Home गेस्ट ब्लॉग भारतीय सत्ता के नेताओं और जरनैलों का इक़बालनामा : हुक्मरानों को अब अपने देश के नागरिकों से ख़तरा महसूस हो रहा है

भारतीय सत्ता के नेताओं और जरनैलों का इक़बालनामा : हुक्मरानों को अब अपने देश के नागरिकों से ख़तरा महसूस हो रहा है

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2014 से केंद्रीय सत्ता में आई भाजपा हुकूमत के लिए नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के रूप में जनता की ताक़त पहली बार गंभीर चुनौती बनकर उभरी थी. गले की हड्डी बने इस संघर्ष से भाजपा को कोरोना के कारण राहत मिल गई थी, अब कृषि क़ानूनों के विरोध में चले ऐतिहासिक संघर्ष ने मोदी हुकूमत को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया है. इस संघर्ष ने ना सिर्फ़ फासीवादी हुक्मरानों की जन-विरोधी नीतियों के अंधाधुंध बढ़ रहे रथ को रोककर चुनौती दी, बल्कि हुक्मरानों में जनता की ताक़त का खौफ़ भी पैदा किया.

इस संघर्ष द्वारा जिस नई ऊर्जा का संचार हुआ है, वह मेहनतकश जनता के लिए भी संघर्ष के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा का स्रोत बना है. हुक्मरानों को अब जनता से ख़तरा महसूस हो रहा है, वो सत्ता की ओर से पुलिस/फ़ौज को अथाह ताक़तें देने की वकालत करते हैं, दमनकारी क़ानूनों को सही ठहरा रहे हैं और मानवीय अधिकारों की बात को देश के लिए ख़तरा बता रहे हैं. ये विचार भारतीय सत्ता के प्रमुख प्रतिनिधियों द्वारा सरेआम पेश किए जा रहे हैं.

11 नवंबर को हैदराबाद में पुलिस अकादमी की परेड के समय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने संबोधि‍त किया, जिसमें उसने कहा कि –

अब युद्ध का नया मोर्चा – जिसे चौथी पीढ़ी का युद्ध कहा जाता है – नागरिक समाज है. युद्ध अब अपने राजनीतिक या फ़ौजी उद्देश्यों को हासिल करने का प्रभावी साधन नहीं रहा है. उसके परिणाम को लेकर अनिश्चित्ता की हालत बन गई है लेकिन नागरिक समाज को राष्ट्र के हितों को नुक़सान पहुंचाने के लिए बर्बाद किया, बहकाया जा सकता है, उसमें फूट डाली जा सकती है.’

यह बयान मोदी द्वारा कृषि क़ानून वापिस लेने की घोषणा किए जाने से पहले का विचार है. डोभाल के इस बयान को थोड़ा और बारीकी से समझते हैं. ‘चौथी पीढ़ी का युद्ध’ शब्द आम तौर पर सत्ता के ख़ि‍लाफ़ जूझ रहे आतंकवादी या बागी ग्रुपों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. यह डोभाल का इक़बालनामा है कि मेहनतकश जनता अब भारतीय राज्यसत्ता के ख़ि‍लाफ़ (चौधी पीढ़ी के) युद्ध में हैं. वो कह रहा है कि भारतीय राज्य प्रबंध को नागरिकों (मेहनतकश जनता) से ख़तरा है. यह कहते हुए वो पुलिस को जनता के ख़ि‍लाफ़ युद्ध छेड़ने का आह्वान करता है.

डोभाल के अनुसार समाज में ऐसी ताक़तें मौजूद हैं, जो जनता को ‘बहकाती’ हैं. हुक्मरान वर्ग के लिए लूट, दमन झेल रहे लोग ही भोले या असल नागरिक हैं और जब जनता अपने अधिकारों के लिए संगठित होती है, संघर्ष करती है तो वह बहकावे, फूट का शिकार हो जाती है. भाजपा हुकूमत द्वारा जनता की आवाज़ को अनदेखा करने के लिए यही बात बार-बार की जाती है.

अपनी राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लड़ रही कश्मीरी जनता को वे भाड़े के पत्थरबाज़ कहते हैं, नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध जनता की लड़ाई को विदेशी साज़िश बताते हैं और कृषि क़ानूनों के विरुद्ध लड़ने वाले किसानों और मेहनतकश जनता को बहकाई हुई कहते हैं. संघर्ष के रास्ते पर चलने वाले इन लोगों को ‘बहकाने’ वाले कौन हैं ? भाजपा उन्हें शहरी नक्सली, माओवादी, खालिस्तानी, आतंकवादी और विदेशी एजेंट आदि कहते हुए उन्हें बदनाम करने पर पूरा ज़ोर लगाती है. अजीत डोभाल ने भी यही किया है.

आगे डोभाल ने यह भी कहा कि ‘जनतंत्र में अनिवार्य मत-पेटियां नहीं हैं, बल्कि वे क़ानून हैं जो इन पेटियों द्वारा चुने गए लोगों द्वारा बनाए जाते हैं.’ ऐसे डोभाल की जनतंत्र की परिभाषा में केंद्रीय चीज़ जनता नहीं बल्कि हुक्मरान वर्ग द्वारा बनाए गए क़ानून हैं. क़ानूनों को जनतंत्र की ज़िंदगी कहते हुए वह यह भी कहना चाहता है कि क़ानून ग़लत नहीं होते, बल्कि सही ही होते हैं.

