अली जिन्नाह के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने तो उससे काफी पहले, 1937 में ही जब वे अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण कर रहे थे, तभी उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं.
फांसी से पूर्व बिस्मिल से कहा गया वे माफी मांग लें तो उन्हें जीवनदान मिल सकता है, लेकिन शहीद अशफाकउल्लाह खां और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजों के खिलाफ घुटने टेकने से साफ़ इनकार कर दिया और फांसी के फंदे पर झूल गए. हैदराबाद सत्याग्रह में भी सावरकर की भूमिका बहुत निराशाजनक थी, विश्वास न हो तो ‘निजाम की जेल में’ पुस्तक पढिए. क्षितिज वेदालंकार इस पुस्तक के लेखक हैं.
सावरकर का पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर है. जेल जाने से पहले और जेल से वापस आने के बाद सावरकर में काफी परिवर्तन आ गया था. जेल जाने से पहले सावरकर अंग्रेजों के विरुद्ध थे पर जेल में यातनाएं सह ना पाने के कारण अंग्रेजों का ही आदमी हो गया और उन गोरों का आदमी सिद्ध करने के लिए ही अंग्रेजों से माफीनामा देकर खुद को ‘महारानी विक्टोरिया का भटका हुआ बेटा’ तक बताने वाली तमाम माफियां मांगी और उसके बाद 1921 में 60 रूपया महीना पेंशन के साथ रिहा किया गया.
‘लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर’ नाम की किसी ‘चित्रगुप्त’ द्वारा लिखी किताब छपी. 1926 में छपी थी. सावरकर पर लिखी इस किताब के लेखक चित्रगुप्त को, उनके जीवनकाल में कोई नहीं जानता था और उनके मरने के बाद प्रकाशक ने बताया कि ‘चित्रगुप्त के नाम से दरअसल सावरकर ने ख़ुद अपनी जीवनी लिखी थी !’ अब जब सावरकर खुद ही दूसरे नाम से पुस्तक लिखेंगे तो अपनी बड़ाई तो करेंगे ही और खुद को कायर की जगह ‘वीर’ और ‘हीरो’ तो सिद्ध ही करेंगे !!
सावरकर ने अंग्रेज़ों को तमाम माफ़ीनामे लिखे, अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगी, वफ़ादारी का भरोसा दिलाया और कहा कि सरकार उनका ‘जैसा चाहे वैसा उपयोग कर सकती है…वे नौजवानों को विद्रोह के रास्ते से अलग करके अंग्रेज सरकार के पक्ष में लाएंगे. और ऐसा हुआ भी ! उन्हें आज़ाद कर दिया गया और वे जीवन भर हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने में जुटे रहे जैसा कि अंग्रेज चाहते थे. दूसरी तरफ़ भगत सिंह थे जिन्हें फांसी दी गई तो उन्होंने अंग्रेजों को लिखित प्रतिवेदन दिया कि उन्हें ‘गोली से उड़ाया जाए क्योंकि वे युद्धबंदी हैं.’
मुख्य सवाल यह है कि लड़ाई से पीठ दिखाने वाले को वीर कैसे कह सकते हैं ? हमें सावरकर का मूल्यांकन करते हुये यह नहीं भूलना चाहिए कि जस्टिस जीवन लाल कपूर कमीशन ने गांधी की हत्या का मुख्य षड़यंत्रकारी सावरकर को ही सिद्ध किया था, परन्तु संदेह का लाभ देकर अदालत ने छोड़ दिया.
सावरकर ने पहली माफ़ी अंडमान सेलुलर जेल माने काला पानी पहुंचने के एक माह के भीतर 30 अगस्त 1911 को ही मांग ली थी. लगातार 5 बार माफीनामा देकर अंग्रेजों से माफी मांगी और पांचवी माफी के बाद सावरकर को रिहा कर दिया गया. जेल से छूटकर सावरकर ने किया क्या ? अगर माफ़ी रणनीति थी तो छूटने का उद्देश्य क्या था ? अगर वह देश की आज़ादी थी तो छूटने के बाद उस आज़ादी के लिए क्या किया गया ? इसका जवाब किसी के पास नहीं.
मुक्त होने के बाद मुस्लिम विरोध का आन्दोलन चलाकर और 1937 में अहमदाबाद की हिन्दू महासभा की बैठक में, अध्यक्षीय भाषण देते हुए यह कहकर कि ‘हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं, कौन से अखंड भारत की स्थापना की कोशिश की जा रही थी ?’ डा. अम्बेडकर इस पर कहते हैं कि ‘जिन्ना और सावरकर दोनों ही दो राष्ट्रों के सिद्धांत के समर्थक हैं.’
पहली माफी अर्जी खारिज होने के बाद दूसरी मांगी 14 नवम्बर, 1913 को पुनः मांगी और इस माफीनामे में ही ‘भटका हुआ बेटा’ बताया था, और वादा किया था कि छूट गए तो और भटके हुओं को लौटाएंगे. पर ये दूसरी अर्जी भी ख़ारिज हुई तब तीसरी मांगी 1917 में, वो भी खारिज हुई. तत्पश्चात चौथी बार माफ़ी मांगी, अबकी बार माहौल जरा ठीक था उनके लिए – दिसंबर 1919 में सम्राट जॉर्ज पांचवे ने एक शाही घोषणा की थी- जिसमें भारत को घरेलू मामलों पर हक़ देने के साथ-साथ रिश्ते बेहतर बनाने और राजनैतिक चेतना का स्वीकार भी था – सावरकर ने मौक़ा देखा और फिर माफ़ी मांग ली ! अंग्रेजों ने सावरकर के भाई गणेश सावरकर को रिहा करने का विचार किया, पर सावरकर को नहीं. इससे पहले गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दोनों भाइयों की बिना शर्त रिहाई की मांग की, जो अंग्रेजों ने ख़ारिज कर दी थी.
फिर सावरकर ने पांचवीं माफ़ी मांगी- अपने मुकदमे, सजा और ब्रिटिश कानून को सही मानते हुए और ‘हमेशा के लिए हिंसा छोड़ देने का वादा’ करते हुए. इस बार अंग्रेजों ने पहले उन्हें काला पानी से रत्नागिरी जेल में भेजा, फिर सशस्त्र माफीनामा जो पहले मांग चुके थे, उन्ही माफी के शर्तो के बाद ही 60 रुपये की पेंशन के साथ रिहा कर दिया. रिहाई के बाद सावरकर मुंबई में बसे और महाराष्ट्र का दौरा शुरू किया. पूना में इसी दौरान सावरकर ने ख़ुद को तिलकपंथी कहने वाले सनातनियों के संगठन डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी का, पहले साथ देना तय किया और फिर उसके बाद हिन्दू महासभा का.
गोडसे की उनसे मुलाक़ात रतनगिरी में हुई थी जहां नाथूराम अपने पिता के स्थानान्तरण के बाद दो साल से रह रहा था. इस दौर में वह सावरकर के पर्सनल सेक्रेट्री (निजी सचिव) की तरह काम करता था. सावरकर ने गोडसे को अंग्रेज़ी भी सिखाई और साथ में उसके साथ कुंठा तथा हिंसा की अपनी विचारधारा भी तोहफे में दिया.
नाथूराम गोडसे सावरकर के लिए एकदम योग्य शिष्य था. अपनी तरह की कुंठा से भरा, आदर्शवादी, राष्ट्रवादी और अन्दर से खोखला. जब गोडसे ने पूना से अखबार निकालने का निश्चय किया तो सावरकर ने 15 हज़ार रूपये दिए. शिष्य गोडसे ने साम्प्रदायिक ज़हर से भरा अखबार अग्रणी निकाला तो उसके हर अंक में सावरकर की फोटो छपती थी. अग्रणी पर प्रतिबन्ध लगा तो हिन्दू राष्ट्र निकला, लेकिन सावरकर की तस्वीर वही रही.