नागरिक समाज को ख़तरा बताते हुए और क़ानूनों को जनतंत्र का सार बताते हुए डोभाल एक तरह पुलिसिया राज्य का समर्थन कर रहा है और पुलिस और फ़ौज को अथाह ताक़तें देने की वकालत कर रहा है. यह भारत के हुक्मरानों द्वारा राजद्रोह, यूएपीए, अफ़स्पा और पब्लिक सेफ़्टी एक्ट जैसे अनेकों काले क़ानूनों को सही ठहराने की कोशिश है.

11 नवंबर को सुरक्षा स्टाफ़ के अध्यक्ष बिपिन रावत ने ‘टाईम्स नाऊ’ ग्रुप द्वारा करवाए एक समागम में भीड़तंत्र और भीड़ द्वारा हत्याओं को सही ठहराया था. कश्मीर की बात करते हुए उसने कहा कि ‘अब हमें कश्मीर की स्थानीय जनता का साथ मिल रहा है. वहां की स्थानीय जनता आतंकवादियों को भीड़ के रूप में क़त्ल करने के लिए तैयार है या उन्हें मरवाने में सहायता करने के लिए तैयार है, यह अच्छी बात है.’

सेना अध्यक्ष बिपिन रावत की बात किसी को डोभाल की बात के बिल्कुल उलट लग सकती है, लेकिन ऐसा नहीं है. जहां डोभाल सत्ता द्वारा जनता की निगरानी रखने, दमन करने, उनके संघर्षों को बदनाम करने, कुचलने और पुलिस, फ़ौज को अथाह ताक़तें देने की वकालत करता है, वहीं बिपिन रावत उस भीड़तंत्र को बढ़ावा देने की बात करता है, जो सत्ता विरोधी नहीं है, बल्कि फासीवादी हुक्मरानों की बोली बोलता है. यानी वो भीड़तंत्र जो एक तरह से सत्ता का ही अंग है, जो वहां काम आता है, जहां क़ानूनी हथकंडे नहीं चलते.

बिपिन रावत उस भीड़तंत्र का गुणगान करता है, जो कश्मीरी लड़ाकों के विरुद्ध हो, जो गौ-हत्या के नाम पर निर्दोषों का क़त्ल करती है, जिसने 1992 में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करके अयोध्या में क़त्लेआम किया था, जिसने 2002 में गुजरात में क़त्लेआम किया था. असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुंडों द्वारा की जा रही कार्रवाइयों को देश की ज़रूरत बताता है. अगर यही लोग सत्ता के विरुद्ध कोई जंग छेड़ें तो बिपिन रावत के लिए वो देशद्रोही और आंतकवादी हो जाते. कश्मीरी राष्ट्र की मुक्ति के लिए, नागरिकता संशोधन क़ानून या कृषि क़ानूनों के विरुद्ध लड़ रहे लोग बिपिन रावत के मुताबिक़ आतंकवादी या बहकाए गए लोग ही हैं.

ध्यान रहे कि यह वही बिपिन रावत है, जिसने एक फ़ौजी अध्यक्ष द्वारा एक कश्मीरी नागरिक को जीप के आगे बांधकर उसे सुरक्षा की ढाल बनाने को जायज़ ठहराया था. वही बिपिन रावत जिसका कहना था कि ‘मेरी दिली कामना है कि कश्मीरी जनता पत्थरों की जगह बंदूक़ों के साथ हम पर हमला करें. फिर हम वो कर सकेंगे, जो हम करना चाहते हैं.’

9 नवंबर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा फ़ौज की असम राइफ़ल के साथ संयुक्त रूप में केंद्रीय हथियारबंद पुलिस बल के लिए इस विषय पर बहस रखी गई थी कि, ‘क्या मानव अधिकार आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी बुराइयों से लड़ने के रास्ते में अड़चन हैं ?’ यह सवाल आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर किए जा रहे मानवाधिकारों के हनन को सही बताने की कोशिश है.

आतंकवाद, नक्सलवाद आदि के नाम पर यहां अपने जायज़ अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही जनता का दमन करने का पुराना और लंबा इतिहास है. 2014 में भाजपा की फासीवादी हुकूमत आने के बाद देशद्रोही, शहरी नक्सली, आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. श्रीनगर में नौजवानों का क़त्ल, त्रिपुरा में लोगों का ख़ून बहाना, नागालैंड में फ़ौज द्वारा अत्याचार और लखीमपुर खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ाने की घटनाएं अभी कल की ही बात हैं.