कहा जाता है कि सावरकर ने अंडमान की जेल में रहते हुये ‘द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस -1857’ किताब लिखी नाखून, कील और कोयले से ! यह सरासर शुद्ध झूठ है. निश्चित ही यह किताब उसके पहले लिखी जा चुकी थी क्योंकि नाखून, कोयला और कील से दीवार पर नारे लिखे जा सकते हैं, 400 पेज की किताब लिखने के लिए 4 किलोमीटर लम्बी और इतनी ही चौड़ी जेल की कोठरी चाहिए, और एक फ्लेक्सिबल सीढी भी. लेकिन इस झूठ का ख़ूब प्रचार किया गया है. सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल में यह क़िस्सा सुनाया जाता है. ‘सिक्स ग्लोरियस एपो ऑफ़ इन्डियन हिस्ट्री’ आख़िरी किताब सावरकर की है जो कि उसके मरने के बाद 1971 में छपी.
महात्मा गांधी हत्या केस में सरकारी गवाह बने दिगंबर बडगे ही नहीं बल्कि एक फिल्म अभिनेत्री ने भी इस बात की गवाही दी थी. हत्या से ठीक पहले आप्टे और गोडसे सावरकर से मिलने गए थे. लेकिन जज साहब ने इसे पर्याप्त सबूत नहीं माना. और भी कई घटनाएं थी जिन्हें पढ़ के लगता है कि शायद था कोई सरकार में, जो नहीं चाहता था कि सावरकर को सज़ा हो. फ़ैसले के ख़िलाफ़ दोषी पाए गए सबने अपील की, लेकिन सरकार ने सावरकर को सज़ा देने के लिए कोई अपील नहीं की, जबकि जांच अधिकारी नागरवाला का कहना था कि मैं आख़िरी सांस तक यही मानूंगा कि यह षड्यंत्र सावरकर का है, बाक़ी विस्तार से अपनी किताब में लिखूंगा ही.
एक उत्साही क्रांतिकारी की कायरता ने, उसे जिस कुंठा में धकेल दिया था, शायद गांधी की हत्या ने उस कुंठा से निजात माने में मदद की होगी, लेकिन दुर्भाग्य सावरकर का, कि जीते जी वह पराजित रहे ! गुमनाम और अप्रासंगिक भी ! अब जो लौटे हैं तो चमकाने की चाहे जितनी भी कोशिशें हों, यह दाग़ उनके साथ रहेगा ही. वीर लिखा करे कोई इतिहास में, वह एक ग़द्दार षड्यंत्रकारी की तरह दर्ज हो चुके हैं और वीर सावरकर, कायर और अंग्रेजों के तलवे चाटने वाले ही रहेंगे क्योंकि अंग्रेज उन्हे यूं ही पेंशन नहीं देते थे ! और उन भक्तों के मन से जब भी उफान उतरेगा तो यही सच रह जाएगा !!
जिस कायरता के साथ अंडमान से छूटने के लिए यह तक वायदा कर आए थे कि मैं अपने युवा समर्थकों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने से रोकूंगा, वह काटती होगी भीतर-भीतर. कर्जन वायली की हत्या करने मदनलाल धींगरा को भेजने वाला सावरकर याद आता होगा और ख़ुद से घिन आती होगी. ख़ुद उस घिन को दूर करने की कोशिश करते होंगे. रिहाई के बाद 1921 से 1947 तक सावरकर ने कुछ भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं की कि जिससे अंग्रेजों को उन्हें फिर गिरफ्तार करना पड़े.
ये वीरता है या कायरता ? खासतौर पर यह और याद करें तो कि इस स्तर के और किसी स्वतन्त्रता सेनानी के माफ़ी मांगने का इतिहास नहीं मिलता ! वह छोड़ भी दें तो गांधी हत्या में सबूतों के आभाव में बच निकलने के बाद सावरकर लंबा जिए 26 फरवरी 1966 तक. रिहाई के बाद फरवरी 1966 तक सावरकर ने क्या किया ?
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