फर्ज़ी मुठभेड़, निर्दोषों को जेल में बंद करने और पुलिस हिरासत में मौतों की सूची बहुत लंबी है. त्रिपुरा में मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा की तथ्य खोज रिपोर्ट को तैयार करने वाले वकीलों को आतंकवादी घोषित कर दिया गया. जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार कार्यकर्ता तालिब हुसैन को इस बात के लिए गिरफ़्तार किया गया कि उसने सीआरपीएफ द्वारा पिछले महीने एक नौजवान को मारे जाने पर सवाल किया. यानी मानवाधिकारों की यहां पहले ही अनदेखी हो रही है और देश का मानवाधिकार आयोग इनकी धज्जियां उड़ाने की वकालत कर रहा है.

सत्ता के इन प्रतिनिधियों के इन बयानों की तारें महीनों पहले ही मोदी द्वारा कही बात से जुड़ती हैं. 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में भाजपा नेता के बेटे द्वारा किसानों को अपनी कार से कुचलने के कुछ दिन बाद 12 अक्टूबर को प्रधानमंत्री मोदी की कही बात ध्यान देने वाली है. उसने कहा था कि, ‘कुछ लोग कुछ घटनाओं में मानवाधिकारों के उल्लंघन को देखते हैं और कुछ नहीं. मानवाधिकारों का उल्लंघन तब होता है जब इन्हें राजनीतिक चश्मों द्वारा देखा जाता है…कुछ लोग मानवाधिकारों के नाम पर देश का अक्स बिगाड़ना चाहते हैं.’

यहां मोदी का इशारा था कि लखीमपुर खीरी में किसानों के मानवाधिकारों का शोर मचाया जा रहा है, लेकिन जिन मानवाधिकारों को किसानों द्वारा कुचला (!) जा रहा है, उनके बारे में कोई बात नहीं करता. इसी बहाने उसने सरकार द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन करने पर सवाल उठाने वालों पर ही सवाल उठाए. मोदी की तकलीफ़ यह नहीं कि सारे मामलों में मानव अधिकारों की बात क्यों नहीं होती, बल्कि उसकी तकलीफ़ यह है कि जहां यह सत्ता घिर रही हो, वहां मानवाधिकारों की बात ना की जाए. देश के अक्स की दुहाई देकर मोदी यही कहना चाहता है कि उनके द्वारा कुचले जा रहे मानवाधिकारों के बारे में कोई ना बोले.

वास्तव में मोदी के बयान से जो बात शुरू होती है, उसे डोभाल और रावत ने नतीजे पर पहुंचकर पूरा कर दिया है. इन्हें जोड़कर कहा जा सकता है कि फासीवादी हुकूमत कुछ ऐसा कहना चाहती है – अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले, सरकार की नीतियों और सत्ता का विरोध करने वाले देशद्रोही, आतंकवादी हैं. उनके मानवाधिकारों की कोई बात नहीं होनी चाहिए बल्कि उन्हें बेहिसाब दमन से कुचला जाना चाहिए. ऐसे लोग अपनी बात मेहनतकश जनता तक पहुंचाते हैं और ऐसा करके अपने संघर्ष का घेरा विशाल करते हैं, इसी कारण पूरा नागरिक समाज ही सत्ता का दुश्मन बन चुका है. इसे क़ाबू में रखने, इनके संघर्षों को कुचलने के लिए पुलिस और फ़ौज को बेहिसाब ताक़तें दी जानी चाहिए और यहां दमनकारी क़ानूनों का राज होना चाहिए, जिनके सही होने पर कोई सवाल ना उठाए. अगर ऐसे भी लोग क़ाबू में ना आएं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे सत्ता के दल्लों की भीड़ को कार्रवाई करने का अधिकार देना चाहिए.

बहुत सारे बुद्धिजीवियों द्वारा इन बयानों की आलोचना करते हुए इसे जनतंत्र के लिए खतरा बताया गया है लेकिन इन बयानों में उस सच को क़बूल किया गया है जिसे जनतंत्र के पर्दे के पीछे छुपाने की कोशिश की जाती है. राजसत्ता उत्पादन के साधनों पर क़ब्ज़ा किए हुए वर्ग द्वारा मेहनतकश जनता पर दमन करने का औज़ार होती है – पुलिस, फ़ौज, जेलें, अदालतें इसके अंगों में से ही हैं. देश की सुरक्षा और अमन, क़ानून को कायम रखने के नाम पर कायम की गई पुलिस, फ़ौज का असल मक़सद पूंजीपति वर्ग के हितों के लिए लोगों को क़ाबू में रखना, उनका दमन करना ही होता है.

एक दौर तक सत्ता ये सब जनतंत्र के पर्दे के पीछे करती थी, लेकिन अब फासीवाद के दौर में सत्ता ये सब खुलकर स्वीकार करते हुए, इसे जायज़ ठहराते हुए और भी ज़्यादा तेज़ी से कर रही है. ऐसे देश के हुक्मरानों ने मेहनतकश जनता को दुश्मन मानते हुए युद्ध का इक़बाल किया है. अब बात यहां खड़ी है कि मेहनतकश जनता कब सत्ता के विरुद्ध युद्ध लड़ेगी और सत्ता जीतकर मज़दूर वर्ग की अगुवाई में नए तरह का समाज बनाएगी जो लूट, दमन से मुक्त होगा.

  • मुक्ति संग्राम के सम्पादकीय – बुलेटिन 14,  जनवरी 2022

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